भुला दिए गए नंदगंज गोलीकांड के महानायक 

भुला दिए गए नंदगंज गोलीकांड के महानायक 

जांबाज पहलवान भभीखन कुशवाहा ने हिला दी थी ब्रिटिश शासन की नींव

विजय विनीत

 आजादी की लड़ाई का इतिहास लिखे जाने के वक्त नाइंसाफी का शिकार होने वालों में एक ऐसे क्रांतिकारी भी थेजिन्होंने अपने कई साथियों को बचाने के लिए अंग्रेजों की गोलियों के ढाल बन गए थे। इस क्रांतिवीर का प्लान कामयाब हुआ होता तो शायद हजारों जांबाजों को बलिदान देने की जरूरत नहीं पड़ती। भारत साल 1942 में ही आजाद हो गया होता। यूपी के पूर्वांचल में उस दौर का हीरो थे भभीखन पहलवानजब अंग्रेजों के खौफ के चलते लोग घरों में भी सहम कर रहते थे। भभीखन आजादी के आंदोलन के ऐसे पुरोधा जो अंग्रेजों की गुंडागर्दी से मुकाबला करता थे। ब्रितानी हुकूमत की मनमानी उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। बेलगाम अंग्रेजों को जहां देखतेउन्हें पीट देते थे। वक्त दिखिए, आजादी के सालों गुजर जाने के बावजूद भभीखन कुशवाहा को पहचान नहीं मिली। देश के लिए शहादत देने के बावजूद उन्हें न तो शहीद का दर्जा हासिल हुआ और न ही नौकरशाही ने उनके बलिदान को याद करने की जरूरत समझी।

० इस क्रांतिवीर को बर्दाश्त नहीं थी ब्रितानी हुकूमत की मनमानी

बलिष्ठ देह के स्वामी भभीखन कुशवाहा गाजीपुर जिले के नंदगंज के मुड़वल गांव के निवासी थे। आजादी के आंदोलन के समय उन्होंने अंग्रेजों से लड़ने के लिए बहादुर नवयुवकों निजी सेना बनाई थी। इस सेना में वो युवक शामिल थे जो भभीखन के साथ अखाड़े में पहलवानी करते थे। अगस्त 1942 में क्रांतिकारियों ने नंदगंज थाने का घेराव किया तो आजादी के पुरोधा भोलानाथ सिंह और रामधारी सिंह यादव के साथ भीड़ का नेतृत्व भभीखन कुशवाहा ने किया। थानेदार विद्याशंकर पांडेय ने उग्र भीड़ को यह कहकर अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों में फंसा दिया कि नंदगंज में मालगाड़ी लूटो। उसमें खजाना तो है ही, बड़ी मात्रा में हथियार भी हैं। सरकारी गोदाम लूटने के बाद भीड़ लौट गई।

मालगाड़ी लूटने की योजना को अंतिम रूप देने की जिम्मेदारी पहलवान भभीखन कुशवाहा ने ओढ़ी। मालगाड़ी के बैगनों को काटने के लिए हथौड़ा, गैता और छेनी का इंतजाम किया। इन हथियारों को आंकुशपुर रेलवे स्टेशन के पास मकई के खेत में ककड़ी के पत्तों में छिपाकर रखा गया। 18 अगस्त 1942 को पहलवान भभीखन कुशवाहा ने हथौड़ा, गैता आदि हथियारों से लैस होकर अपने साथियों के संग नंदगंज और आंकुशपुर रेलवे स्टेशन के बीच पटरी को क्षतिग्रस्त कर दिया। उस समय भभीखन की उम्र महज 18 साल थी।

इसी बीच नंदगंज थाने के दरोगा विद्याशंकर पांडेय ने तत्कालीन मजिस्ट्रेट एएस मुनरो और एसपी पीलक को सूचना दे दी। यह भी बता दिया कि भभीखन कुशवाहा के नेतृत्व में मालगाड़ी को लूटने के लिए रेलवे लाइन उखाड़ी जा चुकी है। अंग्रेज अफसर सतर्क हो गए। उन्होंने 52 बैगन वाली मालगाड़ी को तीन किमी पहले ही रुकवा दिया। मालगाड़ी को पलटने की भभीखन की योजना कामयाब नहीं हुई तो वह क्रांतिकारियों से साथ रेलवे स्टेशन पर पहुंच गए। मालगाड़ी के बैगनों को तोड़ा जाने लगा। दरोगा की सूचना गलत थी। मालगाड़ी में न हथियार मिले और न ही खजाना। सिर्फ खाद्य सामग्री और सेना के कपड़े थे। क्रांतिकारियों ने उसे ही लूटना शुरू कर दिया। शाम करीब चार बजे नंदगंज स्टेशन की पश्चिमी क्रासिंग पर मोर्चाबंदी किए बैठी अंग्रेजों की सेना ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। अंग्रेजी सेना ने करीब पौने दो सौ राउंड गोलियां चलाई। भभीखन ने अपने पहलवान गुरु रामधारी सिंह यादव और क्रांतिकारी नेता को बचाने के लिए अंग्रेजों की गोलियां अपने सीने पर झेली। बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद वह बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों को बचाने में कामयाब हो गए। तब तक अंग्रेजों की सेना के कारतूस खत्म हो चुके थे। वे संगीनों से निहत्थे क्रांतिवीरों पर हमले बोल रहे थे।  

० दमनकारी अंग्रेजों से लड़ने के लिए सीखा था कुश्ती के दांव-पेंच

पहलवान भभीखन कुशवाहा को घुटने, कंथे और बांह में गोली लगी थी। फिर भी भारतमाता का जयघोष करते हुए क्रांतिकारियों का हौसला बढ़ाते रहे। उनकी पहल पर कई जगह रेल लाइने उखाड़ दी गईं। टेलीफोन के खंभों और तारों को तहस-नहस कर दिया गया। अंग्रेजों की सेना को रोकने के लिए सड़कें काट दी गईं। इस घटना में करीब सौ से अधिक क्रांतिकारी शहीद हुए।

क्रांतिकारी योद्धा भोलनाथ सिंह (बरहपुर), रामधारी यादव (नैसारे), डोमा विश्वकर्मा (बेलासी) को भी गोलियां लगी थीं। साथियों ने भभीखन से कहा भी कि आप निकल जाओ। तुम बहादुर हो और फिर से आजादी की नई योजना बना लोगेलेकिन वह उन्हें अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। भभीखन के शरीर से बहुत सारा खून बह चुका था। फिर भी वह अंग्रेजी सेना से लड़ रहे थे। कुल्हाड़ी और गैती लेकर। अंग्रेजों ने भभीखन कुशवाहा को जिंदा पकड़ने की कोशिश की, लेकिन भारतमाता की जय का नारा लगाते हुए अपनी शहादत दे दी।

भभीखन कुशवाहा अपने पिता छांगुर कुशवाहा के इकलौते बेटे थे। छांगुर अपने भाई रामदेव और निरंजन आदि को लेकर नंदगंज पहुंचे और शहीद बेटे के शव को ढूंढकर चुपके से गंगाघाट पर अंतिम संस्कार कर दिया। फिर भी नंदगंज के चौकीदार को खबर मिल गई। उसने भभीखन कुशवाहा का नाम फैती रजिस्टर में दर्ज कर अंग्रेज अफसरों को उनके बारे में सूचना दे दी। दो दिन बाद 20अगस्त 1942 को सेना का कमांडिंग अफसर हार्डी नंदगंज पहुंचा। उसने भभीखन के घर भारी फोर्स भेजी। लेकिन छांगुर कुशवाहा अपने परिजनों को लेकर करंडा इलाके के लखनचंदपुर गांव में जाकर छिप गए थे। अंग्रेजों की सेना ने नंदगंज में शहादत देने वाले सभी क्रांतिकारियों के घरों को फुंकवा दिया। देश के लिए शहदत देने वाले कई ऐसे भी जांबाज थे जिनका अब तक पिंडदान तक नहीं हो सका है।

० इतिहास के पन्नों में अब तक दर्ज नहीं हुआ भभीखन का नाम

क्रांतिवीर भभीखन के परिजन हरिनाथ कुशवाहा बताते हैं कि वे इतने ताकतवर थे कि बिगड़ैल घोड़ों को भी काबू में कर लेते थे।उनके बलिष्ठ शरीर और चैरिटेबल कामों की समूचे नंदगंज इलाके में चर्चा होती थी। अंग्रेज अफसर भी उनसे उलझने से बचते थे। भभीखन स्वामी विवेकानंद के विचारों से काफी प्रभावित थे। वे मानते थे कि फौलादी शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। अंग्रेजों से लड़ने के लिए ही वह कुश्ती के दांव-पेंच सीख रहे थे। भभीखन ने सबसे बड़ा काम भारतीय नागरिकों के मन से अंग्रेजों का खौफ निकालने का किया। हरिनाथ को इस बात का रंज है कि बाबू भभीखन कुशवाहा की शहादत को भुला दिया गया। उनका स्टेच्यू तो दूरअभी तक इनके बलिदान को इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं किया जा सका है।

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