खादी परिधान में बाबा विश्वनाथ बनेंगे दूल्हा

खादी परिधान में बाबा विश्वनाथ बनेंगे दूल्हा

रंगभरी एकादशी के दिन सज-धजकर निकलेंगे गौना लेने

राधेश्याम कमल

वाराणसी। बाबा विश्वनाथ पहली बार खादी ड्रेस पहनकर दूल्हा बनेंगे। रंगभरी एकादशी के दिन सज-धज कर गौना लेने निकलेंगे। दुल्हन पार्वती जी बनारसी साड़ी पहनेंगी। प्योर जरी से बनी इनकी साड़ी में आकर्षक गोटे भी लगाए जा रहे हैं। बाबा के चल रजत मूर्ति पर धोती-कुर्ता व दुपट्टा के साथ स्वदेशी परिधानों का ही प्रयोग किया जायेगा। इसी अनूठी वेशभूषा में महादेव, मां गौरा की विदाई कराने जायेंगे।

रंगभरी एकादशी पर औघड़दानी बाबा विश्वनाथ कुछ बदले परिधानों में अपने भक्तों को रिझायेंगे। रंगभरी एकादशी पर 26 फरवरी को सायंकाल काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत आवास से अबीर-गुलाल की बौछार के संग बाबा की रजत चल मूर्तियों की पालकी यात्रा निकलेगी। इस दौरान बाबा की रजत पालकी को श्रद्धालुजन अपने कंधों पर लेकर चलेंगे।

बाबा का खादी का विशेष कुर्ता चौक क्षेत्र के राजा कटरा निवासी टेलर किशन लाल मनोयोग से तैयार कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने एक भी पैसा नहीं लिया है। सब कुछ नि:शुल्क कर रहे हैं। किशन लाल बताते है कि पहले उनके पिता स्व. सत्यनारायण प्रसाद बाबा का कुर्ता तैयार करते थे। उनके निधन के बाद अब उन्हें बाबा की सेवा का मौका मिल गया है। इसके लिए वह खुद को भाग्यशाली समझते हैं। ऐसा भाग्य किसको मिलेगा जो बाबा का परिधान तैयार करे। वे बताते हैं कि रुपहली जरी से दमकती किनारी से सुसज्जित खादी के कुर्ते के साथ ही गौने के दिन माता गौरा जरी किनारे वाली खांटी बनारसी साड़ी में सजी हुई नजर आयेंगी।

बाबा को खादी ड्रेस पहनाना चाहती थीं नेहरू की मां

काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत डा. कुलपति तिवारी कहते हैं कि बाबा औघड़दानी हैं। वह हर किसी की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। ऐसे में जब बात राष्ट्र प्रेम की हो तो भला उसे कैसे अधूरा छोड़ा जा सकता है। बीते दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि सन् 1934 में जब देश में स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही खादी का अभियान भी गरम था। उस समय रंगभरी एकादशी पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की माता स्वरुप रानी, बाबा काशी विश्वनाथ का दर्शन करने आई थीं। उस दौरान बाबा दरबार में ही उन्होंने बाबा विश्वनाथ की रजत प्रतिमा को खादी पहनाने की इच्छा महंत परिवार के सामने व्यक्त किया था। आंगतुक पंजिका का तब प्रचलन नहीं हुआ करता था, ऐसे में उन्होंने जाते-जाते एक पत्र तत्कालीन महंत पं. महावीर प्रसाद तिवारी को दिया था। जो आज भी सुरक्षित रखा गया है।

 

 

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