…तो कैसे अमेरिका-जापान जाएंगी काशी की छतरियां
वाराणसी। गंगा घाटों की मुकुट बनीं छतरियां कुछ ही सालों में लुप्त हो जाएंगी। कारण-इन्हें बनाने वाले कारीगर काफी बुजुर्ग हो गये हैं। काशी की संस्कृति की पहचान बनी छतरियों को बनाने का काम बेहद जटिल है। इसके चलते बुजुर्ग कारीगरों के बच्चे इस धंधे को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं। खास यह है कि ये छतरियां अमेरिका, लंदन, पेरिस, जापान,नेपाल समेत कई देशों में जा चुकी हैं।
छतरियों को बनाने वाले सिर्फ दो कारीगर ही बचे हैं। ये दोनों रिश्ते में चाचा-भतीजा हैं और घौसाबाद में रहते हैं। छतरी बनाने वाले सबसे बुजुर्गवार कारीगर हैं गोपाल (85) और दूसरे हैं गुलाब (52)। ये दोनों ही पुरानी संस्कृति को ढो रहे हैं। छतरी बनाने वाले एक और कारीगर अभी जिंदा हैं, लेकिन पैर की पीड़ा से लाचार हैं। गोपाल बताते हैं, चार बरस पहले बांस काटने चोलापुर गये थे। बंसवारी में पैर टूट गया। बड़े अस्पतालों में इलाज कराने के लिए धन नहीं था, सो पैर बेकार हो गया। तब से वह डंडे के सहारे ही चल पाते हैं। गोपाल की चार पीढ़ियां छतरियां बना रही थीं और अब उनके बच्चे अपनी विरासत को संभालने के लिए तैयार नहीं हैं।
छतरी बनाने में माहिर रहे शंभू का बड़ा बेटा हाबड़ा में है और छोटा दीवार पर पेंटिंग करता है। शंभू के चचेरे भाई गोपाल कहते हैं, ‘छतरियां भले ही बनारस की शान हों, लेकिन उनसे वह अपने बच्चों की ठीक से परवरिश नहीं कर सकता। प्रोत्साहन के नाम पर सरकार ने आज तक फूटी कौड़ी नहीं दी। इस कला को जीवित रखने के लिए सरकार को चिंता करनी चाहिए।’ गोपाल का शरीर सूखकर कांटा हो गया है और चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी हैं, लेकिन वह विरासत में मिली कला को जीते जी छोड़ना नहीं चाहते हैं।
बताते हैं, पहले बीस आने में छतरियां बिकती थीं। इस समय में 22-23 सौ में बिकती हैं। बांस का जुगाड़ करने में ही 15सौ रुपये खर्च हो जाते हैं। हफ्ते-डेढ़ हफ्ते की कड़ी मेहनत के बाद एक ही छतरी बनती है। गोपाल कहते हैं कि उनके बच्चे भले ही गाड़ियों की डेंटिंग-पेंटिंग का काम करते हैं, लेकिन वह अपनी जिंदगी से संतुष्ट हैं। काफी कुरेदने पर कहते हैं कि यह क्या कम है कि मरने के बाद लोग उन्हें बरसों तक याद रखेंगे। वह फक्र से कहते हैं कि उनकी छतरियां देश-विदेश में जा चुकी हैं। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता ही नहीं, हरिद्वार में भी उनकी छतरियां लगी हैं। बनारस की तरह ही हद्विार के पंडों में भी इन छतरियों का जबर्दस्त क्रेज है।
वाराणसी के होटल गेटवे, होटल डी पेरिस, क्लार्क आदि होटलों में भी छतरियां लगी हैं। विदेशी पर्यटक छतरियों की मुंहमागी कीमत देने को तैयार रहते हैं, लेकिन वे अपनी मेहनत का ही पैसा लेते हैं। यह बात दीगर है कि महीने भर तक कड़ी मेहनत करने के बाद भी सिर्फ दो-तीन छतरियां ही बन पाती हैं। गुलाब के मुताबिक छतरी बनाने में सबसे अधिक मेहनत चटाई बुनने में लगती है। काशी के किसी भी घाट पर उनका नाम पूछिये, सभी उनके घर का पता बता देंगे।