बनारस के स्वाद का पंचनामा : लंका पर ‘चाची की कचौड़ी’ और ‘पहलवान लस्सी’ पर हायतौबा क्यों?

बनारस के स्वाद का पंचनामा : लंका पर ‘चाची की कचौड़ी’ और ‘पहलवान लस्सी’ पर हायतौबा क्यों?

दो कारोबारियों की दुकानों के टूटने पर हम इसलिए आहत हैं, क्योंकि उनके साथ हमारी यादें जुड़ी हैं, हमारे फोटो हैं, हमारे किस्से हैं। लेकिन वही संवेदना हम उन हजारों छोटे दुकानदारों, फुटपाथ पर बैठने वालों के लिए क्यों नहीं दिखाते, जिनकी आजीविका एक झटके में छिन जाती है? दरअसल, उनके पास न कोई हेरिटेजहोता है, न कोई हैशटैग, न पुराने बैनर, न प्रतिष्ठा का कवच और न ही कोई ऐसा नाम जिससे उनके लिए खबरिया चैनल्स और सोशल मीडिया का ताजपोशी वाला शोक लिखा जाता…!

विजय विनीत

बनारस के लंका चौराहे पर जब बुलडोजर चला और ‘पहलवान लस्सी’ व ‘चाची की कचौड़ी’ जैसी पुरानी दुकानों के शटर गिरे, तो सोशल मीडिया से लेकर काशी की गलियों-बाजारों तक शोर मच गया। लोग लिखने लगे कि बनारस की आत्मा उजड़ गई, संस्कृति पर हमला हो गया, स्वाद की विरासत खत्म कर दी गई, पर क्या वाकई ऐसा था? क्या यह वाकई बनारस की आत्मा का टूटना था या सिर्फ उस स्वाद के उजड़ने का दुख, जिसे हम अपनी यादों में संजो कर बैठे थे?

दुकानें टूटीं, दुख भी हुआ-यह स्वाभाविक था। लेकिन सवाल है कि यह दुख केवल दो मशहूर दुकानों तक ही क्यों सीमित रह गया? क्या सिर्फ ‘पहलवान लस्सी’ व ‘चाची की कचौड़ी’ ही बनारस की पहचान थीं? क्या बाकी सब बस भीड़ थे-बेनाम, बेआवाज़, बेवजूद? उसी दिन लंका चौराहे पर दो दर्जन से ज्यादा दुकानें टूटी थीं। न उनके पास पुराने बैनर थे, न प्रतिष्ठा का कवच और न ही कोई ऐसा नाम जिससे उनके लिए खबरिया चैनल्स और सोशल मीडिया का ताजपोशी वाला शोक लिखा जाता…!

क्यों नहीं होती गुमनाम मुस्कानों की चर्चा?

पिछले साल बीएचयू गेट के किनारे फुटपाथ पर ठेला-ठेली वालों की समूची दुनिया उजाड़ दी गई थी, जहां सुबह होते ही जीवन सिसकियों के साथ जागता था। कोई सत्तू घोलता था, कोई मूंगफली सेंकता था, कोई चाय का भगौना चढ़ाता था। वहां चना चबेना बेचने वाला रामू भी था, जो सुबह से शाम तक तीन सौ रुपये कमाकर घर लौटता था और अपने बच्चों की किताबें देखकर मुस्कुराने की कोशिश करता था। जब उसकी गुमटी टूटी, तो उसके बेटे की फीस जमा नहीं हो सकी। उसने अपनी पत्नी की चूड़ियां गिरवी रख दीं, लेकिन कहीं कोई ख़बर नहीं छपी।

धूप में कुल्फी बेचता एक दुबला सा नौजवान भी था, जिसे बच्चे ‘कुल्फी भैया’ कहकर दौड़ते हुए घेर लेते थे। उसकी ठेली सड़क किनारे टूटी पड़ी थी, कुल्फी पिघल गई थी और उसकी आंखों में पहली बार ये डर था कि अब घर कैसे चलेगा? लेकिन उसके लिए कोई कैमरा नहीं रोया, कोई हेडलाइन नहीं बनी, कोई नेता उसके आंसुओं को वोट में नहीं गिनता।

बीएचयू गेट के पास फुटपाथ पर ठेली लगाने वाली विमला पांचवीं फेल थी, लेकिन जिंदगी की यूनिवर्सिटी में स्वर्ण पदक विजेता। वह दोपहर में लोगों को बर्तन में खिचड़ी परोसती थी, शाम को बचे चावल में पानी डालकर अपने बच्चों को भरमाती थी कि ये दाल है। जब उसकी जगह उजड़ी, तो उसने अपनी मां की अंगूठी गिरवी रख दी, ताकि बेटी का स्कूल न छूटे। पर विमला के लिए न कोई कवि रोया, न कोई नेता आया और न कोई इंस्टाग्राम स्टोरी बनी…!

आख़िर क्यों? क्या इसलिए कि वे कैमरों की भाषा नहीं बोलते? क्या इसलिए कि उनके पास कोई ‘हेरिटेज’ नहीं, कोई ‘हैशटैग’ नहीं? उनके पास बस एक पेट है, जिसे हर रोज भरना होता है, एक झोपड़ी है जिसे बचाना होता है और एक उम्मीद है जिसे अगली सुबह तक जिंदा रखना होता है। बनारस की आत्मा अगर कहीं है तो सिर्फ ‘पहलवान लस्सी’ व ‘चाची की कचौड़ी’ जैसी दुकानों की दीवारों में नहीं, बल्कि उन्हीं गुमनाम मुस्कानों में है जो हर सुबह चाय, नाश्ता, कुल्फी और दालमोट की शक्ल में शहर को जगा देती हैं-बिना कोई नाम लिए, बिना किसी तारीफ की अपेक्षा किए।

जब बनारस शहर चलता है, तो उसे सबसे पहले इन्हीं बेआवाज़ पायों की ज़रूरत होती है। अफ़सोस, जब ये पाये गिरते हैं, तो शहर चुप रहता है। तब प्रशासन गर्व करता है और संवेदना-बस दो नामों में सिमट जाती है। जो लोग आज पहलवान की लस्सी और चाची की कचौड़ी को बनारस की विरासत कहकर छाती पीट रहे हैं, वे उस समय कहां थे, जब काशी की आत्मा को चुपचाप ज़मीन में दबा दिया गया था?

जब काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर सैकड़ों छोटे-बड़े प्राचीन मंदिर तोड़ दिए गए थे, तब न कोई ट्वीट हुआ, न कोई हैशटैग ट्रेंड करने लगा। जिन संकरी गलियों को बनारसी श्रद्धा सदियों से बाबा की जटाएं मानता आ रहा था, जिन पत्थरों को सदियों की भक्ति ने चूमा था, उन्हें बुलडोज़र के शोर में चुपचाप रौंद दिया गया। वो पत्थर सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं थे, वे उन बूढ़ी आंखों के सपने थे जो हर सुबह दीप जलाकर बाबा से मोक्ष की कामना करती थीं। वे वो छोटे-छोटे देवालय थे, जिनमें पीढ़ियों से पूजन होता था, जहां हर घंटे शंखध्वनि गूंजती थी, जहां तुलसी की माला और घंटियों की झंकार में श्रद्धा सांस लेती थी।

विश्वनाथ कारिडोर के निर्माण के वक्त जब सदियों पुराने मंदिरों की नींव उखाड़ी गई, तब टीवी पर बहस नहीं हुई। न्यूज़ चैनलों ने उसे ‘विकास का मॉडल’ कहकर चुपचाप निगल लिया। बनारस के अखबारों ने उसे ‘नई काशी’ का सपना बताकर लीड स्टोरी बना दिया। किसी अभिनेता ने आंसू नहीं बहाए। इस सांस्कृतिक शहर के किसी नेता ने ‘विरासत बचाओ’ की पुकार नहीं लगाई।

उस समय अगर कुछ हुआ तो बस कुछ साहसी पत्रकारों ने, जिनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है, खामोशी से उन टूटी मूर्तियों की तस्वीरें खींचीं। जिनमें कहीं शिव की गर्दन टूटी पड़ी थी, कहीं गणेश जी की सूंड मिट्टी में धंसी थी और कहीं पार्वती की आंखें धूल में समा चुकी थीं। उन्होंने बिना किसी ग्लैमर, बिना किसी प्रचार के उन चुप्पियों को लिखा जो विध्वंस के नीचे दबी थीं। लेकिन बाकियों ने खामोशी की चादर ओढ़ ली-मीडिया ने, बुद्धिजीवियों ने और यहां तक कि हमारी सामूहिक चेतना ने भी।

आज जब एक लस्सी की दुकान या कचौड़ी के ठेले की बात आती है, तो अचानक बनारस की विरासत याद आ जाती है। क्या हमारी विरासत सिर्फ स्वाद में ही है? क्या हमारी आस्था, हमारी स्मृतियां, हमारे मंदिर सब सिर्फ इतिहास की कब्र में दफ्न कर दिए जाएं और हम तब भी चुप रहें?

कहां थे जब चीख रही थी काशी की आत्मा?

बनारस की आत्मा मिट्टी के कुल्हड़ में परोसी जाने वाली मीठी लस्सी में नहीं है, बल्कि वो तो उन हजार साल पुराने शिवलिंगों में थी, जो मिट्टी के ढेर में बदल दिए गए। विरासत अगर वाकई कोई चीज़ है, तो वह सिर्फ व्यंजन नहीं, वो भाव है, वो पहचान है, जो सदियों से मंदिरों, गलियों और घाटों के जरिए बनती रही है। जरूरी सवाल यह है तब तुम कहां थे, जब विश्वनाथ धाम के नाम पर ऐतिहासिक मंदिरों पर बुल्डोजर चलाया जा रहा था और काशी की आत्मा चीख रही थी…?

दरअसल, यह विरोध स्वाद के जाने का नहीं है, यह बदलाव के प्रति मन की असहजता है। पहलवान लस्सी और चाची की कचौड़ी की दुकानें जरूर लोकप्रिय थीं, लेकिन वे एक तंग सड़क पर थीं, जहां हर रोज घंटों जाम लगता था। एंबुलेंस तक को निकलने में दिक्कत होती थी। लोगों की शिकायतें वर्षों से थीं। प्रशासन ने नोटिस भी दिया था और मुआवजे की भी घोषणा हुई थी, लेकिन अब जब सड़क चौड़ी करने की कार्रवाई हुई, तो इसे विरासत का मुद्दा बना दिया गया।

बनारस की विरासत सिर्फ उसका स्वाद नहीं, बल्कि उसकी सहजता, संतुलन और सहिष्णुता भी है। किसी एक दुकान का टूटना विरासत का अंत नहीं होता। अगर वह दुकान शहर की रफ्तार रोक रही हो, तो उसे स्थानांतरित करना ही होगा। व्यापार चाहे जितना पुराना हो, अगर वह सार्वजनिक असुविधा का कारण बन जाए, तो व्यवस्था को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

बनारस में कचौड़ी की कई मशहूर दुकानें है। कचौड़ी गली सून कइला बलमू… से ज्यादा लोकप्रिय नहीं रही चाची की कचौड़ी…। इस शहर में लस्सी की भी अनगिनत दुकानें हैं। सच यह है कि बदलाव को लेकर हमारी भावनाएं तब ही जागती हैं, जब नाम बड़ा होता है। ‘पहलवान लस्सी’ और ‘चाची की कचौड़ी’ पर हम इसलिए आहत हैं, क्योंकि उनके साथ हमारी यादें जुड़ी हैं, हमारे फोटो हैं, हमारे किस्से हैं। लेकिन वही संवेदना हम उन हजारों छोटे दुकानदारों, फुटपाथ पर बैठने वालों के लिए क्यों नहीं दिखाते, जिनकी आजीविका एक झटके में छिन गई और कोई पूछने वाला भी नहीं?

बनारस बदलाव के दौर से गुजर रहा है। उसे सांस लेने की ज़रूरत है। ट्रैफिक, भीड़ और अराजकता से बाहर निकालना जरूरी है। अगर इसके लिए कुछ दुकानों को दूसरी जगह ले जाया जाता है, तो यह न तो विरासत की हत्या है, न संस्कृति से बेवफाई। चाची की कचौड़ी और पहलवान लस्सी किसी और गली में फिर से मिलेंगी, बनारस फिर से उन्हें अपनाएगा, क्योंकि यह शहर अपनाने में कभी पीछे नहीं रहता। चाहे भगवान बुद्ध रहे हों, कबीर हो, रविदास हो या फिर तुलसी। इस शहर ने हर किसी को लिखने-पढ़ने और अपना धर्म चलाने की आजादी दी ।

पर हां, ज़रूरी यह है कि हम सिर्फ नामचीन दुकानों के टूटने पर नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति के टूटने पर भी आंसू बहाना सीखें, जो चुपचाप हमारी भूख मिटाता है, जो कैमरों की चमक से दूर अपनी ज़िंदगी की लड़ाई लड़ रहा होता है। बनारस की आत्मा सिर्फ कचौड़ी और लस्सी में नहीं, बल्कि उन गुमनाम हाथों में है, जो हर सुबह हमें मुस्कान और स्वाद देते हैं।

काशी का दिल बहुत बड़ा है। वह फिर से बसेगा, फिर से रचेगा, लेकिन तब ही जब हम सिर्फ स्वाद नहीं, इंसान भी देखना सीखें। बनारस की वो खबरें जिन पर खबरिया चैनल, मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया के लड़ाकों की ज़ुबान उस समय भी खुलनी चाहिए थी, जब लंका पर गरीब रेहड़ी पटरी वालों पर लाठियां तोड़ी गईं और विश्वनाथ धाम के नाम पर तमाम ऐतिहासिक मंदिरों को जमींदोज कर दिया गया। इन खबरों को पढ़कर सबक लेने की जरूरत है:

  1. ग्राउंड रिपोर्ट: बनारस में अतिक्रमण हटाने के बहाने उजाड़े जा रहे रेहड़ी पटरी वाले, जो गरीबों का पेट भरते थे, वो अब भुखमरी के शिकार…!
    🔗 https://janchowk.com/in-banaras-street-vendors-are-being-destroyed-on-the-pretext-of-removing-encroachment/
  2. काशी विश्वनाथ मंदिर: गोदी मीडिया के लिए महापरिवर्तन, श्रद्धालुओं के लिए धर्म का व्यापार
    🔗 https://hindi.newsclick.in/Kashi-Vishwanath-Temple-Big-change-for-Godi-media-business-of-religion-for-devotees

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