उखड़ने लगी बनारसी बिनकारी की सांस

उखड़ने लगी बनारसी बिनकारी की सांस

कोरोनासुर ने तोड़ दी बनारसी साड़ी उद्योग की कमर

आलेखः विजय विनीत

योग, भोग और मोक्ष की नगरी के रूप में हजारों सालों से विख्यात बनारस, बिनकारी और मस्ती के लिए भी दुनिया भर में जाना जाता रहा है। दुनिया जानती है, बनारसी जहां भी रहता है, बनारस उसके अंदर रहता है। पुराण से भी पुराना है बनारस। जीने का दूसरा नाम है बनारस। प्रेम और संवेदना की एक बारीक धुन है बनारस। यह बनारस वेदों में है और सभी के दिलों में भी है। एक वो भी बना-रस है जो केवल बनारस में बसता है। इस बनारस को न कबीर समझ पाए, न तुलसीदास। बनारस की पेंचदार गलियों से होकर गंगा घाटों तक कौन सी सीढ़ी स्वर्ग की ओर ले जाती है, इसे न पंडे-पुरोहित बता पाते हैं, न चीलम फूंकते औघड़।
अब तो बनारस में गंगा भी अपने गौरवशाली अतीत की जुगाली करती हुई उदास सी बहने लगी है। उदास इसलिए है कि बनारसी साड़ियों का गाढ़ा रंग फीका पड़ने लगा है। एक वो भी वक्त था जब बनारस की साड़ियां फैशन नहीं, परंपरा थीं। ऐसी परंपरा, जिसकी रस्म दुनिया भर में निभाई जाती रही है। शादी कहीं भी हो, दांपत्य का रिश्ता बनारस की रेशमी साड़ियों से ही गाढ़ा होता रहा है। बनारस के जिन घरों में ये रिश्ते बुने जाते हैं उसकी रवायत रफ्ता-रफ्ता धीमी पड़ती जा रही है।

बनारस के मदनपुरा, लोहता, सरैया, बजरडीहा, पितरकुंडा में हर घर में बनारसी बिनकारी हजारों लोगों की जिंदगी से जुड़ी है। हाल के दिनों में कोरोना संकट के बीच लगाए गए लाकडाउन से विश्वविख्यात बनारसी साड़ियों की धाक कमजोर पड़ने लगी है। पहले रोज कमाते थे तब जल पाता था चूल्हा। लाकडाउन के बाद कुछ दिनों तक उधारी से काम चला, लेकिन अब वो भी नसीब नहीं हो रहा। पेट खाली है। समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे चलेगी बुनकरों की जिंदगी?
बजरडीहा और सरैया इलाके में बुनकरों के हालात और भी ज्यादा खराब हैं। इन इलाकों में उन फनकारों की तादाद बहुत अधिक है जो रेशमी साड़ियों पर रिस्तों का रंग उकेरा करते थे। बुनकरों की जिंदगी का रंग तो बदरंग हुआ ही है, अब तो दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाना कठिन हो गया है। जिन बुनकरों ने साड़ियों का ताना-बाना लपेट दिया था, वो तो खुल ही नहीं पाए।
बानारस में ऐसे बुनकरों की संख्या बहुत ज्यादा हो गई है जो बिनकारी बंद कर दूसरे धंधे करने लगे हैं। कोई चाय का ठेला लगा रहा, तो कोई पान की दुकान। बनारसी साड़ियों का रंग कुछ इस कदर बेरंग हो गया कि बुनकरों के सुनहरे ख्वाब दफन हो गए। बहुतों के पुश्तैनी धंधे बंद हैं। तंगहाली सबका पीछा कर रही है।

सदियां बीत गईं। बनारसी साड़ियां और हस्तशिल्प का काम कभी बंद नहीं हुआ। पर अब इस उद्योग की सांसें थमने लगी हैं। जानते हैं क्यों। कोरोना संकट के बाद शादियों पर ब्रेक लगा तो सबसे ज्यादा मार बनारसी साड़ियों पर ही पड़ी। हालात इतने बिगड़ गए कि देश विदेश से बनारस आने वाले साड़ियों के खरीदारों ने अपना रास्ता ही बदल लिया।
पूर्वांचल में करीब चार लाख 30 हजार लोग साड़ियों की बुनकारी करते हैं। इनके परिजनों को जोड़ दिया जाए तो इस धंधे से करीब सात लाख लोगों का सरोकार जुडता है। करघों की संख्या एक लाख से ऊपर है। बनारसी साड़ी उद्योग का टर्नओवर करीब डेढ़ हजार करोड़ सालाना है। बनारस में इतना ही है पर्यटन का कारोबार। मगर अफसोस। साड़ी उद्योग में बुनकरों का हिस्सा बीस फीसदी भी नहीं है। बुनकरों की भलाई के लिए सरकारें योजनाएं तो बहुत बनाती हैं, लेकिन उनपर अमल नहीं हो पाता। पैसा आता है, मगर बुनकरों तक नहीं पहुंचता।
दुर्योग देखिए। अब बुनकरों के पास काम नहीं। करघे बंद हैं तो खाने-पीने का सामान खरीदने के लिए कहां से लाएंगे पैसे? एक वो भी वक्त था जब बनारस की हर गली से आती थी खटर-पटर की आवाज। खुशहाल थे साड़ी के बुनकर और कारोबारी।

अब तस्वीर उल्टी है। अब सब बदहाल हैं। रोटी के लिए मोहताज हैं।
हालांकि हम सिर्फ कोविड को ही दोष क्यों दें। लागातार दुश्वारियां झेल रहे बनारसी साड़ी उद्योग को अब तो ब्रांड एम्बेस्डर भी नसीब नहीं हो सका। सिल्क से बने बनारसी वस्त्रों के लोग आज भी मुरीद हैं, पर खामी बस यह है कि दुनिया के बदलते मिजाज को वह अपनी ओर खींच नहीं पा रहा है। इसका बड़ा कारण यह है सरकार ने बनारसी साड़ियों को बचाने के लिए न तो प्रचार किया, न कोई ब्रांड एम्बेस्डर ढूंढा। जरूरत है बनारस के साड़ी उद्योग में जान फूंकने की। दुनिया भर में बनारसी बुनकारी का प्रचार करने की, अन्यथा दुनिया की सांस्कृतिक राजधानी के इस कारोबार को मिटने से कोई नहीं रोक सकता।

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