मूर्तियां गढ़ने वाले अपनी तकदीर नहीं गढ़ सके
रोटी और रोजगार तलाशते बंजारे मूर्तिकारों की जिंदगी बदरंग
विशेष संवाददाता
काशी में रोटी और रोजगार तलाशते बंजारे मूर्तिकारों की जिंदगी बदरंग हो गई है। ये शिल्पकार यहां मुफलिसी की पीड़ा झेल रहे हैं। प्लास्टर आफ पेरिस से मूर्तियों के नमूने तराशने वाले अपनी तकदीर के लिए रंग के एक छींटे भी नहीं बचा सके हैं। कद्रदानों की कमी और सरकारी नुमाइंदों की बेरुखी ने इनका हौसला तोड़ दिया है। इसके चलते ये अपनी जिंदगी की निश्चित शक्ल नहीं गढ़ पा रहे हैं।
लोक संस्कृति और कला को समृद्धशाली बनाने वाले शिल्पी भले ही मुफलिस हो, लेकिन इनकी उंगलियों में गजब का हुनर रचा-बसा है। मगर ऐसे हुनर का क्या फायदा जो रहने को छत, दो वक्त की रोटी और तन ढंकने के लिए कायदे का कपड़ा भी मयस्सर न करा सके। मायूसी से यह सवाल करती है 20 वर्षीया गीता। ये एक बंजारे मूर्तिकार के मुखिया 52 वर्षीय दादूराम की बहू हैं। बनारस के शिवपुर बाइपास पर सड़क के किनारे गीता प्लास्टर आफ पेरिस की मनमोहक मूर्तियां गढ़ती है। इसकी छह साल की बेटी रजनी स्कूल नहीं जाती। मूर्तियों में गजब का चटक रंग भरती है। रजनी के स्कूल न जा पाने की गीता को भी कसक है। कहती है, जानती हूं, बेटी का भविष्य बर्बाद हो रहा है। मगर पास में फूटी कौड़ी नहीं। काम में हाथ नहीं बटाएगी तो हम खाएंगे क्या?
कद्रदानों से मिली मायूसी
करीब दो दशक पहले राजस्थान के पाली जिले से कुछ कंगाल बंजारे बनारस आए थे। इन्हीं में थे मूर्तिकार दादूराम। इन्हें मूर्तियां गढ़ने में महारत हासिल तो था ही, इनके बच्चे बेहतर रंगसाज थे। इन्होंने हर धर्म और हर संप्रदाय से जुड़े देवी-देवताओं की मूर्तियां बिना भेदभाव के गढ़ा। साथ ही गली-कूचों में घूमकर लोगों तक पहुंचाया भी। छल-कपट से कोसों दूर बंजारे शिल्पकारों ने अपनी कला को न सिर्फ कद्रदानों तक पहुंचाया, बल्कि अपने हुनर को दिल खोलकर बांटा। अपने जैसे फटेहाल लोगों की मदद की। वह भी बिना किसी लिंग भेद और वर्ग के आधार पर। फिर भी समाज ने इन्हें तनिक भी अहमियत नहीं दी। इनकी जिंदगी किसी अफसाने से कम नहीं। बनारस आकर इनकी कला तो जरूर निखरी है, लेकिन कद्रदानों से इन्हें मायूसी ही मिली है। दीगर बात है कि दिवाली-दशहरे में इनकी कलाकृतियों की बिक्री ठीक-ठाक हो जाती है।
प्याज रोटी के भरोसे चलती है जिंदगी
26 वर्षीय कालो प्रजापति बताते हैं कि प्लास्टर आफ पेरिस का एक कट्टा दो सौ रुपये में आता है, जिससे चार-पांच मूर्तियां ही बन पाती हैं। बनाते समय अक्सर कई मूर्तियां टूट जाती हैं। रंग भी बेहद महंगे हैं। आठ सौ से एक हजार रुपये किलोग्राम तक। बताते हैं कि जब से लोग आर्ट गैलरियों से मूर्तियां खरीदने लगे हैं तब से उनका धंधा चौपट हो गया है। यदि वे गली-गली घूमकर मूर्तियां बेचना बंद कर दें तो दो वक्त की रोटी जुटा पाना भारी पड़ेगा। आफ सीजन में तो वैसे भी रोटी और प्याजके भरोसे ही जिंदगी चलती है।
बारिश और गर्मी का कहर भी इनके सिर पर कम नहीं है। आंधी-पानी तो इनकी बर्बादी की सौगात लेकर आती है। अक्सर इनके घरौंदे उजड़ जाते हैं। महीनों कठिन परिश्रम और निष्ठा से गढ़ी हुई मूर्तियों को बचाने के लिए ये अपने बच्चों के साथ भीगते हैं। मूसलधार बारिश अक्सर इनकी मेहनत पर पानी फेर दिया करती है। कला-संस्कृति के इन पुजारियों को पुलिस और छात्र दोनों ही परेशान करते हैं। पुलिस सुविधा शुल्क वसूलती है तो छात्र फोकट में मूर्तियां चाहते हैं। गाहे-बगाहे सिरफिरे भी इन्हें तंग करते हैं। परिवार और इज्जत का सवाल जुड़े होने के कारण ये मूर्तिकार उफ तक नहीं करते।
न ठौर-ठिकाना, न राशन कार्ड
राजस्थान के चोलापुर गांव का युवा शिल्पिकार अंबालाल सालों से शिवपुर बाइपास पर मूर्तियां गढ़ रहा है। श्रीकृष्ण, शिव, लक्ष्मी, गणेश हो या महारानी विक्टोरिया। या फिर प्रभु ईशु। बिना किसी भेदभाव के अपनी कला को निखार रहा है। यही उसकी आजीविका का साधन है। कहता हैं, यह क्या कम है कि हमें दूसरों की गुलामी नहीं करनी पड़ रही है। सूदखोरों से कर्ज लेकर किसी तरह जिंदगी की गाड़ी खींच ही रहे हैं। यह किसी तरह ही शिल्पकारों की जिंदगी का संबल है। लाचारी है, इसलिए धंधा नहीं छोड़ पा रहे हैं। धंधे को चलाने के लिए ऋण और सरकार का नाम लेते ही अंबा के चेहरे की लकीरें तन जाती हैं। दरअसल इसे सरकारी तंत्र के रवैये से बेहद नफरत है। कारण, इसके पास अपना कोई ठौर-ठिकाना नहीं है। न आधार है, न राशन कार्ड। सस्ता अनाज इनके लिए सपना है। यह त्रासदी केवल अंबा और उसके परिवार की नहीं, बल्कि मूर्तियां गढ़ने वाले सभी शिल्पकारों की जिंदगी के दस्तावेज हैं।