एक विरासत, एक कहानीः बनारस में आज भी बोलता है ‘ठंडई गुरु’ पंडित शंभूनाथ पाठक के हुनर का स्वाद…!
विजय विनीत
ठंडई गुरू यानी पंडित शंभूनाथ पाठक। इन्हें भले ही बनारसियों ने भुला दिया हो, लेकिन उनका हुनर आज भी जिंदा है। समूची दुनिया को बनारसी अंदाज में ठंडई बनाने का हुनर सिखाने वाले महागुरु शंभू बीते युग के प्रतीक थे। जानते हैं क्यों? उनकी ठंडई का स्वाद इतना अनूठा और मनमोहक था कि वो तमाम बनारसियों के दिलों में बस गए थे। यही वजह थी कि बनारसियों ने उन्हें ‘ठंडई गुरु’ का मानद ओहदा दे रखा था। उन्हें ठंडई का उस्ताद माना जाता था। वो न केवल गले को तर करने वाली ठंडई बनाने में माहिर थे, बल्कि उसे परोसने का उनका अंदाज भी अनूठा था।
पंडित शंभूनाथ पाठक का ठंडई बनाने का ज्ञान और कौशल ऐसा था, जिसके लिए वो दुनिया भर में मशहूर थे। उनके हाथों की बनी ठंडई ने बनारसियों को सुखद आनंद का अनुभव कराया। वो ठंडई बनाने के अनूठे महारथी थे, जिसका उन्हें अद्भुत ज्ञान था। बाद में उन्होंने अपने शिष्यों को भी खास अंदाज में ठंडई बनाने का हुनर सिखाया। ‘ठंडई गुरु’ की ठंडई की खासियत यह थी कि उसका स्वाद लोगों के दिलों में उतर जाता था। इसमें उनके हुनर का जादू तो था ही, ठंडई में प्यार और मेहनत का स्पर्श भी महसूस होता था। उनका व्यक्तित्व भी अद्वितीय था। ‘ठंडई गुरु’ आज इसलिए याद किए जाते हैं कि उन्होंने अपनी लजीज ठंडई से बनारसियों के दिलों को चुरा लिया था।
किसिम-किसिम की ठंडई
पंडित शंभूनाथ पाठक यूं ही ठंडई गुरू के नाम से जगत प्रसिद्ध नहीं हुए। ठंडई में उनका हुनर बोलता था। वह लगे-भये पान की ठंडई बनाते थे, तो फूलों की ठंडई बनाने में भी उन्हें महारथ हासिल था। खोये के पेड़े की ठंडई हो या फिर मलाई पेड़े की ठंडई, उसमें ऐसा फ्लेवर डालते थे कि उसका स्वाद लोग सालों साल नहीं भूल पाते थे। वो मुरउत की ठंडई और नमकीन की ठंडई भी बनाया करते थे।
कच्चे आम की ठंडई पीने तो दूर-दूर से लोग आते थे। मिट्टी के सोधेपन की ठंडई बनाने में भी वो सिद्धहस्त थे। ‘ठंडई गुरु’ सैकड़ों फ्लेवर की ठंडई बनाया करते थे। वो जिस चीज की ठंडई बनाते थे उसमें उसकी गमक हर किसी को दीवाना बना देती थी। बनारस की काशिका भाषा में कहें तो शंभूनाथ पाठक की ठंडई में वह चीज ‘बोलती’ थी।
पंडित शंभूनाथ पाठक ने बनारस में ठंडई की पहली दुकान चौखंभा स्थित भारतेंदु भवन में खोली थी। उस समय एक पुरवा ठंडई की कीमत होती थी चार आना यानी पच्चीस पैसा। साल 1938 में उन्होंने अपनी दुकान मोती कटरा में खोल ली। शंभू गुरु ने खास अंदाज में ठंडई बनाने के अपने हुनर को छिपाया नहीं, बल्कि अपने शिष्यों को दिल खोलकर बांटा। वो रामलीला के प्रेमी थे। रामनगर की रामलीला में राम और लक्षमण का रोल भी अदा करते थे। चमचमाते कपड़े पहनकर ठंडई बेचा करते थे। ठंडई बनाने के लिए वो बर्मा और रंगून गए। 22 जुलाई 1986 को शंभू गुरु शिवलीन हो गए, लेकिन उनकी कला आज भी जिंदा है।
पंडित शंभूनाथ पाठक की तीसरी पीढ़ी भी ठंडई के कारोबार से जुड़ी है। परिवार के लोग आज भी उनकी परंपरा को जिंदा रखे हुए हैं। गोदौलिया के पास मिश्र पोखरा में राजेश पाठक की ठंडई की दुकान है, जहां हर सीजन में ठंडई बिकती है। इनके परिवार के रोहित पाठक और शिवम पाठक की बुनानाला पर, कमलेश पाठक की विश्वनाथ गली में और बनवारी पाठक मैदागिन पर ठंडई बेचते हैं। खास बात यह है कि पंडित शंभूनाथ पाठक का समूचा परिवार ठंडई का कारोबार करता है। ठंडई बनाने में इस परिवार की बादशाहत को आज तक कोई पीछे नहीं छोड़ पाया है।
जिंदा है शंभू की विरासत
फलों और फूलों की सुगंधित और फ्लेवर के साथ ठंडई पीनी है तो मिश्र पोखरा आना पड़ेगा और ठंडई गुरु के पोते के हाथ की बनी ठंडई पीनी पड़ेगी। यहां राजेश पाठक और उनके भाई ओमकार पाठक अपने दादा से सीखे हुनर को ठंडई के पुरवे में परोसते हैं। वो पारंपरिक ढंग से ठंडई बनाते हैं और पिलाते भी हैं। राजेश पाठक के साथ उनके परिवार में बांके, मुरली, सत्यनारण, लक्ष्मी, कमलेश की अलग-अलग दुकानें हैं, लेकिन सबका परिवार आज भी एक साथ गायघाट में रहता है। राजेश के बड़े भाई मुरली पाठक परिवार के पिलर हैं।
मिश्र पोखरा पर ठंडई के उस्ताद राजेश पाठक से मुलाकात हुई तो उन्होंने प्योर बनारसी ठंडई का न सिर्फ स्वाद चखाया, बल्कि यह भी बताया कि इस मौसम चैती गुलाब की ठंडई का स्वाद बेजोड़ होता है। गर्मियों में देसी बेला की ठंडई उसके सुरूर को बढ़ा देती है। चीकू, संतरा, आलू बुखारा, चित्तीदार केला की ठंडई का स्वाद तो सिर्फ खाटी बनारसियों को मालूम है। तरबूज, आम, खरबूजा, अनार, मकोय, अन्नास ही नहीं, राजेश फालसा की ठंडई भी बनाते हैं।
दीवानों की लंबी फेहरिश्त
ठंडई गुरू शंभूनाथ पाठक की ठंडई के दीवानों की फेहरिस्त काफी लंबी हुआ करती थी। तत्कालीन राज्यपाल चेन्ना रेड्डी रहे हों या फिर केंद्रीय मंत्री कर्ण सिंह। वो बनारस आते थे तो बनारसी पान का लुक्मा मुंह में दबाने से पहले शंभू के हाथ की बनी ठंडई जरूर पीते थे। रेड्डी साहब तो ठंडई का पूरा जग लेकर बैठ जाया करते थे। ठंडई बनाने की अनूठी कला विकसित करने की वजह से पंडित शंभूनाथ पाठक आज भी पूजे जाते हैं।
बनारस में लाल पेड़ा, लाल भरवा मिर्च, चिरईगांव का करौंदा, बनारस की शहनाई, तबला, म्यूरल पेंटिंग, मूंज क्राफ्ट के साथ ही बनारसी ठंडई को अब ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) का तमगा मिल गया है। बनारस शहर में हर प्रमुख चौराहों पर ठंडई की दुकानें मिलेंगी, लेकिन उसमें वो बात नहीं होती, जो ठंडई गुरू के परिवार के लोगों की दुकानों में बनती और बिकती है।
बनारस में आकर आप कहीं भी ठंडई पीने लग जाते हैं तो यह भरम कतई न पालिएगा कि वो प्योर है। ठंडई के नाम पर कोई मिश्राबु पिला देगा तो, कोई भांग-बूटी या कुछ और। अगर सचमुच फलों और फूलों की लजीज ठंडई पीनी हो तो मिश्र पोखरा आइए। ठंडई बनाने के उस्ताद राजेश पाठक ठंडई पिलाते ही नहीं, अपने दादा पंडित शंभूनाथ पाठक के उस हुनर की चर्चा भी करते हैं, जिसे दुनिया नहीं जानती। राजेश पाठक कहते हैं, “बनारसी ठंडई अगर प्योर है तो वह कफ व पित्त का विकार मिटाती है और पाचन क्रिया को स्मूथ बनाती है। शारीरिक-मानसिक ताकत देती है और वाणी की मधुरता भी बढ़ाती है।”
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)