धोखेबाज! घिन आती है तुझपर… 

धोखेबाज! घिन आती है तुझपर… 

     चर्चित कहानी

धोखेबाज! घिन आती है तुझपर…

 विजय विनीत

कहानी लेखक : विजय विनीत

सावन की महीना था। तेज बारिश हो रही थी। बड़ी-बड़ी बूंदें तारकोल की सड़कों से टकराकर अजीब स्वर पैदा कर रही थीं। काले-कजरारे बादलों से आकाश भरा पड़ा था। चौतरफा घुप अंधेरा था।

मैं उन दिनों बरेली के एक अखबार में रिपोर्टर था। दफ्तर के एक कोने में बैठकर तराई में उपजे आतंकवाद पर खबर लिखने का इरादा बना रहा था। अचानक मुझे याद आया कि मेरे पास सिगरेट की डिब्बी भर है। सिगरेट तो कब की खत्म हो चुकी थी। और उसके बगैर मैं कुछ नहीं लिख सकता था। उधेड़बुन में था कि बारिश में सिगरेट का इंतजाम कैसे हो? दफ्तर के चपरासी को बुलाया। सिगरेट की खाली डिब्बी दिखाई। वो मेरी तलब को समझ गया। मगर पहले से अधिक जोर से पानी बरसने लगा था।

सिगरेट की तलब थी ही ऐसी। लगा कि कुछ भी हो मुझे सिगरेट चाहिए…। यह सोचकर बरसाती ओढ़ी और दफ्तर से निकल पड़ा। मन में यह बात भी उपज रही थी कि घनघोर बारिश में बाहर निकलना सरासर बेवकूफी है। लेकिन दफ्तर में बैठे-बैठे उकता गया था। सड़क पर एक-एक कदम चलना मुश्किल था। जूते गड्ढों में पड़ते तो छपाक-छपाक करते। बरसाती होते हुए भी बदन पूरी तरह भीग रहा था। ज्यादातर दुकानें बंद थीं। दुकानदार अंदर दुबके बैठे थे। आवाज दी तो एक दुकान का थोड़ा सा पट खुला। लपककर वहां जा पहुंचा। मैं चीखा, “विल्स की एक डिबिया।” दुकानदार के हाथ में पैसे रखे। सिगरेट की डिब्बी लेकर दफ्तर में पहुंचा।

मैने बरसाती उतारी। तभी एक लचकदार जनानी आवाज सुनाई पड़ी, “अरे..आप तो पूरी तरह से भीग गए हैं।”

हाथ से अपने चेहरे के पानी को पोछते हुए उस तरफ देखा। एक सुंदर सी लड़की सामने मुस्कुरा रही थी। उसने अपने पर्स से छोटी सी टावेल निकाली और मेरी ओर बढ़ा दिया। वह एकटक मुझे देख रही थी।

कहने लगी, ” प्लीज… पानी पोछ लीजिए। नहीं तो सर्दी लग जाएगी। बीमार पड़ जाएंगे।” उसके चेहरे पर दिलकश मुस्कान थी।

मैने कहा, “नहीं रहने दो। बारिश और तूफान से तो रोज लड़ता हूं। खतरों से खेलता हूं। बारिश की चंद बूंदें मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगी।”

“प्लीज! मेरी बात मान लीजिए। लीजिए टावेल।” उसकी मुस्कुराहट पहले से अधिक आकर्षक थी। मैं मना नहीं कर सका।

मेरे बगल में बैठकर वह एक टक मुझे निहारती रही। मैं खबर लिखने में तल्लीन हो गया। इसी बीच संपादक के चेंबर का दरवाजा खुला। वह सीधे मेरे पास आए। मैं हड़बड़ा कर खड़ा हो गया।

मैं कुछ कहता उससे पहले ही वे बोले, “ये ग्रेजुएशन तक पढ़ी है। इसे रिपोर्टिंग तुम्हें ही सिखानी है।”

उन दिनों पत्रकारिता के लिए जर्नलिज्म कोर्स का चलन नहीं था। न्यूनतम योग्यता होती थी स्नातक। संपादक आदेश देकर लौट गए।

युवती को शायद पहले ही मेरा नाम पता था। चपरासी ने इशारे से यह भी बता दिया था कि दफ्तर का सबसे तेज-तर्रार रिपोर्टर है। कोने में बैठकर हर समय सिगरेट के धुएं से दिल फूंकता रहता है। जब तक सिगरेट लबों पर नहीं होता, तब तक कागज पर खबरें नहीं उतरतीं..। सिगरेट के बगैर तो घंटे भर भी नहीं रह सकता..।

मैने मोहतमा को अगले दिन सुबह दफ्तर आने को कहा। जाते समय उसने कहा, “शुक्रिया।”

“मैं निराश नहीं करूंगी। आप जैसा पत्रकार बनना मेरी जिंदगी का मकसद है।”

उसकी मुस्कुराहट में…उसकी बातों में कुछ वजन सा लगा। मैने जवाब में सिर हिला दिया।

अगले दिन वह समय से दफ्तर पहुंच गई। मैं पहले से ही अपनी कुर्सी पर बैठकर सिगरेट फूंक रहा था। वह आई और सामने की कुर्सी पर बैठ गई। मैं बार-बार उसके चेहरे पर निगाह जमाता और वह मुस्कुरा देती। उसमें कोई खास बात तो नहीं थी। पर जवानी ने अपनी सारी पूंजी उस पर लुटा रखी थी…इस वजह से वह हसीन कहीं जा सकती थी।

मैं कभी उसकी चंचलता के बारे में सोचता तो कभी उसकी दिलकश मुस्कुराहट के बारे में। समझ नहीं पा रहा था कि वो वाकई पत्रकार बनना चाहती है या फिर कोई बला है, जिसे संपादक ने मेरे गले में मढ़ दिया है।

मैने उसका नाम पूछा। उसने हंसकर जवाब दिया, “विल्स।”

यह उसी सिगरेट का नाम था जो मेरे होठों पर अक्सर नजर आती थी। या फिर उसकी डिब्बी मेरे टेबल पर दिखती थी।

मैं हंस पड़ा…। बाद में उसने अपना नाम बताया, “शिप्रा।”

कुछ रोज तक मैं उससे प्रेसनोट बनवाता रहा। कापी मेरे आगे रखती तो हौले से मुस्कुरा देती। गलतियां बताता तो वह खबरों पर कम, मुझे ज्यादा देखती। डाटता तब भी अपनी मुस्कुराहट की कुछ बिजलियां मुझ पर गिरा देती…। पता नहीं यह उसका खेल था या फिर उसकी अदा।

संपादक के निर्देश पर वह मेरे साथ रिपोर्टिंग पर भी जाने लगी। मुझे लगता था कि रिपोर्टिंग से ज्यादा उसकी दिलचस्पी मुझमें है। रात में बिस्तर पर पहुंचता तो शिप्रा और उसकी मुस्कुराहट मेरे जेहन में कौंधने लगती। मन में अक्सर यही विचार आता था, “शिप्रा का मकसद शायद पत्रकारिता सीखना नहीं, मुझ पर प्यार का जादू चलाना है। मुझे फंसाना है। यह भी संभव है कि उसके घर वालों के पास दहेज के लिए पैसे न हों। और वह समझती होगी कि मैं कुंवारा हूं और वह अपनी जाल में फंसा लेगी।”

शिप्रा को लेकर हर रात मन में द्वंद्व चलता रहता था। जब कभी उसकी जिंदगी में झांकने की कोशिश करता तो वह सिर्फ मुस्कुरा देती।

बस यही कहती, “तुम्हारे जैसा पत्रकार बनना चाहती हूं। यही मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना है। इस सपने को सच करने आई हूं तुम्हारे पास। क्या तुम मेरा साथ नहीं दोगो।”

मैं निरुत्तर हो जाता। मैं उसे कैसे समझा पाता कि कला और साहित्य गढ़ा नहीं जाता, स्वतः अवतरित होता है। लेकिन सफल पत्रकार बनने के लिए उसके अंदर गजब की बेचैनी थी…गजब की तड़प थी….गजब का ललक था…गजब का हौसला था.. और गजब की छपटाहट थी।

मेरे साथ जब भी वह रिपोर्टिंग पर निकलती तो मैं अक्सर उससे कहता था। “अपने पिताजी से बोलो, वह कोई अच्छा सा लड़का देखकर तुम्हारी शादी कर दें। सुंदर-सुंदर बच्चे पैदा करो…। पति की सेवा करो। कहां पड़ी हो पत्रकार बनने के चक्कर में। पत्रकारिता की राह में फूल कम, कांटे बहुत ज्यादा होते हैं। सिर्फ चुभते…। जीवन भर चुभते रहेंगे…। जिंदगी बर्बाद करने पर क्यों तुली हो….?”

जब भी शिप्रा से ये बातें कहता तो वह चिढ़ जाती। बुरा सा मुंह बनाती और कहती, “हमें नहीं करनी शादी। मेरी मंजिल बरेली नहीं। दिल्ली-मुंबई जैसे मेट्रो शहर हैं।”

“हमें कामयाब होना है। कामयाब पत्रकार बनना है। अपने खानदान को दिखाना चाहती हूं। बताना चाहती हूं कि ऐसी लड़की हूं, जिसके हौसले को…हिम्मत को कोई नहीं तोड़ सकता। हर इंसान के अंदर इतनी क्षमता होती है कि वह ऊंची से ऊंची उड़ान भर सकता है। मैं भी अपना मुकाम पा लूंगी। बस तुम्हारा साथ चाहिए।” तब मैं चुप हो जाता।

एक पल के लिए यह भी सोचता। हर इंसान के अंदर काबिलियत होती है, जिससे वह कोई बड़ा मुकाम को हासिल कर सकता है। शिप्रा शायद “कंफर्ट जोन” की चहारदीवारी में कैद होने की वजह से पिछड़ गई होगी। मैंने उसे पत्रकारिता के हर टिप्स सिखाए। उसने सीखा भी और कुछ समझा भी। मगर उसकी खबरों में वह मर्म नहीं उपज पाता था, जिसकी पाठकों को डिमांड होती थी।

शिप्रा को कामयाब रिपोर्टर बनाना मेरा सपना था। प्रोत्साहित करने के लिए एक रोज मैने उसे एक कहानी सुनाई। उन दो बाजों की कहानी, जिन्हें आसमान छूने के लिए राजा ने ट्रेनर रखा था। एक बाज तो आसमान में कुलांचे भरता, लेकिन दूसरा थोड़ी देर उड़कर फिर उसी डाल पर बैठ जाता था, जिस पेड़ के नीचे उसका घोसला था। उस बाज को आसमान में उड़ाने के लिए राजा ने बहुत जतन किए। पर कामयाब नहीं हुए। सारे हकीम-वैद्य और बहेलिए फेल हो गए। राजा ने एक रोज दोनों बाजों को उड़ते देखा तो बहुत खुश हुए। उन्होंने उस शख्स को राजमहल में बुलाकर  सम्मानित करने आदेश दिया, जिसने काहिल बाज को आसमान में उड़ा दिया था। राजा ने उसे अशर्फियां दी। बाद में उस शख्स से बाज को उड़ाने की तरकीब पूछी।

कंधे पर कुल्हाड़ी रखे उस शख्स ने कहा, “हुजूर, मैं तो ठहरा गंवार। मैने तो कुछ किया ही नहीं। बस मैने को उस डाल को काट भर दिया, जिस पर वह बाज बैठ जाता था।”

दरअसल पेड़ की वह डाल ही काहिल बाज के लिए “कंफर्ट जोन” थी। डाल नहीं रही तो उसने भी दूसरे साथी के संग आसमान में उड़ान भरनी शुरू कर दी।

शिप्रा को मैं अक्सर समझाता था कि अगर तुम वाकई कामयाब होना चाहती हो तो उस “कंफर्ट जोन” की जंजीरों को तोड़कर बाहर निकलो…। आरामदायक जीवन का त्याग करो…। जब तक तुम “कंफर्ट जोन” के सेल से बाहर नहीं निकलोगी, तब तक जीवन में ऊंची उड़ान नहीं भर सकती।

मेरी यह बात शिप्रा के दिल में उतर गई। उसने खूब मेहनत की। कामयाब होती चली गई। कामयाबी की उड़ान भरने के लिए उसे पंख मैने दिए। इसी बीच उसके साथ दूरियां न जाने कब नजदीकियों में बदल गई।

एक रोज मैने बताया, “शादीशुदा हूं।” तब वह अवाक रह गई। पहले तो उसे यकीन ही नहीं हुआ। मेरी जिंदगी का राज जानने के बाद वह काफी दिनों तक परेशान और बेचैन रही। बाद में वह मेरी निजी जिंदगी में झांकने में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगी। मैं उसे नसीहत देता कि तुम सिर्फ काम में मन लगाओ। बेकार की बातों पर ध्यान न दो। बरेली में मैं अकेले रहता था। पत्नी गांव में थी। आमतौर पर दफ्तर के साथी भी मुझे कुंवारा ही समझते थे। सिर्फ शिप्रा ही थी जो इस राज को जानती थी।

मैं शिप्रा से अक्सर शिकायत करता था कि वह क्यों झांकते रहना चाहती हैं मेरी जिदगी में। तब उसका जवाब होता था, “रहस्यों को बांटना भी अजीब रिश्ता होता है। एक अलग रिश्ते के रूप में समवर्ती खड़ा हो जाता है। पट्टीदार बनकर।”

एक रोज उसने रेस्टूरेंट में खाना खाने की फरमाइश की। रेस्टूरेंट पूरी तरह खाली था। वह जानती थी कि मुझे मिठाइयां पसंद है। साथ लेकर आई थी। मैने उसे मीनू चार्ट देकर खाने का आर्डर देने को कहा और खुद सिगरेट सुलगा लिया।  उसने सिगरेट को मेरे होठों से अलग कर दिया। जमीन पर फेंक दिया। अपनी सैंडिल के नीचे रगड़ दिया। दूसरी सिगरेट निकालने को हुआ तो उसने मेरी कलाई पड़ ली।

“क्या हुआ? “

शिप्रा के चेहरे का भाव पढ़ने के लिए उसकी तरफ देखा। फिर सैंडल के नीचे दबी सिगरेट को उठाया। उसकी तरफ मुखातिब होकर कहा, “तुमने तो सबसे पहले अपना यही नाम बताया था ना “विल्स।”

वह हंस दी। फिर बोली, “तुम्हें नहीं देखती हूं तो मन बेचैन रहता है। तुम शायद ऐसे स्लेट हो, जिस पर बहुत कुछ लिखकर मिटाया जा चुका है। इसीलिए हर वक्त पढ़ने की कोशिश करती रहती हूं तुम्हें। कुछ स्थिर लिखा हो तब तो पढ़ूं।” तब मैं खामोश, शांत और गंभीर हो जाता।

अखबार के दफ्तर में तो हम रोज ही मिलते थे।  एक-दूसरे से बातें साझा करते थे। मगर वैसा संबंध नहीं था, जिसे प्रणय कहा जा सके। हम दोस्त थे। या फिर एनालजेसिक टेबलेट…। या फिर मसाजर…, जिससे दर्द में आराम नहीं, पर आराम का एहसास जरूर होता है…।

शिप्रा कुछ भी कहती थी, साफगोई से कहती थी।

बताती थी कि “दूसरी लड़कियों की तरह मेरा कोई ब्वायफ्रेंड नहीं। मैं नहीं चाहती कि दुनिया मुझपर उंगली उठाए। मैं किसी विवाहित व्यक्ति से प्रेम तो कर सकती हूं, पर पाने की चाहत कतई नहीं होगी। मैं जानती हूं कि प्रेम का आगाज जितना जादुई होता है, निबाह करना उतना ही कठिन। परिभाषित रूप से तुम मेरे कुछ नहीं हो, लेकिन मेरी जिंदगी में हमेशा बने रहोगे।”

मैने सवाल किया, “ये कैसा इश्क… ये कैसी मुहब्बत जिसका कोई नाम ही न हो। तुम्हारे रास्ते अलग हैं और मेरे अलग।”

तब शिप्रा कहती, “अब तुम मेरे लिए एक आदत हो…, एक नशा हो…एक सिगरेट हो…। वही सिगरेट जिसे तुम खुश होने पर सुलगा लेते हो…।  दुखी होने पर सुलगा लेते हो…। खबरों में दर्द उड़ेलने के लिए सुलगा लेते हो…। सिगरेट की तरह तुम्हें छोड़ने में अब मुझे भी बेचैनी महसूस होती है।”

एक रोज शिप्रा दफ्तर आई तो उसका चेहरा दमक रहा था। मैने खुश होने की वजह पूछी तो वह मुस्कुरा भर दी। बोली, “मुझे मुंबई शहर बहुत पसंद है। क्या तुम मुझे अपने साथ नहीं ले जा सकते घुमाने। अपने टिकट के पैसे तो मैं ही दूंगी।” उसने बात जारी रखी…। मैने मना कर दिया। मगर वह अपनी जिद पर अड़ी रही। मैने तमाम ऊंच-नीच समझाने की कोशिश की, पर उसने यहां तक कह दिया कि तुम्हारे साथ बेड शेयर करने पर भी मुझे कोई एतराज नहीं।”

मैं हैरान था…अवाक था…। क्या जवाब दें। कुछ नहीं सूझा तो फिर सिगरेट सुलगा ली…।

अपनी जिद पर अड़ी शिप्रा ने कहा, “अब मैं तुमसे सिगरेट नहीं छीनना चाहती। जानते हो क्यों? मुझे यकीन हो गया है कि ये लत… ये आदत…कलेजे को जला देती हैं, लेकिन धुएं का मुगालता गजब का सुकून देता है। जिंदा रहने से अधिक सुकून…। मन में खुशफहमी भरने का सुकून…।”

शिप्रा भले ही मेरी अच्छी दोस्त और राजदार थी, लेकिन उस मकान में नहीं आई थी, जहां मैं किराये पर रहता था। मेरे मकान मालिक रेलवे विभाग में मुलाजिम थे। स्टेशन मास्टर थे। मुस्लिम थे। लोग उन्हें स्टेशन मास्टर के नाम से ही पुकारते थे या फिर खान साहब के नाम से। आगे के कमरों में वह अपनी पत्नी, एक किशोर बेटा और दो जवान बेटियों के साथ खुद रहते थे। एक बेटी बीए कर रही थी, दूसरी एमएससी में थी। पीछे का कमरा मुझे किराये पर दे रखा था। उनके बच्चे मुझे सगे भाई की तरह मानते थे। मकान मालकिन को मेरे सिगरेट पर एतराज नहीं था। कमरा देते समय ही हिदायत दे दिया था कि तुम कुछ भी करो, मगर किसी लड़की को साथ नहीं लाओगे। जिस रोज इस शर्त को तोड़ोगे, मेरे घर में तुम्हारा वह आखिरी दिन होगा।

शिप्रा को यह सब पता था, फिर भी वह जिद पर अड़ी थी कि अपना कमरा दिखाओ। कैसे रहते हो? कैसे पढ़ते-लिखते हो? मैने मकान मालकिन से बात की। उन्हें मेरी बात अटपटी लगी, पर उन्होंने एक बार बुलाने के लिए हामी भर दी। साथ ही यह भी हिदायत दी कि वो जब भी आएगी, मेरे सामने बैठकर बात करेगी।

मैने यह बात शिप्रा को बताई। वह खुश हुई। मेरे घर का पता ले लिया। एक रोज मेरे मकान मालिक की सास का इंतकाल हो गया। स्टेशन मास्टर की ससुराल पास में ही थी। रोता-विलखता पूरा परिवार मिट्टी में शामिल होने चला गया। मैं भी निकलने की तैयारी में था। तभी अचानक बेल बजी तो दरवाजा खोला। सामने शिप्रा खड़ी थी।

मैं एक टक उसे देखता रहा। समझ में नहीं आया कि उसे घर में बैठने को कहूं या मना कर दूं कि बाद में आना। मुझे लगा कि तत्काल लौटाना अशिष्टता होगी।

इशारे किया तो वह मेरे पीछे चल पड़ी। मगर उसकी आंखें मेरे मकान मालिक के परिजनों को तलाश कर रही थीं, जिनके बारे में मैने उसे बहुत कुछ बता रखा था। वहां सिर्फ मैं था और शिप्रा। मैने दरवाजे का पट जैसे ही बंद किया। तभी मेरे चेहरे पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा…।

मैं कुछ सोच पाता, इससे पहले शिप्रा चीखनेे  लगी, “धोखेबाज…बदचलन..। हर मर्द एक जैसे ही होते हैं। मुझे घिन आती है तुम्हारे झूठ पर.. तुम्हारे फरेब पर…। तुम वाकई मक्कार हो…। घर में अकेले रहते हो। शायद इसीलिए बुलाया। मेरी इज्जत से खेलने का मकसद रखते हो। तुम्हारी नीयत में खोट है…। दिमाग में गंदगी है…। बस कीचड़ भरा है। अच्छा इंसान समझकर तुमसे अनाम रिश्ता बनाया था। ऐसा रिश्ता जिसे जीवन भर याद कर सकूं…। वह बड़बड़ते हुए कमरे से बाहर निकली और चली गई…।”

शिप्रा के दूसरे रूप को देखकर मैं अवाक था। एक पल के लिए मैं नहीं समझ पाया कि यह वहीं शिप्रा है जो बेधड़क मेरे साथ कहीं भी आने-जाने के लिए तैयार रहती थी। मेरे साथ दिल्ली-मुंबई तक घूमने के लिए लालायित रहती थी। जो अक्सर ये बात भी कहा करती थी, “जिंदगी में कहीं न कहीं, कोई न कोई समझौता तो करना ही पड़ता हैं…।  बड़ी उपलब्धियों की कीमत तो अदा करनी ही पड़ती है…।”

अचानक हुई घटना से आंखें छलछला उठीं। मैं अवाक था कि शिप्रा अचानक बदल कैसे गई…? आखिर उसने सच जानने की कोशिश क्यों नहीं की? मन इतना आहत हुआ कि मकान मालिक की सास की मिट्टी में शामिल  नहीं हो सका।  कई रोज खाना भी ढंग से नहीं खाया। कुछ बोलने पर होठ थरथराने लगते थे। खुद को कमरे में कैद रखा था। तीजा के बाद मकान मालिक की फेमली लौटी।

मैं बुखार से तप रहा था। मेरी आंखों में आंसुओं के धुंध से मकान मालिक की बेटियां भी गमगीन थीं। उन्होंने डाक्टर के पास चलने के लिए बहुत जिद की, पर मैं राजी नहीं हुआ।

तीजा के अगले दिन रक्षाबंधन भी था। मुझे टूटा हुआ देखकर…, मकान मालिक की बेटियां भी दुखी थीं।  दोनों ने मुझे राखी बांधी और आंसू बहाते हुए मेरे कमरे से बाहर चली गईं। उन्हें यह बात समझते देर नहीं लगी कि कोई बड़ी बात हुई है। वरना आतंकवादियों के म्याद में घुसकर रिपोर्टिंग करने वाला…, माफिया-गुंडों से भिड़ने वाला शख्स इतना कमजोर कैसे हो सकता है…? यूं ही नहीं टूट सकता है…?

मकान मालकिन की दोनों बेटियां अक्सर कहा करती थीं, “भैया तुम तो आतंकवादियों की गोलियों के बीच रिपोर्टिंग करते हो। कितने बहादुर हो? तुम्हें क्यों डर नहीं लगता?  तुम तो वाकई समाज के लिए बड़े आइकन हो…। “

पथरीली दीवारों की कैद से बाहर निकलने का बस एक ही रास्ता सूझा कि हमेशा के लिए बरेली छोड़ दें। मुझे कई बड़े अखबारों के आफर थे। मैने तत्काल हामी भर दी। इस्तीफा दिया तो पूरे शहर को पता चल गया। शिप्रा को भी। बहुत लोग आए विदा करने। मगर शिप्रा नहीं आई। आई भी तो तब जब मैं शहर छोड़ चुका था। वहां कुछ था तो सिर्फ खाली कमरा और जमीन पर गिरी आंसुओं की बूंदें।

मकान मालिक की बेटियों ने शिप्रा को बताया कि हम लोग तो नानी की मिट्टी में शामिल होने चले गए थे। भैया को न जाने क्या हुआ, अचानक काठ बन गए। जैसे-तैसे शरीर में जान भी आई तो शहर को ही अलविदा कह दिया…।

मेरे शहर छोड़ने का अगर सबसे ज्यादा विछोभ था तो वह शिप्रा ही थी। मेरे कमरे की ड्योढ़ी पर बैठकर काफी देर तक रोती रही। जिस अखबार में मैं नौकरी करने गया था वहां भी उसके अनगिनत फोन आए। शायद उसे अपनी गलती पर पछतावा था।  मैने मना कर रखा था कि किसी शिप्रा का फोन आए तो मना कर देना। कह देना दफ्तर में नहीं हैं या काम में व्यस्त हैं।

कुछ दिनों बाद मुझे शिप्रा का खत मिला।  वह खत नहीं, खून से लिखा गया माफीनामा था।

दोस्त,

जिंदगी की सबसे बड़ी भूल की है हमने। शायद माफी के काबिल भी नहीं। एक बार मेरे जिम के ट्रेनर ने अकेले पाकर मेरे साथ जोर-जदबदस्ती करने की कोशिश की थी। तुमने जब अपने कमरे का दरवाजा बंद किया तो मेरे जेहन में उस  खूंखार ट्रेनर का चेहरा कौंध गया। उद्वेलित होकर कर आपा खो बैठी। जिंदगी की सबसे बड़ी भूल कर बैठी। मैं तो माफी के काबिल भी नहीं। यह जानते हुए कि तुम मेरे नहीं हो सकते। फिर भी तुम्हें दिल की गहराइयों से चाहा है। हर सजा भुगतने के लिए तैयार हूं। मैं जानती हूं कि तुम समंदर हो। तुम्हारे बगैर मेरा अस्तित्व नहीं है। अब मैने खुद को अखबारी दुनिया से अलग कर लिया है। बस मुझे इतना ही कहना है…

गुजर तो जाएगी, तेरे बगैर भी लेकिन,

बहुत उदास, बहुत बेकरार गुजरेगी।

तुम्हारी

शिप्रा

 

4 thoughts on “धोखेबाज! घिन आती है तुझपर… 

  1. सुमित कुमार पाण्डेय says:

    बेहद संजीदा, भावनात्मक, रचनात्मक कहानी और इससे भी बढ़कर अद्भुत लेखनी। बेहतरीन लेखक हैं आप!

  2. कथा मे अनुभवो के भाव के अलावा सच्चाई झलक रहि है।
    सिगरेट कोअधिक महत्व देना पाठको को इसकी ओर आकषित
    करने जेसा हे
    पटकथा सुंदर हे

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