यादें….”शिखर तक चलो, मेरे साथ चलो”
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० विजय विनीत (वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)
सोच को तुम ले जाओ अपने शिखर तक,
कि उसके आगे सारे सितारे भी झुक जाएं।
ना बनाओ अपने सफर को किसी कश्ती का मोहताज,
चलो इस शान से कि तूफान भी झुक जाए…।
“शिखर तक चलो, मेरे साथ चलो…।” यह नारा था बाबू बालेश्वर लाल जी का, जो सिर्फ शिक्षक नहीं, मन और कर्म से उच्च कोटि के पत्रकार थे। ऐसे पत्रकार जिनके दिल में आंचलिक पत्रकारों के सरोकारों को जिंदा रखने खदबदाहट थी। इसी सोच के तहत उन्होंने ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की नींव रखी और ग्रामीण पत्रकारों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने का जोरदार बिगुल फूंका। ऐसा बिगुल जिसकी अनुगूंज आज हर तरफ सुनाई देती है। ग्रामीण पत्रकारों के लिए बाबू बालेश्वर लाल जी का सकारात्मक चिंतन आज भी अनुकरणीय है।
बाबू बालेश्वर लाल जी कहते थे कि, “शहरी पत्रकारों को किसानों की समस्याओं को का दुख-दर्द समझ में नहीं आता है। सही मायने में आंचलिक पत्रकार ही किसानों की आवाज हैं। जब तक किसानों की तरक्की नहीं होगी, तब तक देश की तरक्की संभव नहीं है।” ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के रूप में आंचलिक पत्रकारों को अब एक ताकतवर मंच मिल गया है। इस संगठन से हजारों समर्पित पत्रकारों की टीम जुड़ी है। ग्रामीण पत्रकार सिर्फ खबरें ही नहीं लिखते, वो भारत की असली तस्वीर भी दुनिया तक पहुंचाते हैं। बाबू बालेश्वर लाल जी के प्रयासों का नतीजा है कि आज ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन मजबूत स्तंभ बनकर खड़ा है और यह संगठन तेज रफ्तार से चल रहा है।
सिर्फ पूर्वाचल ही नहीं, समूचे देश में ग्रामीण पत्रकारों के बुनियादी सवालों को लेकर उन्हें गोलबंद करना बालेश्वर लाल जी के जीवन का मुख्य मकसद था। ग्रामीण पत्रकार चाहे किसी भी अखबार के लिए काम करते रहे हों, उनके अधिकारों के लिए वह जांबाज कमांडर की तरह वह जीवन भर नेतृत्व खुद करते रहे। उनके अधिकारों और मूल्यों के लिए वह अड़ते थे, लड़ते थे। उनके संघर्षों की देन है कि ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन आज भारत में पत्रकारों का सबसे बड़ा और सबसे मजबूत संगठन है। ऐसा संगठन जो शहरी पत्रकारों पर होने वाली ज्यादतियों पर भी मुखर आवाज उठाता रहा है।
मीडिया पर जब भी खतरे मंडराते हैं तो ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन ही सही मायने में चौथे खंभे की भूमिका निभाता है। उत्तर प्रदेश में पत्रकारों का कोई भी आंदोलन इस संगठन के सहयोग के बगैर सफल नहीं हो पाया है। इसके एक नहीं, दर्जनों उदाहरण हैं।
“शिखर तक चलो, मेरे साथ चलो…।” यह नारा था बाबू बालेश्वर लाल जी का। वो सिर्फ शिक्षक नहीं, मन और कर्म से पत्रकार थे। आंचलिक पत्रकार, जिनके मन में अखबार मालिकों की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने और उनके सरोकारों को जिंदा रखने खदबदाहट थी। उसी सोच के तहत उन्होंने ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की स्थापना की और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करने का जोरदार बिगुल फूंका। ऐसा बिगुल जिसकी अनुगूंज आज हर तरफ सुनाई देती है। ग्रामीण पत्रकारों के लिए बाबू बारेश्वर लाल जी का सकारात्मक चिंतन आज भी अनुकरणीय है। चाहे अपना हो या फिर पराया। पत्रकारिता से लेकर समाजसेवा तक। वह पुरोधा की तरह संघर्ष करते हुए लड़ते रहे। उनके संघर्षों की देन है कि आज ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन सिर्फ संगठन नहीं, आवाज है। आंचलिक पत्रकारों की आवाज, जिसकी अनुगूंज सालों साल तक सुनाई देती रहेगी।
सिर्फ पूर्वाचल ही नहीं, समूचे देश में ग्रामीण पत्रकारों के बुनियादी सवालों को लेकर उन्हें गोलबंद करना बालेश्वर लाल जी के जीवन का असल मकसद था। ग्रामीण पत्रकार चाहे किसी भी अखबार के लिए काम करते रहे हों, उनके अधिकारों के लिए वह जांबाज कमांडर की तरह खुद नेतृत्व खुद करते थे। उनके मूल्यों के लिए वह अड़ते थे, लड़ते थे। उनके संघर्षों की देन है कि ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन आज देश में पत्रकारों का सबसे बड़ा और सबसे मजबूत संगठन है। ऐसा संगठन जो शहरी पत्रकारों पर होने वाली ज्यादतियों पर भी मुखर आवाज उठाता रहा है।
मीडिया पर जब भी खतरे मंडराते हैं तो ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन ही सही मायने में चौथे खंभे की सही भूमिका में दिखता है। उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर होने वाली जुल्म और ज्यादतियों को लेकर कई आंदोलन हुए, लेकिन ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के सहयोग के बगैर कोई सफल नहीं हो पाया है। एक नहीं इसके दर्जनों उदाहरण हैं। ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन अपना है। सबका है। पत्रकारों के उन संगठनों की तरह भेदभाव नहीं करता जो सिर्फ अपने लिए खड़े होते हैं। ग्रामीण पत्रकार सत्ता की मलाई नहीं काटते। जबर्दस्त शोषण और उत्पीड़न के बावजूद अखबारी मालिकों के लिए काम करते हैं। अपने लिए नहीं, उन जिंदगियों की आवाज बनने की कोशिश करते हैं जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़े हुए हैं।
पत्रकारों से गुलामी से किया मुक्त
बलिया जिले के एक छोटे से गांव रतसर में बाबू बालेश्वर लाल जी का साल 1930 में जन्म हुआ था। कोई यह नहीं जानता था कि वो ग्रामीण पत्रकारों के सबसे बड़े मार्गदर्शक और उनकी आवाज बनेंगे। ऐसी आवाज जिसे कभी दबाया नहीं जा सकेगा। बाबू बालेश्वर लाल जी इस बात से बेहद दुखी और आहत थे कि अखबारों के मालिक आंचलिक पत्रकारों का न सिर्फ शोषण कर रहते हैं, बल्कि उनका बर्ताब भी गुलामों की तरह है। आंचलिक पत्रकारों को सम्मान दिलाने के लिए उन्होंने बड़े संघर्ष का संकल्प लिया। बाबू बालेश्वर लाल जी को पता था कि ग्रामीण पत्रकारों को लामबंद किए बगैर उनकी मुहिम कामयाब नहीं होगी। बलिया तक पहुंचने वाले सभी अखबारों के दफ्तर बनारस में ही थे। सांगठनिंक तौर पर उन्होंने सबसे पहले बनारस को जोड़ा। ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की नींव रखी और समूचे उत्तर प्रदेश में आंचलिक पत्रकारों के लिए संघर्ष का शंखनाद किया।
बाबू बालेश्वर लाल जी का बनारस से बहुत गहरा नाता था। वह कहा करते थे कि, “बाबा विश्वनाथ की नगरी हमें बहुत प्रिय है। यह शहर हमारे जेहन में तभी से बसा है जब हम इंटर पास करने के बाद ग्रेजुएशन के लिए यहां आए। बनारस में पहले स्नातक की डिग्री ली और फिर यहीं से परास्नातक किया। इसी बीच वह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्रसभा के महामंत्री पद के लिए चुनाव लड़े। अपने जमाने के चर्चित छात्रनेता रामधन को चुनाव में हराया। फिर बलिया के गड़वार स्थित जंगली बाबा इंटर कालेज में प्रवक्ता पर नियुक्त भी पाई। गड़वार भले ही बस गए, लेकिन हमारा दिल हमेशा बनारस में ही धझड़कता रहा।”
लोहिया की छाप थी उन पर
बाबू बालेश्वर लाल के ऊपर समाजवादी चिंतक आचार्य नरेंद्र देव और डा.राममनोहर लोहिया की गहरी छाप थी। दोनों समाजवादी चिंतकों के साथ वह समाजवादी आंदोलन से लंबे समय तक जुड़े रहे। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और गौरी शंकर राय के सानिध्य में रहकर उन्होंने सियासत का ककहरा सीखा। इनके आंदोलन की कर्मस्थल बनारस ही था। गरीब और शोषित समाज की लड़ाई लड़ते हुए साल 1969 वह चुनावी समर में कूदे। चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल के टिकट पर विधानसभा की कोपाचीट सीट से चुनाव लड़े, लेकिन वह मामली वोटों से चुनाव हार गए। इसके बाद सियासत के उनका मन हमेशा के लिए उचट गया।
बाबू बालेश्वर लाल जी ने लंबे समय तक पत्रकारिता की। अखबारों से उनका नाता जुड़ा तो कभी टूटा ही नहीं। उनकी कलम हमेशा समाज के शोषित और वंचित तबके के लोगों के उत्थान के लिए ही चला करती थी। वो अखबारों के अलावा तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लेख भी लिखते थे। आठवें दशक में बालेश्वर लाल का नाम बलिया जिले उन चर्चित पत्रकारों में शामिल हो गया था जो सिर्फ अखबारों और पत्रिकाओं में लिखता ही नहीं था, बल्कि उनके अधिकारों के लिए आवाज भी उठाता था। उन्हें आंचलिक पत्रकारों के दर्द का गहराई से एहसास था।
08 अगस्त 1982 को उन्होंने गड़वार में अपने साथी पत्रकारों को बुलाया ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की नींव रखी। इसके बाद वो आंचलिक पत्रकारों को लामबंद करने में शिद्दत से जुट गए। साल 1984 में बाबू बालेश्वर लाल ने बनारस में ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की जिला कार्यकारिणी गठित थी। उन्होंने मुझपर सर्वाधिक भरोसा किया। उनके साथ हम ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन का विस्तार करने में जुट गए। बलिया और बनारस ही नहीं, गाजीपुर, जौनपुर, फैजाबाद, सुल्तानपुर, इलाहाबाद समेत सभी जिलों में संगठन मजबूती के साथ खड़ा हो गया।
बनारस से जुड़ा था गहरा नाता
साल 1987 की बात है। बनारस में ग्रामीण पत्रकार एसोशिएशन की बैठक हुई, जिसमें प्रांतीय सम्मेलन की रूपरेखा तैयार की गई। संगठन का ‘लोगो’ भी बनारस में बना। फरवरी 1987 में लखनऊ के प्रांतीय सम्मेलन की तैयारियां जोरों से शुरू हुई, लेकिन उनके पास कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो स्मारिका के लिए रचनाओं को लिखने से लेकर उनका संपादन कर सके।
बाबू बालेश्वर लाल जी ने हमारे ऊपर भरोसा किया। ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की पहली स्मारिका के संपादन की जिम्मेदारी भी हमें ही सौंपी। हम हफ्तों-महीनों गड़वार में डेरा डाले लहते थे। संगठन की मजबूती के लिए काम करने के साथ ही स्मारिका के लिए रचनाएं लिखने के साथ ही उसके प्रकाशन की तैयारियों में जुटे रहे। प्रांतीय सम्मेलन से एक दिन पहले स्मारिका तैयार हो सकी। लखनऊ के अमीनाबाद में संगठन का पहला प्रांतीय सम्मेलन काफी सफल रहा। हम इस बात के लिए गौरवान्वित हैं कि ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की पहली स्मारिका में संपादक तौर पर पहला नाम मेरा ही छपा।
प्रांतीय सम्मेलन के कुछ ही दिनों बाद ही हमें दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण में नौकरी मिल गई और हमें उनका साथ छोड़कर जाना पड़ा। अखबारी नौकरी के दौरान भी बालेश्वर लाल जी हमें उम्दा रिपोर्ट लिखने के लिए गूढ़ मंत्र देते रहे। हमारे ऊपर उस समय दुखों का पहाड़ टूटा जब हमें 27 मई 1987 को पता चला कि वह दुनिया से रुखसत हो गए।
बाबू बालेश्वर लाल जी के निधन के बाद ग्रामीण पत्रकार एसोशिएशन की जिम्मेदारी उठाने के लिए कोई तैयार नहीं था। तब बाबू बालेश्वर लाल जी के संघर्षों को आगे बढ़ाने का बीड़ा उनके पुत्र सौरभ कुमार जी ने उठाया। उनके सार्थक प्रयासों का नतीजा है कि आज ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन वटवृक्ष बन चुका है, जिसकी जड़ें और शाखाएं देश भर में फैल चुकी हैं। गौरव की बात यह है कि ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन भारत का इकलौता संगठन है जिसके सर्वाधिक सदस्य हैं।
उत्तर प्रदेश के गांवों में पले-बढ़े तमाम पत्रकार निकले। बहुतों ने लखनऊ से दिल्ली तक नौकरियां भी की, लेकिन कोई गांवों में किसानों और मजदूरों की अभिव्यक्ति की आवाज नहीं बन सका। बाबू बालेश्वर लाल जी की पहल का नतीजा है कि आंचलिक पत्रकार अब अन्नदाता की जुबान बन चुके हैं। जहां तक बनारस का सवाल है तो अनगिनत पत्रकार और संपादक बाहर से इस शहर में आए, लेकिन बालेश्वर लाज जी की तरह शायद ही कोई इस शहर को पढ़ पाया हो…बाबा भोले की नगरी की मर्म के मर्म को समझ पाया हो…।
कैसा था उनके जीवन का सूत्र
बाबू बालेश्वर लाल जी मानते थे कि बनारस फकत माटी-पत्थर की नगरी नहीं। यह आस्था, विश्वास और मान्यताओं की ऐसी धरती है जहां तर्कों के सभी मिथक धराशायी हो जाते हैं। बालेश्वर लालजी ने बनारस में गंगा घाटों के बेजान पत्थरों में जीवन का नया रंग और आस्था का समंदर ढूंढा। इस शहर के उन घाटों के मर्म को भी समझा जहां कभी तुलसीदास ने मानस को शब्द दिए, तो कभी कबीर और रैदास को जीवन की सत्यता का बोध कराया।
यकीनन बाबू बालेश्वर लाल जी बनारस के नहीं थे, लेकिन उन्हें पुख्ता यकीन था कि बनारस की मिट्टी में पत्रकारिता की अलग ही सुगंध है। वो जब भी बनारस में आते थे तो यह जरूर कहा करते थे, “घंटे घड़ियाल तो हर जगह बजा करते हैं, लेकिन जब बनारस में बजते हैं तो उनकी अपनी एक अलग मिठास होती है। बनारस जब सर्टिफीकेट देगा तभी ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन का परचम देश-दुनिया में फहराएगा। जैसे भगवान बुद्ध, कबीर और रैदास ने बनारस आकर सफलता पाई है, वैसे ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन भी बनारस की छतरी के नीचे बैठकर समूचे देश में अपनी धाक जमा लेगा।”
बाबू बालेश्वर लाल पहले से ही बनारस को, इस शहर की संस्कृति को और बनारसी खान-पान को अपना बना चुके थे। पढ़ाई के दौरान ही बनारसियों से उनका जो रिश्ता जुड़ा वह न कभी टूटा और न टूटेगा…। बलिया से बनारस आते-जाते उन्होंने सिर्फ ग्रामीण पत्रकारों को ही नहीं, आम आदमी की गूढ़ जिंदगियों को भी तलाशा। खबरों के जरिये कहीं मौत में मंगल, तो कभी आस्था को स्वर दिया। जोखिम भी उठाया। साथ ही पूर्वांचल के उन मठाधीशों से भी मोर्चा लिया जो पत्रकारों का रहनुमा बनने का ढोंग कर रहे थे। उनकी संघर्षों की देन थी कि उन्होंने शहरी पत्रकारों के तमाम संगठनों को पीछे छोड़ दिया। साथ ही यह भी जता दिया कि पत्रकारों के हक-हकूक की लड़ाई सिर्फ ग्रामीण पत्राकर एसोसिएशन से जुड़े लोग ही लड़ सकते हैं।
बाबू बालेश्वर लाल जी ने समूचे उत्तर प्रदेश में अपनी अलग छाप छोड़ी है। उन्होंने आंचलित पत्रकारों के जीवन को सामने दिखती तस्वीरों से पार जाकर देखने की कोशिश की। बनारस को लेकर उनकी अलग समझ थी। वह अपने विचारों के जरिए यह बार-बार जताने की कोशिश करते रहे कि बनारसी सिर्फ चंदन-टीका नहीं लगाते। छतरियां नहीं ओढ़ते। पोथी-पतरों में बसते। ये कहीं मोक्ष का रास्ता दिखाते हैं तो कहीं सांप्रदायिक सद्भाव और अपने सामाजिक व धार्मिक मूल्यों की परतों को खोलते हैं। बनारसी तीज-त्योहार, जीवन-मरण से लेकर चुनावी चौरस भी बिछाते हैं। जाहिर है, बनारस है और रहेगा। मगर बनारस के साथ बाबू बालेश्वर लाल की यादें भी जिंदा रहेंगी…। किसी संगीत की सुरीली धुन की तरह…। जीवनदायिनी गंगा के सफर और प्रवाह की तरह…।
(लेखक विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार है। संपर्कः 07068509999)