मणिकर्णिका पर चिता भस्म की होली: जीवन और मृत्यु के संगम का अलौकिक उत्सव जहां शिव के साथ थिरक उठते हैं भूत-प्रेत..!

मणिकर्णिका पर चिता भस्म की होली: जीवन और मृत्यु के संगम का अलौकिक उत्सव जहां शिव के साथ थिरक उठते हैं भूत-प्रेत..!

काशी की अनूठी परंपरा: 11 मार्च को जलती चिताओं के बीच खेली जाएगी भस्म की होली

विजय विनीत

काशी—जहां जीवन और मृत्यु के बीच की दूरी उतनी ही क्षीण है जितनी चिता की लपटों और उसके धुएँ में घुली आत्माओं की। जहां मृत्यु का भय नहीं, बल्कि मुक्ति का उत्सव मनाया जाता है। इसी काशी के हृदय स्थल पर स्थित मणिकर्णिका घाट हर दिन मृत्यु की बारात देखता है और हर रात शिव की अनंत लीला का साक्षी बनता है। मगर, जब फाल्गुन का महीना अपने चरम पर होता है, तब यह घाट एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता है—यहां खेली जाती है चिता भस्म की होली।

मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं की राख से खेली जाने वाली यह होली किसी साधारण उत्सव का हिस्सा नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु के बीच की सीमाओं को तोड़ने वाली परम चेतना का उत्सव है। इसे अघोरी संप्रदाय और श्मशान साधकों द्वारा मनाया जाता है, जिनका मानना है कि मृत्यु का भय केवल अज्ञान का अंधकार है और शिव की साधना में जो रम जाता है, उसके लिए यह संसार केवल एक नाटक है।

अघोरी भूत-प्रेतों के बीच श्मशान की राख को अपने शरीर पर मलकर, मस्तक पर भस्म तिलक लगाकर नृत्य करते हैं। उनके चेहरे पर एक अनूठी मुस्कान होती है—मुस्कान, जो मृत्यु के भय से परे जाने का संकेत देती है। शिव के ये उपासक शवों की राख को अबीर-गुलाल मानकर आपस में उड़ाते हैं, श्मशान की जमी हुई राख को उठाकर हवा में लहराते हैं और भस्म की इस होली में खो जाते हैं।

मोक्ष का द्वार है मणिकर्णिका

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, स्वयं महादेव ने माता पार्वती के कुंडल यहां गिरने के बाद इस घाट को ‘मणिकर्णिका’ नाम दिया। मान्यता यह भी है कि यहां प्राण त्यागने वाले को स्वयं शिव तारक मंत्र देकर मोक्ष प्रदान करते हैं। इसलिए, यहां मृत्यु को लेकर शोक नहीं, बल्कि एक अलौकिक शांति का वातावरण रहता है। जब चिताओं की लपटों के बीच यह होली खेली जाती है, तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे स्वयं महादेव अपने गणों के साथ मृत्यु का उत्सव मना रहे हों।

अघोरियों के लिए श्मशान भूमि ही उनका मंदिर है और मृत्यु ही उनकी गुरु। वे मानते हैं कि जब तक व्यक्ति मृत्यु से भयभीत है, तब तक वह जीवन के असली स्वरूप को नहीं समझ सकता। इसलिए वे मृत्यु को गले लगाते हैं, शवों के बीच रहते हैं और भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं।

फाल्गुन की पूर्णिमा के आसपास जब संपूर्ण भारत में होली का उल्लास चरम पर होता है, तब मणिकर्णिका घाट पर एक दूसरी ही दुनिया जीवंत हो उठती है। तंत्र-मंत्र के गूढ़ साधक, अघोरी संन्यासी और श्मशानवासी साधक इस उत्सव में शामिल होते हैं। शिव तांडव स्तोत्र की धुन पर नाचते-गाते ये साधक शिव और श्मशान की महिमा का गुणगान करते हैं। उनके लिए यह भस्म केवल चिता की राख नहीं, बल्कि मोक्ष का प्रसाद है।

जब रात गहराने लगती है, तब घाट का दृश्य और भी अलौकिक हो जाता है। जलती चिताओं की लपटें, धुएं के बीच तांडव करते साधु, भस्म उड़ाते हुए अघोरी और उनके बीच गूंजते मंत्र—यह सब मिलकर एक ऐसा माहौल रचते हैं, जिसे शब्दों में बांधना मुश्किल है। ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वयं काल और महाकाल का मिलन हो रहा हो।

मणिकर्णिका की होली का संदेश

आदि से अनंत की यात्रा, शव से शिव तक का साक्षात्कार, जीवन और मृत्यु के बीच का अद्भुत संगम— मणिकर्णिका घाट एक बार फिर साक्षी बनेगा उस अलौकिक होली का, जो हर साल रंगभरी एकादशी के बाद खेली जाती है। 11 मार्च, मंगलवार को दोपहर 12 बजे से 2 बजे तक, महामशान मणिकर्णिका पर होगी “चिता भस्म की होली”।

चिता भस्म की होली का अलग ही अंदाज है और दुनिया भर में इसका क्रेज है। सुबह से ही भक्तजन इस दुर्लभ और आध्यात्मिक होली की तैयारियों में जुट जाते हैं। जो घाट आमतौर पर विलाप और शोक का स्थान माना जाता है, वहां शहनाई की मंगल ध्वनि गूंजती है। हर शिवगण अपने-अपने लिए स्थान खोजकर इस दिव्य और अलौकिक दृश्य को आत्मसात करता है और “शिवोहम्” की अनुभूति में डूब जाता है।

ऐसी मान्यता है कि बाबा विश्वनाथ दोपहर में मध्याह्न स्नान के लिए मणिकर्णिका तीर्थ पर आते हैं। इस दौरान हजारों की संख्या में भक्तजन वहाँ एकत्र होते हैं। यह तीर्थ स्नान का पुण्य प्राप्त करने का अवसर होता है, जहाँ स्नान करने वाले श्रद्धालु अपने स्थानों पर लौटकर इस पुण्य को दूसरों में बांटते हैं।

बाबा स्नान के बाद अपने प्रिय गणों— भूत, प्रेत, पिशाच, किन्नर और अदृश्य शक्तियों के साथ महामशान में चिता भस्म से होली खेलते हैं। इस दिव्य परंपरा का पालन अनादिकाल से होता आ रहा है और यह मृत्यु और जीवन के बीच के शाश्वत सत्य को दर्शाता है।

परंपरा को देंगे भव्य स्वरूप

इस परंपरा को पुनर्जीवित करने का श्रेय महाश्मशान नाथ मंदिर के व्यवस्थापक काशीपुत्र गुलशन कपूर को जाता है। पिछले 24 वर्षों से वे इस परंपरा को भव्य रूप देकर इसे दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचा रहे हैं। गुलशन कपूर बताते हैं कि काशी में मान्यता है कि रंगभरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ, माता पार्वती का गौना कराकर अपने धाम लाते हैं, और तभी से होली का प्रारंभ होता है।

इस उत्सव में देवी-देवता, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य— सभी शामिल होते हैं, लेकिन बाबा के प्रिय गण— भूत, प्रेत, पिशाच— इस आयोजन से वंचित रह जाते हैं, क्योंकि बाबा ने उन्हें काशी में लोगों के बीच जाने से रोक रखा है। बाबा भोलेनाथ अपने इन गणों की प्रसन्नता के लिए स्वयं मणिकर्णिका घाट पर आते हैं और उनके साथ चिता भस्म की होली खेलते हैं। यही क्षण शाश्वत आनंद और मोक्ष का संदेश देता है।

इस अद्भुत, अद्वितीय और अकल्पनीय होली को देखने के लिए देश-विदेश से हजारों लोग काशी आते हैं। जलती चिताओं के बीच इस अलौकिक उत्सव को देखकर वे जीवन के शाश्वत सत्य से परिचित होते हैं और शिव में आत्मलीन हो जाते हैं।

इस अनूठे आयोजन का संदेश स्पष्ट है—मृत्यु का भय छोड़ो, जीवन के असली सत्य को पहचानो। यह होली हमें सिखाती है कि सबकुछ नश्वर है, और जो स्थायी है, वह केवल शिव की भक्ति है। मणिकर्णिका पर खेली जाने वाली यह होली केवल रंगों का खेल नहीं, बल्कि अध्यात्म की गहराई में उतरने का एक प्रयास है।

जब पूरी दुनिया रंगों से सराबोर होती है, तब काशी के इस श्मशान में मृत्यु का महोत्सव मनाया जाता है। यहाँ न कोई शोक करता है, न कोई रोता है—यहां सिर्फ़ शिव होते हैं, श्मशान होता है और होती है चिता भस्म से खेली जाने वाली होली। आयोजकों ने चिता भस्म की होली में शामिल होने वाले सुधीजनों से आग्रह किया है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी देवी-देवता के रूप में प्रवेश न करें। नशा करके आने वालों का प्रवेश वर्जित है। माताओं-बहनों को दूर से होली देखने का अनुरोध किया गया है।

(विजय विनीत, बनारस के वरिष्ठ पत्रकार)

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