पत्रकारों को भूत-बैताल की तरह सताता है मानहानि कानून
मीडिया घराने ही करते हैं पत्रकारों को भयभीत
विजय विनीत
भारतीय पत्रकारों को भूत-बैताल से ज्यादा मानहानि का डर सताता है। यह डर कोई और नहीं, मीडिया घराने ही दिखाते हैं। वे पत्रकारिता के पवित्र मिशन को प्रोफेशन मानने लगे हैं। सिर्फ धंधा करना जानतेे हैं। किसी तरह का जोखिम मोल नहीं लेना चाहते। ऐसे में पत्रकारों को यह जानना बेहद जरूरी है कि मानहानि कानून आखिर है क्या? न्यू मीडिया से जुड़े पत्रकार किस हद तक इस कानून के दायरे में आ सकते हैं? किस तरह के मामलों में पत्रकार इस कानून के शिकंजे से बच सकते हैं?
पत्रकारों को आगाह करने के लिए संक्षिप्त जानकारी यह है कि मानहानि कानून के तहत कोई व्यक्ति, समूह अथवा कंपनियां अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने पर हर्जाना मांग सकती हैं। पत्रकार और मीडिया घरानों से भी। अगर किसी तथ्य के प्रकाशन अथवा प्रसारण से किसी की मानहानि होती है तो वह मानहानि का केस दायर कर सकता है। मानहानि का निर्णय इस आधार पर करना चाहिए कि प्रकाशित अथवा प्रसारित की गई सामग्री मानहानि कारक है अथवा नहीं?
दरअसल मानहानि कानून का मकसद किसी की छवि को नुकसान पहुंचाने के लिए लगाए झूठे आरोपों से उनकी रक्षा करना है। मानहानि कानून के तहत व्यक्ति, समूह, कंपनियां, संस्थाएं मुआवजा के लिए केस दायर कर सकती हैं। पत्रकारों को चाहिए कि वह ऐसा कुछ प्रसारित अथवा प्रकाशित न करें जिससे किसी व्यक्ति अथवा संस्था, व्यापार, रोज़गार एवं अन्य गतिविधियों पर बुरा असर न पड़े। नफरत, उपहास या घृणा के पात्र बने लोग भी मानहानि का मुकदमा दायर कर सकते हैं।
किसी घटना के नाट्य रूपांतरण में दिखाए गए चरित्र यदि असली जीवन के चरित्रों पर आधारित हों तो भी मानहानि का मुकदमा दर्ज हो सकता है। मीडिया में प्रकाशित एवं प्रसारित मानहानि कारक सामग्री का पुनर्प्रकाशन अथवा उसका हवाला देना भी मानहानि कारक हो सकता है। अखबार, पुस्तक,, किताब, रेडियो, टीवी और सोशल मीडिया इस क़ानून के दायरे में आते हैं। लिखे हुए शब्द, बयान, चित्र, रिकॉर्डिंग, ग्राफ़िक, इंटरव्यू मानहानिकारक हो सकते हैं।
इन मामलों में नहीं बनता मानहानि का आधार
मानहानि के मुकदमें में बचाव के कई आधार हो सकते हैं। अगर आरोप सच हो, मामला जनहित के लिए सामने लाया गया हो तो वह मानहानि के दायरे में नहीं आता। संसद अथवा अदालत में कही गई बातों को बिना मानहानि के भय प्रकाशित एवं प्रसारित किया जा सकता है। पत्रकारों को यह साबित करने की जरूरत पड़ सकती है कि उनकी नीयत सही है।
मानहानि क्या है?
भारतीय दंड संहिता की धारा 499 के अनुसार किसी के बारे में बुरी बातें बोलना, अपमानजनक पत्र भेजना, किसी की मान-प्रतिष्ठा को गिराने वाली अपमानजनक टिप्पणी करना मानहानि कानून के दायरे में आता है। परिसीमा अधिनियम 1963 के अनुसार कोई भी व्यक्ति को एक साल के भीतर मानहानि का केस दायर कर सकता है।
व्यक्ति विशेष के खिलाफ उसकी छवि खराब करने की नीयत से अगर कुछ छापा जाता है, जिसको पढ़कर या मौखिक रूप से की गई टिप्पणी को सुनकर लोगों में किसी के प्रति घृणा का भाव पैदा होता है तो वह मानहानि की श्रेणी में आता है। मृत व्यक्ति की छवि को नुकसान पहुंचाने पर भी उसके परिवार और निकट संबंधियों की भावनाओं को चोट पहुंच सकती हैं और वे मानहानि का केस दायर कर सकते हैं। मानहानि के इन अपराधों के लिए धारा 500, 501 और 502 में दो वर्ष तक की कैद की सजा का प्रावधान किया गया है। लोक शांति भंग करने और उकसाने के आशय से किसी को अपमानित करने वालों को दंडित करने के लिए धारा 504 में इतनी ही सजा का प्रावधान किया गया है।
दुर्भावनापूर्ण अभियोजन से बचाव
अगर किसी निर्दोष व्यक्ति को अभियुक्त बना दिया जाए और वह सिद्ध कर सके कि उसे बदनाम अथवा ब्लैकमेल करने के इरादे से उसके खिलाफ अभियोग लाया गया है तो वह अदालत में मामला दर्ज कर अभियोग लगाने वाले से मुआवजा मांग सकता है। यह दावा मानसिक और आर्थिक दोनों तरह की छवि की भरपाई के लिए हो सकता है। अगर किसी व्यक्ति को बुरे इरादे से सिविल कोर्ट में फसाया जाए तो वह मामला दर्ज कर मुआवजे की मांग कर सकता है।
मानहानि के मामले में साइबर कानून भी जानिए
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा 66 ए के तहत कोई भी व्यक्ति जो कंप्यूटर या संचार उपकरण के माध्यम से कोई ऐसी जानकारी भेजता है जो अपमानजनक हो या जिससे व्यक्ति को किसी प्रकार का नुकसान पहुंचे, वह मानहानि के दायरे में आता है। गलत जानकारी भेजने वाला अथवा इलेक्ट्रानिक उपकरणों के जरिए उपहास उड़ाने, धमकाने, इलेक्ट्रॉनिक मेल के जरिए गुमराह करने और मेल की उत्पत्ति के बारे में कोई जानकारी न देने पर तीन साल की सजा और जुर्माना हो सकता है।
हाल ही में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 (ए) को सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन और असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया है। साइबर उत्पीड़न या मानहानि आदि से जनता को राहत दिलाने के नाम पर जोड़ी गई धारा जनता पर ही अंकुश लगाने का जरिया बनती जा रही थी। उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद अब इंटरनेट पर टीका-टिप्पणी करने वालों पर धारा 66 (ए) के तहत कार्रवाई नहीं हो सकती।
यूके के कानून की नकल करते वक्त ज्यादा स्पष्टता और सोच-विचार नहीं किया गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की परिभाषा नहीं दी है कि अपमानजनक टिप्पणियां किसे माना जाएगा? धारा 66 (ए) के खत्म होने से अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में हमें खुश नहीं होना चाहिए। जाना चाहिए। अब चुनौतियां बड़ी हो गई हैं। जनता और सरकार दोनों के लिए।
धारा 66 (ए) में अश्लीलता या नैतिकता शब्द का जिक्र नहीं
पहले 66-ए में महिलाओं की अभद्र तस्वीरें या गलत टिप्पणी पोस्ट करने वालों को गिरफ्तार करने का प्रावधान था। अमेरिका, चीन की तरह भारतीय पुलिस तंत्र आईटी अपराधों का मुकाबला करने में दक्ष नहीं है। भारत के संविधान में अनु. 19 के उपबंध 2 में मानहानि, अश्लीलता, नैतिकता, अश्लीलता, देशद्रोह, अवमानना, शांति भंग को रेखांकित किया गया है, जिनके आधार पर राज्य अभिव्यक्ति के अधिकार पर प्रतिबंध के लिए कानून बना सकता है। धारा 66 (ए) में उठाए गए विषय इनमें से किसी के अंतर्गत नहीं आते हैं। जबकि धारा 66 (ए) में तो अश्लीलता या नैतिकता शब्द का भी उल्लेख नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि आईटी एक्ट की धारा 66 (ए) में उठाए गए विषय अपरिभाषित हैं। यह धारा संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आजादी का उल्लंघन है। पुलिस अब सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66 ए की बजाय भारतीय दंड संहिता की धारा के तहत कार्रवाई करने लगी है। कारण-कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो देता है, लेकिन किसी को भी अन्य की भावनाएं आहत करने का अधिकार नहीं देता।