भाषा की चीखें हमें नहीं झकझोरतीं?

भाषा की चीखें हमें नहीं झकझोरतीं?

विजय विनीत

सालों बाद बनारस के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में मीडिया की भाषा की अहमियत पर गंभीर चिंतन हुआ। भाषा की घुटती सिसकियों पर चिंतन हुआ…। पर सच यह है कि मौजूदा दौर में भाषा की चंचलता कहीं किसी कोने में दुबक कर बैठ गई है। आज पत्रकारों और लेखकों की वर्तनी और व्याकरण सब कुछ कहीं गुम सा हो गया है…। पत्रकारों के हाथों में अब सिर्फ मोबाइल और खबरिया चैनलों का रिमोर्ट कंट्रोल दिखता है। बाजारवाद की चकाचौंध भाषा को हौले-हौले निगलती ही जा रही है। इस पर जगजीत सिंह की यह गजल बिल्कुल सटीक बैठती है–

दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी…।
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वह कागज़ की कश्ती, वह बारिश का पानी।

गज़ल की इन लाइनों में सिर्फ बचपन की कीमत ही नहीं, मीडिया की भाषा के दर्द को भी बयां किया गया है। साहित्य हो या मीडिया, भाषा का लालित्य कहां? 21 सदी के युवाओं को तो कागज़ की कश्ती का मतलब भी शायद ही पता होगा।

बाजारवाद ने खुद के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी पत्रकारिता की भाषा को कहीं का नहीं छोड़ा है। इसने पैर इतना फैला लिया कि अब युवा पीढ़ी भाषा को भूलकर रियलिटी शोज और टीवी सीरियल्स की चकाचौध में खो गई है। जितना ज्यादा आधुनिक विकास की बात हो रही है, उतनी ही भाषा की दुर्गति हो रही है। भाषा अपना अनमोल खजाना गंवाती जा रही है। भाषा की सबसे ज्यादा दुर्गति कर रहे हैं टीवी वाले। अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए ये कुछ भी लिखने, पढ़ने और कुछ भी करने के लिए बेकरार हैं।

आजकल टीवी चैनलों पर दस सेकेंड में दस बड़ी खबर की रफ्तार और उसकी भाषा सुनने के बाद शंका होती है कि हमारी हिंदी को…हमारी भाषा को… क्या हुआ? गौर से देखें तो पता चलता है कि अंग्रेजी हिंगलिश हो गया और हिंदी की चिंदी हो गई।

80 के दशक तक टीवी का मतलब केवल दूरदर्शन ही होता था। दूरदर्शन की खबरों का स्तर होता था। समाचारों में तत्सम शब्दों का खूब इस्तेमाल किया जाता था। और उनका दर्शकों पर गंभीर असर भी पड़ता था। 80 के दशक के बाद बारी-बारी से अवतरित हुए खबरिया चैनल। इन्होंने मनमानी शुरू कर दी। नतीजा यह हुआ कि हिन्दी भाषा, न जाने कौन सी भाषा बन गई। कोई इसे हिंग्लिश कहता है तो कोई इसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भाषा कहता है।

हम यह कतई नहीं चाहते कि खबरिया चैनलों की भाषा इतनी परिष्कृत हो जाए कि उसे पढ़-सुनकर जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ या फिर निराला या पंत याद आएं। न्यूज रीडर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का इस्तेमाल करें। उर्दू के लफ्जों का हिन्दी वाक्यों में समावेश सोने पर सुहागा की माना जाता है। अब खबरिया चैनलों से सीखकर प्रिंट मीडिया के पत्रकार भी भाषा का कबाड़ा कर रहे हैं। किसी घटना के पर्दाफाश की जगह धड़ल्ले से खुलासा शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि खुलासा का मतलब खोलना नहीं, संक्षिप्त होता है। मेट्रो ट्रेन की तरह भागते फटाफट खबरों की दौड़ और होड़ में न शब्दों की शालीनता बची और न ही उनकी तल्खी। यह जरूरी है कि खबरों में शब्दों का मर्म और उसकी संजीदगी बनी रहे। नहीं तो फिर वही होगा कि पूरी रामायण पढ़ ली मगर सीता किसकी जोरू?

दरअसल, मीडिया में पनपती संवेदनहीनता ने भाषा के मूल चरित्र को ही बदल डाला है। संवेदना के लिए आवश्यक है राग। राग समाज से उसके दुख-सुख और उसकी पीड़ाओं से। उसके लिए जरूरी है भाव। साहित्य व्यापार नहीं होता…। भाषा व्यापार नहीं होती…। व्याकरण में पल्लवित और पुष्पित पत्रकारिता की भाषा चाहे जिस रूप में हो वह साहित्य का हिस्सा होती है। यह ऐतिहासिक दस्तावेज है जो सदियों तक सुरक्षित रहेगा। लेकिन साहित्य से, पत्रकारिता से भाषा का दूर होते जाना चिंता का विषय है। इसके मूल में मीडिया में हावी होती व्यापारिकता है। इसे प्रायः व्यवसाय कहा जाने लगा है। यानी मिशन से यह प्रोफेशन बन गया है। लेकिन व्यावसायिकता उतना बड़ा दुर्गुण नहीं, जितनी व्यापारिकता। व्यावसायिकता में मिशन के साथ-साथ व्यवसाय के बीच संतुलन का भाव छिपा होता है। समाज रहेगा, तो व्यवसाय रहेगा। इसलिए समाज से संबंध बना रहना चाहिए। व्यापार में आर्थिक दोहन का भाव ज्यादा होता है।

अब मीडिया हाउसों के स्वामी संपादकों से साफ-साफ कहने में गुरेज नहीं करते कि हम कोई समाजसेवा करने नहीं बैठे हैं। हम पाठकों को भाषा सिखाने नहीं बैठे हैं…। साहित्य पढ़ाने नहीं बैठे हैं। हमें व्यापार चाहिए। आज का व्यापार विशुद्ध रूप से नफे नुकसान की भाषा समझता है। हर चीज के टारगेट तय किए जाते हैं। प्रसार और विज्ञापन के अलग अलग टारगेट। इसी के चक्कर में कब खबरें बिकने लगीं, संपादकों को पता ही नहीं चला। चाहे अखबार हो या चैनल सभी को भाषा नहीं, बिकाऊ माल चाहिए। ऐसे में गरीबी, भुखमरी, गंदगी, शिक्षा का पिछड़ापन, गांव-गरीब, खेत-खलिहान की समस्याएं कोने में सिसकती पड़ी रह जाती हैं और परीलोक या भूत प्रेत की कथाएं बाजी मार ले जाती हैं।

अखबार मालिक यदि सिर्फ अखबार का धंधा करते तो शायद भाषा में इतनी गिरावट नहीं आती। मगर उन्हें तो कई तरह का धंधा करना होता है। ऐसे में वह अख़बार को औजार के रूप में इस्तेमाल करता हैं। संपादक और रिपोर्टर उन के माध्यम बनते हैं। इस तरह की महत्वकांक्षा ने मीडिया की शक्ल ही बदल दी है…। उसकी भाषा और उसके चरित्र को बदल दिया है। सच ख़बरों का नारा बुलंद करने वालों ने निजी हितों के फेर में भाषा के साथ-साथ समाज के आइने को विकृत कर दिया है। उनसे किसी तरह के बदलाव की उम्मीद करना व्यर्थ है। इसका जिम्मा भी अब समाज को खुद उठाना पड़ेगा। खास तौर पर उन पत्रकार-लेखकों को, जिनमें थोड़ी नैतिकता बची है। बेहतर हो कि भाषा और व्याकरण को असल जिन्दगी में अपनाया जाए। तभी शायद भाषा का दिन फिर लौट सकेंगे।

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