विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस: टूट रहे भारतीय पत्रकारों के रुमानी ख्वाब, कहीं नैतिकता पिस रही, तो कहीं उनकी जिंदगी…!
विजय विनीत
भारत में पत्रकारों के ख़िलाफ़ दर्ज मुकदमों की लंबी होती फेहरिश्त और अंतरराष्ट्रीय प्रेस इंडेक्स में लगातार गिरती रैंकिंग के बीच तीन मई को ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ कोई उम्मीद की किरण नहीं ला रहा। दुनिया के 180 देशों की सूची में भारत की रैंकिंग 159 पर आ गई है। प्रेस की आजादी के मामले में हर क्षेत्र में गिरावट हुई है। पत्रकारों के ख़िलाफ़ लगातार दर्ज हो रहे क़ानूनी मामले भारत की गिरती रैंकिंग की एक बड़ी वजह है।
दुनिया में भारत ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा पत्रकार बेरोजगार हैं। दस, बीस, पचास नहीं, हजारों की तादाद में। ये वो युवा हैं जिन्होंने फौलादी इरादों के साथ पत्रकारिता की डिग्री ली है। नौकरी ढूंढने के लिए मारा-मारी है…होड़ है…छटपटाहट और उतावलापन भी है। ढेरों ख्वाब और सारी रुमानियत भरभराकर गिरने लगी है…। इरादे टूटने लगे हैं…। यथार्थ की कठोरता हौसला डिगाने लगी है…। नौकरी कौन कहे? अखबारों के मालिक युवा जर्नलिस्टों को इंटर्न तक कराने के लिए तैयार नहीं हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी और नैतिकता जैसी सीख लेकर युवा जब पत्रकारिता डिग्री लेने आते हैं तो मन में ढेरों सपने होते हैं। सुनहरे ख्वाह होते हैं। पढ़कर निकलते हैं तो सामने दिखती हैं खुरदुरी चट्टानें। ऐसी चट्टानें जिसे लांघ पाना हर किसी के बूते में नहीं होता। पत्रकारिता में अब दिखता और है, सच कुछ और होता है।
अभिव्यक्ति की आजादी की बात करें तो वह अखबार मालिकों और चापलूस संपादकों की अलमारी में बंद होती है। उतनी ही खुलती है जितना वे खोलना चाहते हैं। नवोदित पत्रकारों को शायद यह पता नहीं होता कि अखबारों में लिखने से अब दुनिया नहीं बदलती। अगर कुछ बदलती है तो वह होती है मैनेजमेंट की दुनिया, आपकी, हमारी और समाज की नहीं। आप तनिक भी उनकी नीतियों के खिलाफ गए,तलवार से आपका सिर कलम होते देर नहीं लगेगी। मतलब नौकरी गई तो फिर से शुरू कीजिए सड़कों पर खाक छानने का रिहल्सल। पत्रकारिता में नैतिकता और सैद्धांतिक बातें यथार्थ के धरातल पर सबसे पहले खंडित होती हैं।
जनता की नजर में आज मीडिया सबसे ज्यादा संदिग्ध है। पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है कि वह सच लिखे। नैतिकता का निर्वाह करे। उसका चेहरा समाज को पाक-साफ दिखे। आखिर यह सब कैसे संभव है? जब मालिक का चापलूस संपादक उसे कुछ और ही लिखने के लिए डिक्टेट करता है। सच को छुपाकर, नया सच गढ़ने की गंदली कोशिश करता है।
आप चाहकर भी सच नहीं लिख सकते क्योंकि बड़े अखबार और पत्रिकाएं अब ब्रांड हैं। प्रबंधन के चंगुल में दबाए गए कठपुतली भर हैं। आपकी आवाज निकलेगी तो प्रबंधन की सुर अलापेगी। आप न अपनी राह पर नहीं चल सकते हैं और न ही अपना कोई राग अलाप सकते हैं। कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम ने तो पत्रकारिता का बेड़ा ही गर्क कर दिया है।
बाजारवाद ने खुद के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी पत्रकारिता की भाषा को कहीं का नहीं छोड़ा है। इसने पैर इतना फैला लिया कि अब युवा पीढ़ी भाषा को भूलकर रियलिटी शोज और टीवी सीरियल्स की चकाचौध में खो गई है। जितना ज्यादा आधुनिक विकास की बात हो रही है, उतनी ही भाषा की दुर्गति हो रही है। भाषा अपना अनमोल खजाना गंवाती जा रही है। भाषा की सबसे ज्यादा दुर्गति कर रहे हैं टीवी वाले। अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए ये कुछ भी लिखने, पढ़ने और कुछ भी करने के लिए बेकरार हैं।
आजकल टीवी चैनलों पर दस सेकेंड में दस बड़ी खबर की रफ्तार और उसकी भाषा सुनने के बाद शंका होती है कि हमारी हिंदी को…हमारी भाषा को… क्या हुआ? गौर से देखें तो पता चलता है कि अंग्रेजी हिंगलिश हो गया और हिंदी की चिंदी हो गई।
दरअसल, मीडिया में पनपती संवेदनहीनता ने भाषा के मूल चरित्र को ही बदल डाला है। संवेदना के लिए आवश्यक है राग। राग समाज से उसके दुख-सुख और उसकी पीड़ाओं से। उसके लिए जरूरी है भाव। साहित्य व्यापार नहीं होता…। भाषा व्यापार नहीं होती…। व्याकरण में पल्लवित और पुष्पित पत्रकारिता की भाषा चाहे जिस रूप में हो वह साहित्य का हिस्सा होती है। साहित्य से, पत्रकारिता से भाषा का दूर होते जाना चिंता का विषय है।
अब मीडिया हाउसों के स्वामी संपादकों से साफ-साफ कहने में गुरेज नहीं करते कि हम कोई समाजसेवा करने नहीं बैठे हैं। हर चीज के टारगेट तय किए जाते हैं। प्रसार और विज्ञापन के अलग अलग टारगेट। इसी के चक्कर में कब खबरें बिकने लगीं, संपादकों को पता ही नहीं चला। चाहे अखबार हो या चैनल सभी को भाषा नहीं, बिकाऊ माल चाहिए। ऐसे में गरीबी, भुखमरी, गंदगी, शिक्षा का पिछड़ापन, गांव-गरीब, खेत-खलिहान की समस्याएं कोने में सिसकती पड़ी रह जाती हैं और परीलोक या भूत प्रेत की कथाएं बाजी मार ले जाती हैं।
अखबार मालिक यदि सिर्फ अखबार का धंधा करते तो शायद भाषा में इतनी गिरावट नहीं आती। मगर उन्हें तो कई तरह का धंधा करना होता है। ऐसे में वह अख़बार को औजार के रूप में इस्तेमाल करता हैं। संपादक और रिपोर्टर उन के माध्यम बनते हैं। इस तरह की महत्वकांक्षा ने मीडिया की शक्ल ही बदल दी है…। उसकी भाषा और उसके चरित्र को बदल दिया है। उनसे किसी तरह के बदलाव की उम्मीद करना व्यर्थ है। इसका जिम्मा भी अब समाज को खुद उठाना पड़ेगा। खास तौर पर उन पत्रकार-लेखकों को, जिनमें थोड़ी नैतिकता बची है।
मौजूदा समय में सबसे अहम सवाल यह है कि पत्रकार अपनी नौकरी बचाएं या फिर नैतिकता। मैं जब एक रिपोर्टर के तौर पर अखबारों में काम करता था तब लगता था कि सारा खेल संपादक करते हैं। पर जिम्मेदारियां खुद के कंधे पर आती हैं तब पता चलता है कि समाज में संपादक से बेचारा तो कोई दूसरा है ही नहीं। वो तो बाजार और प्रबंधन के बीच पिस रहा होता है। कुर्सी भले ही उसकी होती है, बोल तो कोई और ही रहा होता है।
मोदी सरकार ने पत्रकारों को दो खांचों में बांट दिया है। अगर आप गोदी मीडिया नहीं हैं और आप सत्ता के खिलाफ लिखेंगे तो दरबदर की ठोकर खाएंगे या फिर मारे जाएंगे। दुनिया भर में पत्रकार मारे जा रहे हैं। मारे भी वही जाते हैं जो सत्ता के भोंपू नहीं होते। पुलिस और प्रशासन का गुणगान नहीं करते। बेखौफ होकर कलम चलाते हैं। अपनी नैतिकता बचाना चाहते हैं।
भारत में पत्रकार इन दिनों अनगिनत दबाव में काम कर रहे हैं। ठेका सिस्टम,मैनेजमेंट की गंदी नीतियां, अपनी नैतिकता कायम रखने का संकल्प,सत्ता का भय, बंटा हुआ समाज, इन सबका दबाव है कलम पर। इन सबके बीच संतुलन बैठाने में सबसे बड़ी बाधा हैं विचारधाराएं। अनगिनत विचारधाराएं, जिनकी पाटों में कहीं पत्रकारों की नैतिकता पिस रही होती है, तो कहीं उनकी जिंदगी…।
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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