फिरंगियों से न हारीं…न झुकीं..न टूटीं धौरहरा की यशोदा

फिरंगियों से न हारीं…न झुकीं..न टूटीं धौरहरा की यशोदा

बनारस की इस वीरांगना के जिद, जज्‍बे और साहस को सलाम करते थे नेताजी

—————–बुझ गई आजादी की बाती—————

फिरंगियों का जुल्म, छल और धोखा भी नहीं तोड़ पाया यशोदा का हौसला

आजादी के आंदोलन में कंस रूपी अंग्रेजों से बचाती रहीं क्रांतिवीरों को

विजय विनीत

फिरंगियों के छल, धोखा और जुल्म को झेलने वाली बनारस की एक महान वीरांगना नहीं रहीं। इनके साथ एक बड़ा इतिहास मिट गया…। आजादी की कहानी की ऐसी पटकथा मिट गई जिसके जिद, जज्‍बे और साहस को नेता सुभाष चंद्र बोस तक सलाम करते थे। दीगर बात है कि इस वीरांगना को न तो बनारस ने अहमित दी और न देशभक्ति का दम भरने वालों ने।

यह कहानी बनारस की यशोदा देवी की है। क्रांतिवीरों के गांव धौरहरा की रहने वाली थीं। वह ऐसी वीर महिला थीं जो अंग्रेजों की बर्बरता से न हारीं…न टूटीं… और न झुकीं…। अंग्रेजों का बेइंतहा जुल्म झेला, मगर उफ तक नहीं कीं। पति को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा को मिल गया, पर फकत महिला होने के कारण इनके जज्बे को…इनके साहस को…आजादी के आंदोलन में इनकी भागीदारी को भुला दिया गया। इसी 11 फरवरी 2018 को 109 साल की उम्र में यशोदा के साथ एक ऐसा इतिहास मिट गया, जिसे हर देशभक्त सलाम करना चाहेगा।

भारत की जिन महिलाओं ने आजादी की लड़ाई को अपने साहस से धार दी… एक नई पहचान दी… गुलामी की जंजीर से देश को बाहर निकाला, उसमें वीरांगना यशोदा देवी भी शामिल थीं। करीब तीस साल पहले इनके पति शांति कुमार सिंह का निधन हुआ था। अंग्रेजों के शासन में ये ग्राम सुधार अधिकारी हुआ करते थे। जब बनारस के साथ चंदौली और भदोही हुआ करता था उस समय जिले में सिर्फ 16 ग्राम सुधार अधिकारी हुआ करते थे। साल 1942 में दूसरे विश्व युद्ध के समय अंग्रेज कलेक्टर थिनले ने धौरहरा निवासी शांति कुमार को अपने बंगले पर बुलाया। युद्ध के लिए जनता से चंदा वसूलने का फरमान सुनाया। यहीं उन्होंने बगावत का झंडा उठा लिया। अपने साथी ग्राम सुधार अधिकारियों के साथ सभी की इस्तीफा कलेक्टर के मुंह पर फेंक मारा। अंग्रेज कलेक्टर ने गाली दी तो शांति कुमार और उनके साथियों ने मिलकर थिनले को जमकर पीटा। साथ ही कलेक्टर के सुरक्षाकर्मियों और उसके चमचों को भी सबक सिखाया जो उसे बचाने के लिए आगे आए। इस घटना बाद शांति कुमार सिंह भूमिगत हो गए।

शांति को पकड़ने लिए अंग्रेजों की एक बड़ी पल्टन धौरहरा गांव में पहुंची। पुरुष तो गांव पहले ही छोड़ चुके थे, पर कुछ महिलाएं रह गई थीं। यशोदा हिम्मती महिला थीं, जो धौरहरा से भागी नहीं। अड़ी रहीं, डटी रहीं। अंग्रेजों की पल्टन ने यशोदा पर अनगिनत लाठियां बरसाईं। लात-घूसों से मारा-पीटा। घर के खपरैल को पीट-पीटकर तहस-नहस कर दिया। खिड़की-दरवाजों को निकाला और उसमें आग लगा दी। घर में जो अन्न बचा था उसमें जहर मिला दिया। बर्तन, मटके और कुंडों को कुएं में फेंक दिया। जुल्म की कोई भी ऐसी डिग्री नहीं बची थी जिसे फिरंगियों ने यशोदा पर न आजमाया हो। अंग्रेजों ने ये जुल्म सिर्फ इस लिए ढहाए, ताकि वह अपने क्रांतिकारी पति शांति कुमार सिंह और उनके साथियों का ठिकाना बता दें।  यशोदा देवी ने अंग्रेजों के हर जुल्म को हंसते हुए झेला। उम्र के जिस पड़ाव पर लोग जुल्म के चलते जिंदगी से हार मान लेते हैं… टूट जाते हैं,  मगर यशोदा नहीं टूटीं। बाद में शांति कुमार और उनके साथियों को कलेक्टर को पीटने में छह-छह माह की सजा और सौ-सौ रुपये जुर्माना हुआ। पहली जनवरी 1942 को वह रिहा हुए। यशोदा देवी ने अपने पति का हौसला बढ़ाया और उन्हें देश की आजादी की जंग में लड़ने के लिए प्रेरित किया। शांति कुमार पत्नी के जज्बे को नहीं ठुकरा सके। अगस्त 1942 में फिरंगियों से लड़ने के लिए वह भूमिगत हो गए।

इधर यशोदा देवी धौराहरा गांव की महिलाओं में जोश भरती रहीं। ग्रामीणों में देश के लिए मर-मिटने का जज्बा जगाती रहीं। वो एक मर्द की तरह पथरीली धरती पर अपने पति का साथ देती रहीं। घरेलू महिला होने के बावजूद आजादी के आंदोलन में उनके कदम कभी नहीं रुके। संकटों से न घबराते हुए वे एक वीर की तरह गांव-गांव घूमकर देश-प्रेम का अलख जगाती रहीं। देशवासियों को उनके कर्तव्यों के लिए प्रेरित करती रहीं। धौराहरा नहीं, बनारस भर में स्त्रियों को चूल्‍हे-चौके से बाहर लाकर नए आकाश में विस्‍तार की कोशिशों को बल देती रहीं। यशोदा की जिंदगी में सबसे खुशी 14 अगस्त 1947 की रात आई, क्योंकि अगली सुबह 15 अगस्त को आजादी की सुबह थी।

दरअसल यशोदा को आजादी के लिए जंग लड़ऩे की प्रेरणा इनके ससुर अनमोल सिंह से मिली थी। वे ऐसे क्रांतिवीर थे, जिन्होंने अपने साथियों को लेकर 40 अंग्रेज सिपाहियों और अफसरों को मार डाला था। सभी को गोमती नदी में गाड़ दिया और उनके हथियार लूटकर क्रांतिकारियों के हवाले कर दिया। दरअसल अंग्रेजों की पल्टन क्रांतिकारियों को मिटाने के लिए हथियार लेकर गोमती नदी के रास्ते लखनऊ जा रही थी। बाद में अंग्रेजों ने यशोदा के ससुर अनमोल सिंह समेत 70 क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ा दिया। भाई को सात साल और पत्नी रमा देवी को तीन साल की सजा हुई।

यशोदा देवी के पुत्र रिटायर्ड जिला अर्थ एवं संख्या अधिकारी सुरेंद्र नाथ सिंह बताते हैं कि उनकी मां के आग्रह पर नेता सुभाष चंद्र बोस धौरहरा आए और क्रांतिवीर रास बिहारी बोस के साथ आखिरी बैठक की। देश की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी से लेकर जवाहर नेहरू तक वीरों की धरती धौरहरा में आ चुके हैं। अपने छह पोतो में यशोदा देवी जिन्हें सबसे ज्यादा प्यार करती थीं वह हैं प्रखर समाजसेवी डा.लेनिन रघुवंशी। अपने परदादा, दादा-दादी की तरह देश को आजाद करने के लिए न सही, समाज के उस आखिरी आदमी के लिए जंग लड़ रहे हैं जो अपने अधिकारों से वंचित हैं…फटेहाल हैं… और नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर हैं…।

 

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