अस्पताल नहीं, ये है बेटियों का इज्जत घर

अस्पताल नहीं, ये है बेटियों का इज्जत घर

अनूठी मिसाल

बनारस की डा.शिप्राधर खुद उठाती हैं बेटियों के प्रसव का सारा खर्च
वर्ष 2014 से अब तक महिला चिकित्सक के यहां जन्म ले चुकी हैं 215 बेटियां
गरीबों की बेटियों को खुद पढ़ाती हैं अपने घर में, नहीं लेंती किसी की मदद

विजय विनीत

वाराणसी। घर में रहते हुए गैरों की तरह होती हैं/ बेटियां धान के पौधों की तरह होती हैं। उड़के एक रोज बड़ी दूर चली जाती हैं/घर की शाखों पे ये चिड़ियों की तरह होती हैं। इन लफ्जों में छिपे दर्द का एहसास हर किसी को नहीं होता। मां और बेटियों के रिश्तों को सही मायने में किसी ने समझा है तो वह हैं डॉ. शिप्राधर श्रीवास्तव। बेटियों को बचाने और पढ़ाने के लिए इनके मन में जो खदबदाहट है अनुकरणीय है।
वाराणसी के अशोक विहार कालोनी में डॉ. शिप्राधर श्रीवास्तव का अस्पताल है, जिसके बाहर लिखा है एक छोटा सा स्लोगन-बेटियां नहीं हैं बोझ, आओ बदलें सोच। इसे पढ़कर हर कोई ठिठक जाता है। दरअसल यह अस्पताल न तो चैरटी है और न ही कोई एनजीओ इसे संचालित करता है, लेकिन यहां ऐसी पटकथा लिखी जा रही है जो डा. शिप्राधर को फरिश्तों की कतार में खड़ी करती है। डा. शिप्रा के अस्पताल में अगर बेटियां जन्म लेती हैं तो इलाज का सारा खर्च वह खुद वहन करती हैं। बेटियों का जन्म चाहे साधारण तरीके से हो अथवा आपरेशन से। डा. शिप्रा नवजात बेटियों को घर भेजने से पहले उसकी मां को तोहफे भी देती हैं। वर्ष 2014 से बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ की मुहीम चला रहीं शिप्रा के अस्पताल में अब तक 215 बेटियां जन्म ले चुकी हैं। इन बेटियों की डिलेवरी पर होने वाला सारा खर्च उन्होंने खुद उठाया है। दरअसल वह पीएम नरेंद्र मोदी के ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ अभियान से दिल से जुड़ी हैं और उसे मूर्त रूप देने में जुटी हैं।
डा. शिप्रा बताती हैं कि पहले जब उनके यहां किसी बेटी का जन्म होता था तो परिजन दुखी हो जाते थे। कोई मुझे कोसता था, तो कोई बेटी को जन्म देने वाली मां को। यह भी ताना मारा जाता था कि पेट चीर दिया, फिर भी बेटी ही हुई। मन दुखी होता था और रातों की नींद उड़ जाती थी। चिकित्सक पति डा. मनोज श्रीवास्तव ने उनका हौसला बढ़ाया। डाक्टर दंपती ने तय किया कि खुद बेटियों को बचाएंगे और खुद पढ़ाएंगे भी। 24 जुलाई 2014 को बेटियों की फ्री डिलीवरी सेवा शुरू की, तो उनके कुछ मित्रों ने ताने कसे तो बहुतों ने सराहा। पिछले पांच सालों से बेटियों की फ्री डिलेवरी हो रही है। डा. शिप्रा की सोच अब रंग लाने लगी है। अब उनके यहां लड़की का जन्म होता है तो परिजन इस बात से खुश होते हैं और कहते हैं चलो, लक्ष्मी आई तो खर्च नहीं कराई। डा. शिप्रा परिजनों को बेटियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित करती हैं। कहती हैं कि यह अभियान अब मिशन बन गया है जो अनवरत चलता रहेगा।
डा. शिप्रा मुफ्त में डिलेवरी ही नहीं, गरीब बेटियों को मुफ्त में शिक्षा भी देती हैं। इन बेटियों को पढ़ाने के लिए वह खुद समय निकालती हैं और एक टीचर को भी नियुक्त कर रखा है। डा. शिप्रा बताती हैं कि 25 जुलाई 2014 को उन्होंने पहली बच्ची की डिलेवरी की थी। फरवरी 2016 को उन्होंने 100वीं बेटी की डिलेवरी की। इस बेटी की मां प्रियंका कहती हैं कि बेटियों को बचाने से बड़ा पुण्य का काम कोई और नहीं हो सकता।

डा.शिप्रा की मुहिम इसलिए रंग ला सकी, क्योंकि इनके पति डा.मनोज श्रीवास्तव का महिलाओं के प्रति सोच और नजरिया बेहद गंभीर है। वह कहते हैं कि समाज में बड़े-बड़े चोर, कुख्तात डकैत, माफिया, हत्यारे आदमी मिल जाएंगे, लेकिन उसमें ऐसी महिलाएं खोजना मुश्किल होगा। जिन्होंने सुंदर सा घर बनाया हो, जिन्होंने बेटा-बेटियां पैदा की हों, जिन्हें बड़ा करने में मां की सारा ताकत, सारी प्रार्थना, सारा प्रेम लगा दिया हो इसका कोई हिसाब नहीं मिलेगा। जो इतिहास है, पुरुषों का ही इतिहास है। समाज में अब महिलाओं की स्वीकृति बढ़नी ही चाहिए। बेटियों को लेकर शहरों में पुरुषों का नजरिया थोड़ा बदला है, लेकिन गांवों में लड़कियां आज भी लड़कों से कमतर ही आंकी जाती हैं। जिस स्त्री की स्वीकृति होगी, विराट मनुष्यता में वह स्थान हासिल कर लेगी, जितना पुरुष का है। तब इतिहास दूसरी दिशा लेना शुरू कर देगा।

इनसेट———

महिलाओं को ताकत दे रहा अनाज बैंक

वाराणसी। डा.शिप्राधर और इनके पति डा.मनोज श्रीवास्तव ने हाल ही में एक अनाज बैंक खोला है। इस बैंक में उन अति निर्धन विधवाओं अथवा चार बेटियों की मां को हर महीने की पहली तारीख को दस किग्रा गेहूं और पांच किग्रा चावल दिया जाता है। होली और दीपावली पर इन महिलाओं को नई साड़ियां व मिठाइयां वितरित की जाती हैं। उनकी इस मुहिम को अब शहर के कई चिकित्सक और परोपकारी लोग भी बल देने लगे हैं।

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