जिंदगी की बाजी लगाकर पत्रकार सुशील त्रिपाठी ने खोजा रहस्य व तिलिस्म
घुरहूपुर में भगवान बुद्ध के पदचिह्न, भित्तिचित्र, सम्राट अशोक
के शिलालेख, जलकुंड व विस्ममयकारी गुफाओं की यूं हुई खोज
विजय विनीत
बनारस के जाने-माने चित्रकार व पत्रकार सुशील त्रिपाठी ने हौसलों की उड़ान भरी और खुशबू बनकर पहाड़ की घाटी में उड़ रहे हैं। वही सुशील त्रिपाठी जिन्होंने विंध्य और कैमूर की पहाड़ियों के संगम स्थल पर भगवान बुद्ध के पदचिह्न, भित्तिचित्र, सम्राट अशोक के शिलालेख, जलकुंड और गुफाओं को खोजने में अपना जीवन न्योछावर कर दिया था। वह 30 सितंबर 2008 को यूपी के चंदौली जिले में घुरहूपुर की पहाड़ियों में बुद्ध के पैरों के निशान के मिथक की पड़ताल करने निकले थे। गुफा से सटी पहाड़ी से रपट कर तीस फीट नीचे खाई में आ गिरे। यह जगह चंदौली के चकिया कस्बे से करीब 15 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व की तरफ है।
रहस्य और तिलिस्म के बीच छुपे धरोहर की खोज करने वाले सुशील त्रिपाठी के बारे में घुरहूपुर में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे लोग याद कर सकें। यह गांव यूपी और बिहार का बार्डर है, तो विंध्य और कैमूर की पहाड़ियों का मिलन स्थल भी। बौद्ध दर्शन सुशील त्रिपाठी के शोध का विषय भर नहीं था। उनके जीवन पर भगवान बुद्ध का असर भी था। उनके वलिदान के बाद ही बौद्ध धर्म की महायान शाखा से जुड़े भगवान बुद्ध की भित्ति चित्रों का रहस्य उजागर हुआ।
भगवान बुद्ध के जीवन दर्शन को रेखांकित करने वाली गुफा की खोज करने वाले सुशील त्रिपाठी सिर्फ पत्रकार ही नहीं थे जो एक बार माथे पर प्रेस की चिप्पी लग जाने के बाद काठ से तटस्थ हो जाते हैं। वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव कहते हैं, ‘इमरजेंसी में उन्होंने लाठियां खाईं, छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के नेता रहे, सभासदी का चुनाव लड़ा, ललित-कला अकादमी में रहे, जैसे बने, वैसे गरीब-गुरबा की मदद में खड़े होते थे। बीएचयू की विजुअल आर्टस फैकल्टी से प्रशिक्षित पेन्टर ही नहीं थे, जनता के मुद्दों पर पोस्टरों को ढाल की तरह सजाकर सड़क पर भी खड़े हो जाते थे। फोटोग्राफर ही नहीं थे कि बस आंख से काम लें, उनके हाथ-पैर राजनीतिक-सामाजिक सरोकारों के साथ चलते थे। बहुत लोगों के लिए तो वे बस स्कूटर पर जाता हुआ, पान घुलाए एक दाढ़ीधारी कौतुक थे, जिसकी चार आंखें थी। वह अपना चश्मा अगर कुछ पढ़ने की बेहद मजबूरी न हो तो सिर पर ही अटकाए रखते थे। उनके पास प्रछन्न शरारत से खिली बेहद आकर्षक मुस्कान थी और कितने ही शब्द थे जो किसी शब्दकोश में नहीं मिल सकते। लूड़ीस, सुड़ुकबाम, झंडू, गरदनिया पासपोर्ट, वेदान्ती सरीखे और न जाने कितने शब्द जो उनकी खबरों में घुस ही आते थे। सुशील त्रिपाठी की दुनियावी चिंताएं भी कम नहीं थीं, लेकिन जुबां पर उनका जिक्र नहीं आने देते थे। तनाव में रहते थे तो कैप्सटन की डिब्बी जेब से निकालते और सुलगा लेते थे।’
साल 1977 में कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए बनी छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के अगुवा थे सुशील त्रिपाठी। पोस्टर चित्र प्रदर्शनी, सूक्तियों, कविताओं और आंकड़ों के साथ हर पोस्टर में होते थे प्रभावशाली चित्र। उन दिनों वह कबीर और लोहिया का तेवर लिए पेंटिंग के विद्यार्थी थे। आपातकाल के समय नौकरशाही ने उन्हें जेल भेजा तो इनके पिता पणीशचंद्र त्रिपाठी को खादी ग्रामोद्योग विभाग की नौकरी से निकला दिया गया। इमरजेंसी के दौरान सरकार ने ऐलान कर रखा था कि जिनके घरों के लोग आपातकाल का विरोध करते पाए जाएंगे उन्हें नौकरी से हटा दिया जाएगा। उस दौरान भी दिनमान सरीखी मैगजीन में सुशील त्रिपाठी की रपटें छपती थीं और रेखाचित्र ( स्केच ) भी। वह बतौर विश्वविद्यालय संवाददाता आज से जुड़े। हर सोमवार छपने वाली ‘विश्वविद्यालय की हलचल’ से सिर्फ़ हलचल नहीं मचती थी। बीएचयू के अफसरों, शिक्षकों और कर्मचारियों के अवकाश यात्रा छूट में व्यापक भ्रष्टाचार की खबर सुशील जी ने छापनी शुरू की तो तत्कालीन कुलसचिव तक को एलटीसी की रकम लौटानी पड़ी। बाबाओं का संसार हो या कला-शिल्प पर समीक्षा। उनका कलाकार खिल कर सामने आता था। प्रकृति प्रेम और सौन्दर्य बोध लेकर। सुशील जी ने अनगिनत पेंटिंग तो बनाई ही, पत्रकारीय लेखन के अलावा दोहे भी लिखे, जिसे वह सधी हुई लय के साथ गाते भी थे।
बहुत कम लोग ही जानते हैं कि सुशील त्रिपाठी का जन्म चंदौली के धानापुर प्रखंड के एक गांव में साल 1956 में हुआ था। दैनिक आज, अमर उजाला, दैनिक जागरण को सेवाएं देने के बाद आखिर में हिन्दुस्तान के वाराणसी संस्करण में प्रमुख संवाददाता बने। विंध्य की पहाड़ियों से सुशील त्रिपाठी का गहरा नाता था। तभी तो सुनगुन मिलते ही वह घुरहूपुर में भगवान बुद्ध के जीवन दर्शन की तलाश में निकल पड़े। पहाड़ी से गिरे तो कोमा में चले गए। बीएचयू के सरसुंदर लाल अस्पताल में और बाहर हजारों दोस्तों ने उन्हें बचाने सारा जतन किया, मगर वह नहीं लौटे। तीन अक्टूबर 2008 को उनकी मौत की अफवाह उड़ी और अगले दिन चार अक्तूबर की सुबह सच हो गई। सुशील त्रिपाठी भले ही दुनिया में नहीं हैं, लेकिन अब घुरहूपुर में रोजाना बौद्ध अनुयायियों का जमघट लगता है। हर साल दो नवंबर को वहां बौद्ध महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें देश-विदेश से हजारों लोग आते हैं। इस स्थल के विकास के नाम पर अब तक करीब दो करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। ग्रामीण बताते हैं कि चंदौली के दो बदनाम ठेकेदार नेताओं ने मिलकर गुफाओं के विकास के लिए मिली ज्यादातर रकम हड़प ली। घुरहूपुर की पहाड़ियों पर सिर्फ कुछ दूर तक रेलिंग बनवाने के अलावा कोई खास काम नहीं हुआ है। यहां जो कुछ भी हुआ वह चंदौली के तत्कालीन कलेक्टर रिग्जियान सैम्फिल की निजी कोशिशों के दम पर हुआ।
करीब डेढ़ सौ फीट ऊंची पहाड़ी पर निर्मित इन गुफाओं पर कई खतरनाक मोड़ से होकर गुजरना पड़ता है। जरा सी चूक आपकी जान ले सकती है। गुफाओं को आपस में जोड़ने के लिए कई सुरंगें हैं। उसमें घुसने के लिए सीढ़ियां भी बनी हैं। एक गुफा में प्रवेश करने पर हाल की तरह की एक संरचना है, जिसमें दो-तीन दर्जन लोग आराम से बैठकर ध्यान और पूजा-अर्चना कर सकते हैं। इस हाल से जुड़े नौ खोह हैं। हर खोह में इतनी जगह है कि एक व्यक्ति पालथी मार कर साधना कर सकता है। गुफा से नीचे उतरने के लिए सीढ़ी नुमा संरचना है जो इस समय भी जीर्ण हालत में है। मुख्य द्वार पर आठ-दस पद चिह्न भी हैं। गुफा में पत्थरों से टेक लगाकर एक पालिश की गई तख्तनुमा संरचना है, जिसके एक सिरहाने पर सिर के आकार का चिह्न निर्मित है। लगता है कि इस तख्त का प्रयोग सोने के लिए किया जाता रहा होगा। गुफाओं की संरचना को देखकर प्रतीत होता है कि यह कभी बौद्ध मठ के रूप में विकसित रहा होगा। गुफा में बुद्ध के भित्ति चित्र के ठीक नीचे खोदे गए स्थान से जल का सोता निकलता है। लोग इसे भगवान बुद्ध का चमत्कार मानते हैं। साथ ही इसके जल को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं। गुफा की दीवारों पर हिरन, उल्लू, मानव, घोड़ा और कुछ समूह चित्र भी बने हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन चित्रों के जरिए कथा कहने की कोशिश की गई है। गुफा की दीवारों पर बनीी राक पेंटिंग सैकड़ों साल पहले वहां मनुष्य के निवास स्थान को दर्शाती है।
गुफा के मुख्य द्वार पर आठ-दस पद चिह्न बने हैं। घुरहूपुर के लोग कयास लगाते हैं कि ये भगवान बुद्ध के पद चिह्न हैं। हालांकि बीएचयू के पुरातत्वविद् डा. प्रभाकर उपाध्याय इससे इत्तिफाक नहीं रखते। वह कहते हैं कि भित्ति चित्र गुप्त काल के हैं। सम्राट अशोक बौद्ध महासंघ के सदस्य चित्रप्रभा त्रिसरण बताते हैं कि सम्राट अशोक ने 84 हजार स्पूतों, शिलालेखों व भित्ति चित्रों के माध्यम से भगवान बुद्ध के जीवन दर्शन का प्रचार किया था। प्रज्ञा, करूणा, मैत्री के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए ऐसे भित्ति चित्रों का प्रयोग किया गया था। घुरहूपुर की गुफाओं के भित्ति चित्रों में उन्हीं रंगों का इस्तेमाल किया गया है जैसा बनारस के सारनाथ में प्रयोग किए गए हैं। इन चित्रों में प्रयुक्त चटख रंग कई तरह की वनस्पतियों को मिलाकर बनाया गया है।
गुफा की दीवारों पर भगवान बुद्ध की समाधि मुद्रा और उनके अगल-बगल में कलश की आकृति चित्रित है। दीवार पर भगवान बुद्ध के चित्र के ऊपर पाली भाषा में शिलालेख भी पेंट किया गया है। जिनमें वनस्पतियों के मिश्रण से तैयार रंगों का प्रयोग किया गया है। पाली भाषा में चित्रित अंकों के बारे में प्रियदर्शी अशोक मिशन (पाम) बिहार के सदस्य डा. विजय बहादुर मौर्य बताते हैं कि उत्कीर्ण शिलालेख में भगवान बुद्ध का जन्म काल ईसा पूर्व 563 और बुद्धम् शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि और धम्मम् शरणम् गच्छामि का सूत्र वाक्य अंकित है। पर्यटक स्थल के रूप में मशहूर हो रहे घुरहूपुर में पत्रकार सुशील त्रिपाठी के यादों को संजोने के लिए भले ही कुछ नहीं किया गया है, लेकिन वहां पहुंचने वाले हर किसी के लबों पर उनका नाम जरूर याद आता है। घुरहूपुर में उनकी यादें अब भी जिंदा हैं और आगे भी रहेंगी।