बनारस में मोदी, गंगा का बेटा बनने का ‘दावा’ ठोंकते रहे और घाटों के लिए छतरियां बनाने की कला मर गई…?

बनारस में मोदी, गंगा का बेटा बनने का ‘दावा’ ठोंकते रहे और घाटों के लिए छतरियां बनाने की कला मर गई…?

विजय विनीत

(वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)

है न अजीब बात! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद को गंगा का बेटा होने का खम ठोंकते रहे और गंगा घाटों पर एक अनूठी कला की मौत हो गई…! ये थी बनारस के गंगा घाटों के लिए मुकुट बनीं छतरियां बनाने की कला। इस कला के फनकार सिर्फ बनारस में ही पैदा हुआ करते थे। छतरियां बनाने के हुनर को डबल इंजन की सरकार ने प्रोत्साहन ही नहीं दिया। नतीजा, काशी की संस्कृति की पहचान इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गई। इन छतरियों को बनाने वाले अब नहीं बचे हैं। इन छतरियों को धर्म और आस्था का पर्याय माना जाता था।

दरअसल, गंगा घाटों के लिए छतरियां बनाने वाले फनकारों के बच्चे इस हुनर जिंदा रखने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि सरकार ने उन्हें कभी कोई प्रोत्साहन दिया ही नहीं। यहां बताना लाजमी है कि गंगा घाटों की छतरियों पर अमेरिका और लंदन वाले भी रीझा करते थे। कई मर्तबा बनारस से ये छतरियां अमेरिका, लंदन, पेरिस, जापान,नेपाल समेत दुनिया के कई देशों में भेजी गईं। मुनाफा बिचौलियों ने लूटा और छतरियां बुनने वाले कलाकार जहां के तहां रह गए।

बनारस के गंगा घाटों पर छतरियां अभी भी लगती हैं, लेकिन वो छतरियां नकली और कपड़ों की बनी होती हैं, जो मामूली आंधी का एक झटका भी बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं। करीब एक दशक पहले तक बनारस में सिर्फ दो कारीगर ही बचे थे। छतरी बनाने वाले सबसे बुजुर्गवार कारीगर थे गोपाल और दूसरे गुलाब। रिश्ते में दोनों चाचा-भतीजा हुआ करते थे। वो बनारस के घौसाबाद में रहते थे। इनके हाथों में जादू था। पता नहीं वो किस हाल में हैं? लेकिन वो जब तक जिंदा थे, दोनों फनकार बनारस की सालों पुरानी संस्कृति को ढोते रहे।

एक दशक पहले हमारी गोपाल से मुलाकात हुई थी, तब वो पैर की पीड़ा से लाचार और कराहते में मिले थे। गोपाल ने हमें बताया था कि, ”छतरियों के लिए बांस काटने चोलापुर गए। बंसवारी में पैर टूट गया। बड़े अस्पतालों में इलाज कराने के लिए धन नहीं था, सो पैर बेकार हो गया।” तभी से वो डंडे के सहारे ही चल पाते थे। गोपाल की चार पीढ़ियां बनारस के गंगा घाटों के लिए छतरियां बनाते हुए मर-खप गईं, लेकिन किसी ने उनकी कोई खोज-खबर नहीं ली। नतीजा, फनकारों के बच्चे बनारस की इस नायाब विरासत को संभालने के लिए तैयार नहीं हुए।

घौसाबाद में बनारसी गंगा घाटों के लिए छतरी बनाने के सबसे बड़े महारथी थे शंभू, जिनका बड़ा बेटा हाबड़ा में है और छोटा दीवार पर पेंटिंग करता है। इन्हीं के चचेरे भाई थे गोपाल। वो कहा करते थे, ”छतरियां भले ही बनारस की शान हों, लेकिन उनसे मैं अपने बच्चों की ठीक से परवरिश नहीं कर सकता। प्रोत्साहन के नाम पर सरकार ने आज तक फूटी कौड़ी नहीं दी। इस कला को जीवित रखने के लिए सरकार को चिंता करनी चाहिए।” जिस वक्त हमारी गोपाल से मुलाकात हुई थी, उस समय उनका शरीर सूखकर कांटा हो गया था और चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई थीं। इसके बावजूद वो विरासत में मिली कला को जीते जी छोड़ना नहीं चाहते थे।

बनारसी छतरियां बनाने वाले कलाकारों के परिवार के लोग अपने पुरखों के हवाले के बताते हैं कि आजादी से पहले बीस आने में छतरियां बिकती थीं। बाद में दो से तीन हजार रुपये मिलने लगे। गंगा घाटों के लिए असली छतरियां हफ्ते-डेढ़ हफ्ते की कड़ी मेहनत के बाद बना करती थीं। इस समय छतरियों को बनवाने वाला कोई बचा ही नहीं है। गोपाल के बच्चे गाड़ियों की डेंटिंग-पेंटिंग का काम करते हैं और वो अपनी जिंदगी से संतुष्ट हैं।

काफी कुरेदने पर वो अपना नाम नहीं छापने की शर्त पर बेहद फक्र से कहते हैं कि, ”यह क्या कम है कि मरने के बाद लोग हमारे पुरखों को याद कर रहे हैं। हमारे घरों में बनी छतरियां देश-विदेश में जा चुकी हैं। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता ही नहीं, हरिद्वार में भी हमारी छतरियां लगा करती थीं। काशी की तरह ही हरिद्वार के पंडों में भी बनारसी छतरियों का जबर्दस्त क्रेज है।”

वाराणसी के होटल गेटवे, होटल डी पेरिस, क्लार्क आदि होटलों में भी ”मेड इन घौसाबाद” की छतरियां लगाई जाती थीं, लेकिन वक्त के साथ फनकार चले गए और वो कला भी मर गई। सितारा होटलों के संचालक बताते हैं कि विदेशी पर्यटक छतरियों की मुंहमागी कीमत देने को तैयार रहते थे, लेकिन बनारस के कलाकार उनसे सिर्फ अपनी मेहनत का ही पैसा लेते थे।”

बनारस के फनकार हाड़तोड़ मेहनत के  बाद वो महीने भर में सिर्फ दो-तीन छतरियां ही बना पाते थे। छतरी बनाने में उतनी मेहनत नहीं लगती थी, जितनी उसकी चटाई बुनने में लगती थी। गंगा घाटों पर पहले हर कोई शंभू, गोपाल और गुलाब का नाम जनता है। उनके बारे में पूछिए हर पंडा पुरोहित उनका नाम बता देगा, लेकिन अब वो भूली-बिसरी यादें बनकर रह गए हैं…।

सभी फोटोग्राफः विजय विनीत

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