विजय विनीत का चर्चित कालम
इन दिनों
दूरदर्शी को याद है कि इंग्लैंड के दिग्गज लेखक विलियम शेक्सपियर की अमर कृति के किरदार ‘रोमियो’ ने अपनी प्रेमिका जूलियट की मौत की खबर पर जान दे दी थी। इस आदर्श प्रेमी को यूपी सरकार ने लफंगा बना दिया है। लड़कियों को परेशान करने वाला शोहदा बना दिया है। दिलफेंक अपराधी बना दिया है। ‘ईव टीजर’ बना दिया है, जो राह चलती लड़कियों को छेड़ता है। बस-ट्रेन में छेड़ता है। बाजार में छेड़ता है। सारनाथ और रविदास पार्क में छेड़ता है।
मंगरू चचा पुरनिया हैं। सरेआम मुहब्बत के इजहार की मुखालफत भी करते हैं। लेकिन एंटी रोमियो अभियान के नाम पर लड़के-लड़कियों से सरेराह उठक-बैठक कराना उन्हें जाहिलाना लगता है। रोमियो-जूलियट के नाम पर दस्तां बनाना जाहिलाना लगता है। चचा को लगता है यह मुहब्बत का अपमान है। युवाओं की भावनाओं का अपमान है। इतिहास का अपमान है। समाज में मिसाल कायम करने वाली कहानियों का अपमान है। कथा लेखकों का अपमान है।
दूरदर्शी अचंभित है कि एंटी रोमियो अभियान के नाम पर नफरत को वाहवाही तुलसीदास के शहर में मिल रही है जो भोगी को जोगी, आसक्त को अनासक्त, गृहस्थ को संन्यासी और भांग को तुलसीदल बनाता रहा है। तुलसीदास काशी को ‘प्यार’ की नगरी मानते थे। वे जानते थे कि प्रेम एक ऐसा जादू है जिसके सामने दुनिया की कोई भी दूसरी पेशकश फीकी है। तुलसीदास को अपनी पत्नी रत्नावली से बेपनाह मुहब्बत थी। मिलन के लिए वह ‘शव’ के सहारे नदी पार किया करते थे। पत्नी के मायके की दीवार जिंदा सांप पकड़कर लांघ जाया करते थे। बेपनाह मुहब्बत का वियोग उनके लिए असह्य था। वासना और आसक्ति की चरम सीमा पर आते ही उन्हें दूसरा लोक दिखाई पड़ने लगा। इसी लोक में उन्हें मानस और विनयपत्रिका जैसी उत्कृष्टतम रचनाओं की प्रेरणा मिली।
दूरदर्शी को लगता है कि बनारस में पत्थर युग आ गया है। दकियानूस, पाखंडी, कट्टरतावादी, कथित पवित्रता की सोच रखने वाले अफसरों को टाउनहाल के तुकबंदी सम्मेलन में मां-बहनों पर उलीची जाने वाली गालियां सुहानी लगती हैं। लेकिन लड़के-लड़कियों का मेलजोल अनैतिक लगता है। चौकीदारी के नाम पर हिंसा और अराजकता नैतिक लगता है। शेक्सपियर का रोमियो छेड़खानी, ज्यादती, जुल्म या बलात्कार नहीं करता। योगी के नेक इरादे को भूलकर बनारस पुलिस उन लोगों के साथ मारपीट कर रही है जिनके आदर्श रोमियो-जूलियट हैं। काशी में एंटी रोमियो दलों के टारगेट लड़कियों को छेड़ने वाले मनचले नहीं हैं। अगर ऐसा न होता तो लंका पुलिस उन लंपट मनचलों को गिरफ्तार कर चुकी होती, जिन्होंने होली के दिन सरेशाम महिला पत्रकार और उसकी बहन के साथ छेड़छाड़-मारपीट की थी।
बनारस में फिकरेबाजी, लंपटबाजी और छेड़खानी का नया दौर इसलिए बढ़ रहा है कि पुरातन शहर की संगीत परंपरा दम तोड़ रही है। ध्रुपद, धमार, खयाल, टप्पा, चतुरंग, ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजली की गायन शैलियां दम तोड़ रही हैं। कथक की विधाएं दम तोड़ रही हैं। राग-रागिनयां दम तोड़ रही हैं। उनकी बंदिशें दम तोड़ रही हैं। वायलिन, दिल बहार, सारंगबीन, वीणा, सितार, सारंगी, तबला, शहनाई, जलतरंग, पखावज, बांसुरी, हारमोनियम, बीन के सुर-साज दम तोड़ रहे हैं। काशी नरेश और काशी के रईसों से आश्रय पाकर ‘सरकार’ का खिताब हासिल करने वाली हुस्ना बाई की परंपरा दम तोड़ रही है।
एक वह भी जमाना था जब शहर के रईस अपने बिगड़ैल लाड़लों को अदब, तमीज और लिहाज सीखने विद्याधरी बाई, मोती बाई, राजेश्वरी बाई, रसूलन बाई, सिद्धेश्वरी, छोटी मैना, बड़ी मैना, काशी बाई, तौकी, टामी, जवाहर बाई, चंद्रकुमारी, चंपा बाई, शिवकुंवर, सिने स्टार नरगिस की मां जद्दन बाई सरीखी गणिकाओं के कोठों पर भेजते थे। बनारसी गायिकाएं अपने कंठ के जादू से युवाओं का मन और दिल बदल देती दूरदर्शी को याद है कि बनारसी संगीत सब रंग रंगा है। बनारसी कजरी, बिरहा, चैती, झूमर, विदेशिया, कहरवा, लाचारी का अपना रंग रहा है। बनारसी होरी का अपना हल्ला रहा है। बनारसी मुजरे की बात ही दूसरी है। बनारसी शहनाई दोनों गोलार्धों में गूंजती रही है।
बनारसी ठुमरी की मिठास के आगे सेक्रीन भी फीकी रही है। बनारसी ठुमरी बाबा भोले और मां अन्नपूर्णा को नमन करती हुई विश्वनाथ गली से चौक, नारियल बाजार, दालमंडी की झलक लेते हुए मछरहट्टा, छत्तातले से लगायत राजा-दरवाजा तक पुश्तों तक फली-फूली। बनारसी पैनेपन में डूबी बोल-बनाव की ठुमरी, बोलबांट की ठुमरी, बंदिश की ठुमरी बिगड़ैल और पत्थर हृदय को पिघलाकर मोम बनाने की क्षमता रखती थी। गिरजा देवी की स्वरचित बंदिशों में बनारसी ठुमरी आज भी ठुमकती है। यह भैरवी, सिंधु भैरवी, काफी, पीलू, जिला, खमाज, झिंझोटी, तिलंग, देश, गारा, सिंदुरा, जोगिया, तिलकबिहारी, तिलक कामोद, सोरठ, बिहाग, पहाड़ी, आसा, मांड, सावनी, धानी, बरवा, सोनी, शिवरंजनी, कालिगड़ा आदि रागों की अपनी गंभीरता, शालनीता, स्वरों पर ठहराव, चैनदारी, विलंबित लय की परंपरा को सींचती रही है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता डा.लेनिन इस बात से व्यथित हैं कि जूलियट के साथ इश्क फरमाने वाले ‘रोमियो’ का नाम अपराधियों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। रोमियो और मजनूं प्यार में पागल जरूर थे, पर छेड़खानी नहीं करते थे। मुश्किल यह है कि ‘रजामंदी’ और ‘बलपूर्वक’ में फर्क समझने के लिए न योगी सरकार तैयार है, न बनारस पुलिस…।