संभलकर चलाएं कलम, बूलेट से भी तेज लगती है इसकी चोट

संभलकर चलाएं कलम, बूलेट से भी तेज लगती है इसकी चोट

मानवाधिकार का सबसे बड़ा रक्षक है चौथा खंभा

विजय विनीत

पत्रकारिता देश का चौथा खंभा है। समाज की ढेरों समस्याओं का हल मीडिया के माध्यम से निकला है। जहां मानवाधिकार का हनन होता है और सभी रास्ते  बंद हो जाते हैं तो मीडिया ही सहारा बनती है। मानवाधिकार का सबसे बड़ा रक्षक पत्रकार होता है। दुनिया भर में पत्रकारों की सबसे ज्यादा हत्याएं इसलिए होती हैं कि वह मानवाधिकार के पक्ष में आवाज उठाता है। पत्रकारों को यह अच्छी तरह से समझना चाहिए कि हर मानव की एक गरिमा होती है। स्त्री हो या पुरुष, दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। पत्रकारों को चाहिए कि वे मानवाधिकार के मामले में संभलकर कलम चलाएं। उन्हें यह पता होना चाहिए कि कलम की चोट बूलेट से भी तेज लगती है।

मानवाधिकार रक्षा और स्वतंत्र पत्रकारिता का चोली-दामन का साथ होता है। स्वतंत्र पत्रकारिता एक कला है। सही मायने में पत्रकार वही बन पाता है,  जिनमें समाज की विसंगतियों से जूझने और उन्हें बदलने की बेचैनी होती है। सबसे पहले यह जानना जरूरी कि मीडिया आखिर है क्या? मीडिएटर शब्द से बना है मीडिया, जिसका मतलब है समाज की दो धाराओं के बीच परस्पर संवाद का माध्यम बनना। दूसरे शब्दों में कहें तो यह समाज और समूह तक सूचना, शिक्षा एवं मनोरंजन पहुंचाने का सजग व सशक्त माध्यम है। मीडिया एक संवाद सेतु है। एक स्थान से दूसरी जगह त्वरित गति से सूचना पहुंचाना उसका सबसे बड़ा काम है। मीडिया जितना सक्रिय होगा, मानवाधिकारों का संरक्षण उतनी तेजी से होगा। मीडिया से हमेशा निर्भीकता और सत्यनिष्ठा की उम्मीदें की जाती हैं। जनता की उससे अपेक्षा होती है कि वह समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से विचलित न हो।

ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट डा.लेनिन रघुवंशी कहते हैं कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मीडिया के समानांतर भूमिका निभाता है। वह जनसामान्य को उसके सभी रिश्तों में सचाई का दायित्वबोध कराने की गंभीर जिम्मेदारी निभाता है। समाज में जब भी किसी इंसान को उसकी गरिमा से वंचित करने की कोशिश की जाती है तो सबसे पहले हस्तक्षेप मीडिया ही करता है और बाद में मानवाधिकार आयोग। समय-काल चाहे जो भी रहा हो, मीडिया हमेशा मानवाधिकारों की पैरोकार रही है। वह सजग प्रहरी की भूमिका में नहीं होती तो हम अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों से न लड़ पाते और न जीत पाते। सच यह है कि मानवाधिकार के पक्ष में आंदोलन की जमीन भी मीडिया ही तैयार करता है।

ज्यादा ताकतवर है नए जमाने की मीडिया

नए जमाने का मीडिया पहले से ज्यादा शक्तिशाली भूमिका में है। सोशल मीडिया ने तो मानवाधिकार का हनन करने वाली ताकतों की चूल्हें हिलाकर रख दी है। पुलिस हिरासत और जेल में होने वाली मौतों की खबरें मीडिया में सुर्खियां जरूर बना जाती हैं, लेकिन स्त्रियों के संदर्भ में पुरुष प्रधान समाज उनके मानवाधिकार का हनन करने से बाज नहीं आता। समाज में यह सच हर समय घटित होता, पर मीडिया आवाज नहीं उठाता। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष रहे न्यायमूर्ति एस. राजेंन्द्र बाबू कहते है कि मीडिया सामाजिक मुद्दों,  गरीबी से पैदा हुई समस्याओं और कुपोषण से होने वाली मौतों पर गंभीरता से ध्यान दे। इन घटनाओं को मुठभेड़ों और पुलिस हिरासत में हुई मौतों को ज्यादा अहमियत दे। वह समाज के उन लोगों पर ध्यान दे जिन्हें अपने अधिकारों का एहसास ही नहीं है।

मानवाधिकार के मुद्दों पर कितने संवेदनशील होते हैं मीडियाकर्मी

मानवाधिकार के प्रति मीडियाकर्मी कितने संवेदनशील हैं, यह उनकी झपटमार कार्यशैली से पता चलता है। ज्यादातर मामलों में पत्रकार अब पुलिस की सूचनाओं को हुबहू परोस देते हैं। चाहे वह गलत ही क्यों न हो? प्रिंट की अपेक्षा इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े पत्रकार कहानी गढ़ने में ज्यादा आगे दिखते हैं। चंदौली के नौगढ़ प्रखंड के कुबराडीह गांव में करीब डेढ़ दशक पहले भूख से तीन ग्रामीणों की मौत हो गई। इस मामले में कुछ मीडिया कर्मियों को छोड़कर बाकी सभी भुखमरी और मानव अधिकारों से संबंधित मामले में बेशर्म प्रशासन का पक्षकार बन गए।

महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के प्रति मीडिया का रवैया हमेशा से  भेदभाव पूर्ण रहा है। पुरूष द्वारा किसी महिला के यौन-शोषण करने पर मीडिया कोई बड़ा और तीखा सवाल खड़ा नहीं करती। लेकिन,  महिला अगर पुरूष पर हमला कर देती है,  तो यह ‘मेन बाइट्स डॉग’ की झपट पड़ती है। देश की मुख्य धारा की मीडिया की मानसिकता यही रही है।

इसके बावजूद सच खबर लिखने वाले पत्रकारों की तादाद कम नहीं है। यही वजह है कि हाल के दिनों में मीडियाकर्मियों पर हमले की घटनाओं में भारी इजाफा हुआ है। सत्तारूढ़ दल के नेताओं के इशारे पर काम करने वाली पुलिस और प्रशासन मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले पत्रकारों का दमन करने में कतई पीछे नहीं हैं। दरअसल मीडिया का एक तबकाक लाइव कावरेज और टीआरपी बढ़ाने के नाम पर अपनी हदों को पार करता जा रहा है। यह वही तबका है जो ताज होटल में फंसे बंधकों और सुरक्षा बलों के लिए खतरा पैदा हो गया था।

हर साल जान जोखिम में डालते हैं हजारों पत्रकार

तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि सैकड़ों पत्रकार देश और समाज के लिए अपनी जान भी जोखिम में डाल रहे हैं। देश के कई राज्यों में नक्सलवाद और आतंकवाद के चलते हालात बेहद गंभीर हो गए हैं। माफिया गिरोहों का काकस मानवाधिकार के तंत्र को दबोचने में जुटा है। यूपी और बिहार की जातीय सेनाओं का राजनीतिक दलों के साथ गठजोड़ ने ईमानदारी से मानवाधिकार के लिए काम करने वाले पत्रकारों के सामने बड़ी चुनौती खड़ी की है। मानवाधिकार के मुद्दों पर पत्रकारों को दोहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। एक तरफ गुंडों-बदमाशों और आतंकियों की जमात तो दूसरी ओर,

मानवाधिकार उल्लंघन जैसे मुद्दों पर रपटें  प्रकाशित करने पर सुरक्षा बलों की नाराजगी झेलनी पड़ती है। कई बार लगता है कि पत्रकारों को पुलिस अफसरों और जवानों ने अपनी राह का कांटा मान लिया है। कई अवसर आते हैं जब ये मामूली सूचनाओं पर भी गोपनीयता का जामा पहना देते हैं। अगर पत्रकार पुख्ता  तथ्यों के साथ कोई रपट छापते हैं तो उन्हें आतंकियों अथवा नक्सलियों का पैरोकार बताकर बेवजह परेशान किया जाता है। देश के ज्यादार हिस्सों में पुलिस और पत्रकारों का संबंध तनावपूर्ण रहा है। पुलिस की अकर्मठता, निष्क्रियता, बलात्कार, नरसंहार और खराब कानून व्यवस्था पर खबरें लिखने वाले पत्रकार हमेशा पुलिस अफसरों की आंख के किरकिरी बने रहते हैं।

पत्रकार कैसे रोकें मानवाधिकार का हनन

विवाद के ज्यादातर मामलों में एक पक्ष दूसरे के मानवाधिकार हनन करता है। ऐसे मामलों में पत्रकार घटना की गहराई में जाएं। पहली नजर में जो दिख रहा है, उसे ही खबर बनाना उचित नहीं। मानवाधिकार के मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में रखना ज़रूरी है, जिनके अनुसार, हर व्यक्ति को जीवन संरक्षण का अधिकार है। जाति-धर्म,  नस्ल अथवा लिंग से परे उसे किसी भी तरह की प्रताड़ना से बचने का अधिकार है। ऐसे में मानवाधिकार हनने के मामलों की रिपोर्टिंग में अधिक से अधिक सबूत जुटाने चाहिए ताकि किसी भी तरह की गलती की गुंजाइश न रहे।  पत्राकर सबूतों के साथ छेड़छाड़ न करें। आवश्यक जानकारी के लिए संबंधित पक्ष से बार-बार सवाल करें और उनके जवाब को मिलाएं। संभव हो तो वीडियो रिकॉर्डिंग या साउंड रिकॉर्डिंग भी कीजिए ताकि आपके पास सबूत पुख्ता हों। समय पर आप उन्हें प्रमाण के तौर पर पेश कर सकें।

मानवाधिकार के क्षेत्र में काम कर रहे संगठनों और व्यक्तियों से ज़रूर मिलना चाहिए और उनके बताए तथ्यों को भी गंभीरता से अपनी रिपोर्ट में शामिल करना चाहिए। मानवाधिकार उल्लंघन की कोई भी घटना अक्सर अखबारों अथवा खबरिया चैनलों की सुर्खियां बन जाती हैं। जिस पक्ष पर मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगता है, वह अचानक विरोधियों के निशाने पर आ जाता है। समाज में उसके बारे में खराब धारणा बनने लग जाती है। विरोधी राजनीतिक दल इसका लाभ लेने लगता है। ऐसे में पत्रकारों को किसी खास गुट का नाम लेने से बचना भी चाहिए और जितनी सामग्री पेश करें, उसके बारे में ठोस प्रमाण रखने और देने चाहिए।

मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप आधुनिक लोकंतंत्रवादी युग में काफी गंभीर माने जाते हैं, इसलिए इस तरह के आरोपों को बिना तथ्यपरक जांच के स्वीकार करना पत्रकारिता के मूल्यों के खिलाफ हो सकता है। मानवाधिकार के उल्लंघन के आरोप गंभीर होते हैं, इसलिए इस तरह के आरोपों को सहज खारिज भी नहीं करना चाहिए। खबरों की कवरेज के दौरान पत्रकारों को अपने सूत्रों की सुरक्षा का भी ध्यान रखना चाहिए। बड़ी घटनाओं में खबरों का कवरेज करने के बाद पत्रकार लौट जाते हैं। उनकी खबरों के सूत्र, गाइड वगैरह स्थानीय होते हैं। लौटने के बाद भी पत्रकारों को अपने सूत्रों की खोज-खबर लेते रहना चाहिए। इस बात का पुख्ता इंतजाम भी करना चाहिए कि सूत्रों पर कोई संकट पैदा न हो।

पीड़ितों व प्रत्यक्षदर्शियों से करें विस्तार से बातचीत

पीड़ितों और प्रत्यक्षदर्शियों से बातचीत  पत्रकार के लिए बेहद ज़रूरी होता है। यह कोशिश करनी चाहिए कि पीड़ितों से या अन्य सूत्रों से बात यथासंभव अकेले में की जाए। समूह में अक्सर लोग सही बात नहीं बताते। कई बार वे घटनाओं को बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगते हैं। समाज में पत्रकार अक्सर न्याय का साधन लगने हैं,  इसलिए कुछ लोग  दूसरे पक्ष की कारगुजारियों को उछालने लग जाते हैं। अपने साथ हुई अत्याचार की वारदातों को बढ़ा-चढ़ाकर परोशने हैं। बेहतर हो, कि आप उन्हें वास्तविकता से परिचित कराएं। जनता में किसी तरह की व्यावहारिक उम्मीद नताएं और न ही कोई भ्रम पैदा करें। अगर पीड़ितों के मन में कुछ डर है तो समझाकर उन्हें निकालने की कोशिश करें। उन्हें यह साफ-साफ बता दें कि भविष्य में उन्हें वहीं रहना है। आप उनकी मदद के लिए हर समय मौजूद नहीं रहेंगे। ऐसे में आप वैकल्पिक सूत्र की तलाश करें या पीड़ितों के नाम को छिपाने की पुख्ता व्यवस्था करें। पीड़ित से जितनी जानकारी हो सके, एक बार में ही ले लेनी चाहिए। यह मानकर चलना चाहिए कि आपकी उससे मुलाकात बार-बार संभव नहीं हो सकेगी।

घटनाओं का ब्योरा क्रमबद्ध तरीके से तैयार करें। घटनाओं में इस्तेमाल होने वाले हथियारों के बारे में भी सवाल करें।  संभव है कि पीड़ित सारी घटनाओं को सिलसिलेवार न बता पा रहे हों तो ऐसे में अन्य सूत्रों से जानकारी लेकर घटनाओं के तारतम्य को जोड़ें। पीड़ितों की ही बात को पूरा सच न मानें।  प्रत्यक्षदर्शियों को भी अपनी खबरों में शामिल करें। मानवाधिकार हनन के मामले में पीड़ितों मिलना जरूरी तो है ही, आरोपियों से भी बात की जानी चाहिए। कई बार यह खतरनाक भी होता है, क्योंकि संबंधित पक्ष पहले से मानकर बैठा होता है कि  खबर उसके खिलाफ ही लिखी जाएगी।

आरोपी पक्ष से बात करने में सफल होने वाले पत्रकारों की खबरें दूसरों के मुकाबले ज्यादा मजबूत होती हैं। आरोपी पक्ष को ईमानदारी से यह भरोसा दिलाने की कोशिश करनी चाहिए कि सत्य जानने से उनका पक्ष मजबूत हो जाएगा। अन्यथा जो पीड़ित पक्ष कहेगा,  दुनिया उसे ही सच मानेगी। पत्रकारिता में संदेह करना बेहद जरूरी है।  ऐसे में दोनों पक्षों को सुनना और दोनों पर संदेह करना आपकी खबर को पुष्ट बनाने में सहायक साबित हो सकता है। मानवाधिकार हनन को सिर्फ युद्ध ही नहीं, घटनाओं को कवर करते समय परखना चाहिए। जो पत्रकार इस मामले में सजग होते हैं वे अतंकवाद ही नहीं,  घोर नक्सली इलाकों में होने वाली वारदातों का बेहतरीन ढंग से कवरेज कर समाज में अपनी धाक जमा लेते हैं।

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