साहित्य के पुरोधा केदारनाथ सिंह के जीवन में था बनारस का रंग

साहित्य के पुरोधा केदारनाथ सिंह के जीवन में था बनारस का रंग

सृजन-संघर्ष 

बोरसी की आग की तरह आज भी धधकती हैं केदारनाथ सिंह की रचनाएं 

शुरूआती जीवन बचपन से लेकर जवानी की ढलान तक गांवों के आसपास ही बीता
बोध की तरह कठिन नहीं, जादू की तरह असर करती हैं केदारनाथ सिंह की कविताएं

 केदारनाथ सिंह साहित्य के ऐसे पुरोधा थे जिनके जीवन में बनारस का रस था। बलिया का रस था और गांवों का रस था। दिल्ली में रहते हुए भी गंवई जीवन से हमेशा जुड़े रहे। पूरब के लोगों से हमेशा भोजपुरी में बतियाते थे। साथ ही भोजपुरी भाषियों को हमेशा प्रोत्साहित करते रहे। केदारनाथ सिंह के जीवन को समझने के लिए उस भोजपुरी अंचल को समझना बेहद जरूरी है जिस अंचल ने इतने बड़े कवि को जन्म देने और और पालने पोसने का गौरव हासिल किया। केदार जी की कविताओं और बातों में अपने गांव को लेकर एक अजीब सी तड़प दिखती है। कहते थे कि गांव आने-जाने का जो अटूट रिश्ता है वही हमारे अंदर कवि को जिलाए हुए है।
केदार जी का शुरूआती जीवन बचपन से लेकर लगभग जवानी की ढलान तक गांव और उसके आस-पास ही बीता। चाहे बनारस हो या गोरखपुर का पडरौना। ये जगहें महानगर तो नहीं थी, ठीक ढंग से नगर भी नहीं थी। ज्यादा से ज्यादा उन्हें कस्बा कह सकते हैं, जहां के लोग भी गांव के आस-पास के लोग ही थे, जो भोजपुरी बोलते थे, सुरती रगड़ते और पान खाते थे। उनके व्यक्तित्व की खासियत वह अल्लढ़पन भी है, जो नागर सभ्यता और संस्कृति के लोगों के व्यक्तित्व से सिरे से गायब दिखता है। बाद के दिनों में दिल्ली के बीच में आ जाने की पीड़ा केदार की कविता में मुखर होकर आती है। यह वह पीड़ा है जो गांव के एक आदमी के शहर में जाकर शहरी हो जाने के बाद उभरती है।
केदारजी का जन्म बलिया जिले के चकिया गांव में हुआ। दूसरे, शुरूआती पढ़ाई के बाद उच्च शिक्षा के लिए वे बनारस आए। और तीसरे जब वे अंतत: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में गए और दिल्ली में ही अपना निवास बनाया। इस बीच एक बात और ध्यान रखने वाली है वह है कि इन स्थानों पर यायावरी करते हुए उनकी सर्जना लगातार जारी रही और उन्होने निरंतर कविता लेखन के नए-नए कीर्तिमानों को स्पर्श किया। यह दुहराने की जरुरत नहीं है कि तारसप्तक में शामिल होना केदार जी की रचनात्मकता को एक नया मोड़ प्रदान करता है। यह भी बताना जरूरी नहीं कि केदार जी का शुरुआती जुड़ाव नवगीत से था और एक गीतकार के रूप में बनारस और आस-पास उनको लोग जानने लगे थे, कि कहे गीतों ने धूम मचाकर रखा था।
आखिर केदार की कविताओं का मूल स्त्रोत क्या है? एक कवि के मन में रचनात्मकता का श्रेष्ठतम विस्फोट कैसे संभव हुआ? लोक से जुड़ा हुआ गीत लिखने वाला एक रचनाकार नई कविता को एक नई दिशा दे सकने में कैसे सफल हो पाया? कैसे एक कवि अपने बाद की आने वाली एक पीढ़ी को शिद्दत से प्रभावित कर पाया? वे कौन-कौन से तत्व हैं जो एक अंचल विशेष के भूगोल से जीवन भर मानसिक रूप से जुड़े हुए कवि की कविता को एक वैश्विक आयाम देते हैं? ये सारी बातें केदार की कविताओं का विवेचन करते समय स्वभावतया उभर कर सामने आती हैं। केदार की कविताओं को समझने के क्रम में एक और बात को ध्यान में रखना जरूरी है, जो उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार अर्पण के दौरान कही थीं कि नगर केन्द्रित आधुनिक सृजनशीलता और ग्रामोन्मुख जातीय चेतना के बीच जब-तब मैंने एक खास किस्म के तनाव का भी अनुभव किया है। यह तनाव हमारे दैनिक सामाजिक जीवन की एक ऐसी जानी-पहचानी वास्तविकता है जिसकी ओर अलग से हमारा ध्यान कम ही जाता है। केदार जी की कविताएं लोक और नागर संस्कृति के बीच के एक अदृश्य सूत्र या कहें कि एक अदृश्य कोने में आकार पाती हैं। और यह इतना धीमे और सहजता से घटित होता है कि पाठक तो क्या कवि को भी कई बार इसका इल्म नहीं हो पाता।
केदारनाथ सिंह की कविताएं जादू की तरह असर करती हैं। इस जादू की पड़ताल की चुनौती भी केदार की कविताएं उपस्थित करती हैं। उनकी कविताएं मुक्तिबोध की तरह कठिन नहीं हैं। सहज होकर गंभीर बातों को कहना और ऐसे कहना कि आपके अंदर एक हलचल और एक बेचैनी पैदा हो जाए, यह इसी एक कवि में हमें मिलता है। यह कवि आपके साथ बोलते-बतियाते हुए एक ऐसी जगह पर लेकर जाता है, एक ऐसे लोक में, जहां से यथार्थ का एक नया चेहरा आपको दिखायी पड़ने लगता है। उनकी कविता एक बोरसी की आग की तरह धीरे-धीरे बढ़ती और फिर धधकती है। यह उसके आसपास की बतकही की तरह मालूम पड़ती है, जो ऊपर से बिना प्रयास के, साधारण मालूम पड़ती है, किंतु जिसके नीचे सच्चा जीवन धधक रहा होता है।
साथ ही उनकी कविताएं एक ताजगी लेकर उपस्थित होती हैं। उनमें बोलने बतियाने का एक गंवई ठाट है, वहां कोई बड़बोलापन नहीं है, और है भी तो इतना सहज की वह अखरता तो कतई नहीं। वे चाहे मारिशस या सुरिनाम पर कविताएं लिख रहे हों उनके पांव कहीं न कहीं अपनी मिट्टी में इतने गहरे घंसे हुए हैं कि उनकी हर कविता में उसकी सुगंध देखने को मिल जाएगी। लेकिन क्या यह इसका प्रमाण है कि केदार की कविताएं गांव और कस्बे के इर्द-गिर्द घुमती हैं। इस तथ्य को उनकी कविताएं ही नकारती भी हैं।

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