चंदौली को दूसरे लोहिया का इंतजार, धान के कटोरे को चाहिए किसानों का पैरोकार

चंदौली को दूसरे लोहिया का इंतजार, धान के कटोरे को चाहिए किसानों का पैरोकार

अमित पटेल की कलम से

चंदौली के वोटर प्रत्याशियों का इंतजार रहे हैं। सपा और भाजपा ने यहां पत्ता नहीं खोल दिया है। मौजूदा सांसद डा.महेंद्रनाथ पांडेय मैदान में हैं तो समाजवादी पार्टी ने पूर्व मंत्री वीरेंद्र सिंह पर बाजी लगाई है। चंदौली के वोटरों को धान के कटोरे में ऐसे नेता की तलाश है जो उनके सुख-दुख में भागीदार हो। मौजूदा सांसद का पिछले एक दशक का ट्रैक रिकार्ड ठीक नहीं है। चंदौली वालों ने अभी वीरेंद्र सिंह को नहीं आजमाया है। इस जिले के लोग चाहते हैं कि सांसद में इस इलाके की बागडोर ऐसे व्यक्ति के हाथों सौंपी जानी चाहिए आखिरी आदमी के दर्द को परखे, समझे और उसे हल कराए। जरूरत हो उनकी समस्याओँ को संसद तक पहुंचाए।

चंदौली को हाल के सालों में ऐसा कोई नेता नहीं मिला जो किसानों का पैरोकार रहा हो। सुख-दुख में भागीदार रहा हो। किसानों की…और उनकी जीवन रेखा बनी नहरों की दशा सुधारे। बंधों का जीर्णोद्धार करे। चंदौली अगर जिंदा है तो उसके नेपथ्य में पूर्व मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी की सोच। उन्होंने चंदौली में नहरों का जाल बिछवाया। समाजसेवी इंजीनियर सुरेश सिंह कहते हैं कि चंदौली पंडित कमलापति त्रिपाठी जैसे दिग्गज राजनेता की कर्मभूमि रही है तो समाजवादी चिंतक व प्रणेता डा. राममनोहर लोहिया से भी पुराना नाता रहा। इस जिले को अबकी दूसरे लोहिया का इंतजार है।

लोहिया ने जगाया था अलख

एक वक्त वो भी था जब देश की आजादी के बाद कई बड़े आंदोलनों में जान फूंकने वाले डा. राममनोहर लोहिया कुशल नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरे। काशी का हिस्सा रही चंदौली की जनता ने उन्हें देश के दूसरे सामान्य लोकसभा चुनाव में अपना मत ना देकर उस वक्त मजबूत पार्टी रही कांग्रेस के त्रिभुवन नारायण की झोली में जीत डाल दी। फिर भी लोहिया ने किसानों की पैरोकारी बंद नहीं की।

जाहिर है कि डा. राम मनोहर लोहिया के दिल में किसानों व मजदूरों के लिए खास जगह थी। वो इस बात को भली-भांति जानते और समझते थे कि देश की तरक्की तभी मुमकिन है, जब अन्नदाता की तरक्की हो। वहीं मजदूरों के सामाजिक व आर्थिक उत्थान की सोच ने कई बड़े आंदोलन खड़े किए और अपने सहयोगियों के बल पर उन्हें मुकाम दिया। उनके किसान व मजदूर प्रेम का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि केरल में किसानों पर फायरिंग के मामले में उन्होंने अपनी ही सरकार से इस्तीफा मांग लिया, जो स्वतंत्र भारत में बुनियादी राजनीतिक ईमानदारी का एक बड़ी मिसाल है। उनके मजदूर वर्ग के प्रति अगाध प्रेम ने ही डा. लोहिया को काशी की धरती तक खींच लायी। उन्होंने तत्कालीन काशी या बनारस का हिस्सा रहे चंदौली क्षेत्र के बिसौरी में अपने सहयोगियों के निवास को अपना ठौर बनाया और यहीं से मजदूरों के आंदोलन का बिगुल फूंका।

पुरनिए बताते हैं कि लोहिया जी बिसौरी निवासी अपने समाजवादी साथी राजनाथ सिंह के घर रुकते थे और बिसौरी की धरती पर ही उन्होंने हल चलाया और श्रमदान किया। अपने कुशल नेतृत्व क्षमता के बूते मजदूरों के एक बड़े वर्ग को अपने प्रभाव में लाने में सफल रहे। उन्होंने इसे ही अपना राजनीतिक पृष्ठभूमि माना और इसी आधार पर चुनावी समर में उतरे।

उन्हें उम्मीद थी कि मजदूर वर्ग की मजबूत उपस्थिति के बीच वह आम आवाम को अपनी ओर खींच लाने में सफल होंगे। लेकिन यहां उनसे चूक हुई और जनता ने उनका साथ चुनावों में देने की बजाय कांग्रेस के दामन को थामा। इसके बाद देश के दूसरे लोकसभा चुनाव के नतीजे जब आए तो कांग्रेस प्रत्याशी त्रिभुवन नारायण सिंह, लोहिया जी को हराकर संसद का सदस्यता ले चुके थे।

इसके बाद भी डा. लोहिया का चंदौली की धरती से प्रेम कम नहीं हुआ। वे निरंतर चंदौली से जुड़े रहे और अपने सामाजवादी विचारों को पोषित व पल्लवित करने का काम बखूबी किया। आज भले ही चंदौली काशी की धरती से पृथक हो चुका है, लेकिन आज इस ऐतिहासिक धरती पर चुनाव के समीकरण को समझ पाना उतना ही मुश्किल है, जिनता की लोहिया जी के दौर में था।

किसानों के हितैषी से निहाल सिंह


आजाद भारत में हुए वर्ष 1952 के पहली लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बैनर तले त्रिभुवन नारायण सिंह विजयी रहे। वहीं 1957 के दूसरी लोकसभा में त्रिभुवन नारायण सिंह को ही विजय मिली। शुरुआती दिनों में कांग्रेस का चंदौली लोकसभा में दबदबा रहा और एक दशक तक कांग्रेस के जनप्रतिनिधियों को जनता ने चुना, लेकिन इसके बाद डा. राममनोहर लोहिया के संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के झंडा तले निहाल सिंह ने 1967 का चुनाव जीता और इसी के साथ ही उन्होंने कांग्रेस के मिथक को तोड़ा।

हालांकि आगामी लोकसभा चुनाव 1971 में कांग्रेस का परचम फिर से लहरा और सुधाकर पांडेय चंदौली से सांसद चुने गए। इसके बाद 1977 में जनता पार्टी से आए नरसिंह यादव को विजय मिली और आगे चुनाव में जनता पार्टी के ही निहाल सिंह को सांसद बनने का मौका मिला। एक दशक बाद चंद्रा त्रिपाठी ने कांग्रेस की चंदौली में वापसी कराई। लेकिन अगले चुनाव में जनता दल का पुनः दबदबा देखने को मिला और वर्ष 1989 में कैलाशनाथ सिंह जनता दल से सांसद चुने गए।

इसके बाद 1991 से 1998 तक भाजपा की लहर चंदौली में रही और आनन्द रत्न मौर्य तीन बार लगातार सांसद चुने गए। 1991 में गठन के बाद तेजी से राजनीतिक पटल पर उभरी समाजवादी पार्टी ने चंदौली की सीट पर 1999 में कब्जा किया और जवाहर लाल जायसवाल सांसद चुन लिए गए। इसके बाद कैलाशनाथ सिंह यादव ने बसपा का परचम लहराया। लेकिन 2009 के लाकसभा चुनाव में रामकिशुन ने पुनः सपा की वापसी कराई।
साल 2014 के सामान्य लोकसभा चुनाव में भाजपा के महेंद्रनाथ पांडेय सांसद चुने गए। चंदौली के वोटरों ने दोबारा उन्हें मौका दिया। तीसरी बार वो फिर मैदान में हैं, लेकिन अबकी उनके सामने चुनौतियां कड़ी हैं। संसद में उनके खर्राटे लेने की तस्वीरें वायरल की जा रही हैं, जिसके चलते उनकी मुश्किलें बढ़ती नजर आ रही हैं। हालांकि चंदौली के जो वोटर उन्हें वोट देंगे उनके कामकाज के आधार पर नहीं, बल्कि मोदी की लोकप्रियता पर ईवीएम की बटन दबेगी।

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