इतिहास के हाशिये पर खड़ा एक नायकः बनारसी गुंडा नन्हकू सिंह ने इश्क़ और इज़्ज़त के लिए फिरंगियों से लड़कर जान दे दी !
16 अगस्त 1781 : जब बनारस की गलियों से उठी गुंडई और फिरंगियों की हुकूमत कांप गई
@विजय विनीत
बनारस कोई शहर नहीं है। बनारस एक क़िस्सा है जो हर सुबह गंगा की लहरों के साथ जागता है और हर शाम मणिकर्णिका की आग में तपकर और ज़्यादा सच्चा हो जाता है। यह रणबांकुरों का बनारस है, महाराजा बनारस का बनारस है। अपनी आन–बान–शान और वतन पर जान न्योछावर करने वालों का बनारस है। यह वह बनारस है जो दिल में उतरता तो है, मगर दिमाग़ की पकड़ में नहीं आता। इसे समझने के लिए क़ानून की धाराएं, सरकारी फ़ाइलें या आधुनिक नैरेटिव नाकाफ़ी हैं। बनारस को समझने के लिए उसकी रूह में उतरना पड़ता है और उस रूह की सबसे अनकही, सबसे ग़लत समझी गई परत है बनारस की गुंडई। बनारस के मशहूर गुंडा नन्हकू सिंह की गुंडई।
महान साहित्यकार जयशंकर प्रसाद ने जब अपने कहानी संग्रह इंद्रजाल में “गुंडा” कहानी लिखी थी, तो बनारस के गुंडों ने उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया था। यह घटना अपने–आप में बताती है कि बनारस का गुंडा सिर्फ़ बाहुबल का प्रतीक नहीं था, वह साहित्य, संवेदना और संस्कृति का भी पहरेदार था। वह जानता था कि कलम और क़लमदान भी उतने ही ताक़तवर होते हैं जितनी तलवार और गंड़ासा।
साल 1770 का ज़िक्र आते ही नन्हकू सिंह का नाम अपने आप ज़बान पर आ जाता है। वह दौर, जब अमर शहीद गुंडा नन्हकू सिंह से अंग्रेज़ी हुकूमत थर–थर कांपती थी। अंग्रेज कलेक्टर तक उनसे खौफ़ खाते थे और शहर का कोतवाल उनके सामने सिर झुकाकर चलता था। नन्हकू सिंह का कसरती सीना सिर्फ़ ताक़त की निशानी नहीं था, उसमें बनारस की अबलाओं और विधवाओं के लिए अपार ममता भरी थी। वह दालमंडी के कोठों पर नहीं जाते थे, फिर भी शहर भर की तवायफें उनके नाम पर आहें भरती थीं। अपने ज़माने की मशहूर और ख़ूबसूरत गायिका दुलारी तक उनके व्यक्तित्व पर फ़िदा थीं। मगर नन्हकू सिंह ने जीवन भर किसी तवायफ के कोठे की सीढ़ियां नहीं चढ़ीं।
गुंडा नन्हकू सिंह का इश्क
नन्हकू सिंह की ज़िंदगी में इश्क़ भी था और वही इश्क़ उनके भीतर विद्रोह की आग भी बन गया। उनकी प्रेमिका पन्ना देवी, जिनकी ख़ूबसूरती के क़िस्से आज भी बनारस की गलियों में तैरते हैं। बचपन की मुहब्बत को बनारस के राजा बलवंत सिंह ने ज़ोर-ज़बरदस्ती छीन लिया। पन्ना को शिवाला घाट स्थित क़िले में क़ैद कर दिया गया, फिर बलपूर्वक अपनी पत्नी बना लिया गया। पन्ना देवी राजमाता बन गईं। इसके बाद न पन्ना ने नन्हकू को देखा, न नन्हकू ने पन्ना को। पन्ना को बस इतना मालूम था कि नन्हकू अब बनारस के नामवर गुंडे और जुआरी कहलाते हैं। और नन्हकू? वह पन्ना को कभी नहीं भूल पाए। उनके सीने में विद्रोह की चिंगारी सुलगती रही, जो राजा बलवंत सिंह से मुक़ाबले के लिए सही वक़्त का इंतज़ार करती रही।
आज शिवाला मुहल्ले में खड़ा चेतसिंह क़िला उस इतिहास का ख़ामोश गवाह है। वही क़िला, जहां अंग्रेज़ी हुकूमत ने राजमाता पन्ना को नज़रबंद करके रखा था। आज उसकी दीवारें दरक रही हैं, ईंटें झर रही हैं। देख–रेख के अभाव में वह क़िला खंडहर में तब्दील होता जा रहा है। मगर इन दरकती दीवारों के बीच आज भी बनारस की गुंडई की गूंज सुनाई देती है। एक ऐसी गुंडई, जो हिंसा नहीं थी, बल्कि तहज़ीब थी; जो डर नहीं थी, बल्कि हिफ़ाज़त थी; जो अपराध नहीं थी, बल्कि प्रतिरोध थी।
बनारस की गुंडा परंपरा को अगर आज के दौर की आसान परिभाषाओं में बांधने की कोशिश करेंगे तो वह अधूरी और बेइंसाफ़ होगी। इसे समझने के लिए बनारस की मिट्टी में उतरना होगा, गंगा की धार में बहना होगा, घाटों की ख़ामोशी सुननी होगी और गलियों की सरगोशियों को महसूस करना होगा। बनारस का गुंडा कोई एक आदमी नहीं था। वह एक दौर था, एक तहज़ीब थी, एक सामाजिक ज़िम्मेदारी थी। और शायद इसी वजह से, तमाम बदलावों, सियासतों और साज़िशों के बावजूद, बनारस आज भी अपनी आत्मा के साथ खड़ा है-अडिग, अलमस्त और ज़िंदा।

फिरंगियों से टकराई काशी की आत्मा
बनारस की गलियों में इतिहास किताबों की तरह नहीं, किस्सों की तरह चलता है। यहां तारीख़ें पत्थरों पर नहीं, लोगों की ज़ुबान पर दर्ज होती हैं। 16 अगस्त 1781 भी ऐसी ही एक तारीख़ है, जब काशी सिर्फ़ शहर नहीं रही-वह प्रतिरोध बन गई। जब गुंडई अपराध नहीं, बल्कि इज़्ज़त, वफ़ादारी और हिफ़ाज़त का दूसरा नाम थी। और जब नन्हकू सिंह जैसे गुंडे इतिहास के हाशिये से निकलकर उसकी रीढ़ बन गए।
यह वही दौर था जब फिरंगी हुकूमत बनारस की रगों में उतर चुकी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने काशीराज पर हमला बोल दिया था। राजा चेत सिंह पर कर न देने और विद्रोह का इल्ज़ाम था। अंग्रेजी फौजें काशी में दाख़िल हो चुकी थीं। शिवाला घाट स्थित किले में अफ़रातफ़री थी। राजमाता पन्ना और उनके पुत्र राजा चेत सिंह को क़ैद कर लिया गया। घाटों पर लाशें गिरने लगीं। राजा के सिपाहियों को एक-एक कर काटा जा रहा था। गंगा की हवा में बारूद और ख़ून की मिली-जुली गंध थी।
इसी ख़बर ने चौक, मैदागिन और विश्वेश्वरगंज की गलियों में एक नाम को बेचैन कर दिया-नन्हकू सिंह। नन्हकू सिंह कोई दरबारी नहीं थे। न ही किसी राजघराने की पैदाइश। वे बनारस के गुंडे थे-पुराने अर्थों में गुंडा। वह गुंडा, जो कमज़ोर पर हाथ नहीं उठाता था। जो पीठ पीछे वार को कायरता समझता। जिसकी लाठी और गड़ासा सिर्फ़ ललकार के जवाब में उठते थे। और जिसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा उसूल था-हिफ़ाज़त।
नन्हकू सिंह को यह ख़बर मिली कि राजमाता पन्ना क़ैद हैं। वही पन्ना, जिनसे उनका इश्क़ था। वही पन्ना, जिनकी इज़्ज़त उनकी ज़िंदगी से बढ़कर थी। उसी पल नन्हकू सिंह ने कंधे पर गड़ासा रखा, कमर में तलवार कसी और निकल पड़े। यही वह गड़ासा था, जिसे कभी उन्होंने राजा बलवंत सिंह के सीने में उतारने के लिए संभाल कर रखा था-उस राजा के ख़िलाफ़, जिसने पन्ना का अपहरण कर उन्हें अपनी पत्नी बनाया था। इतिहास की विडंबना देखिए-आज वही नन्हकू सिंह उसी राजवंश की औरत और बेटे की हिफ़ाज़त के लिए जान देने जा रहे थे।
अंग्रेज़ों की मंशा साफ़ थी। राजा चेत सिंह और राजमाता पन्ना को गिरफ़्तार कर कलकत्ता भेजा जाए। काशी की रियासत को सबक सिखाया जाए। लेकिन उन्हें यह अंदाज़ा नहीं था कि बनारस की गलियों में एक शेर अभी ज़िंदा है।
नन्हकू सिंह सीधे चौक कोतवाली पहुंचे। कोतवाल हिम्मत सिंह को ललकारा। कहते हैं, जब कोतवाल ने थाने की खिड़की से झांका तो उसके चेहरे का रंग उड़ गया। नन्हकू सिंह की आँखों में आग थी, तलवार सूरज की तरह चमक रही थी। कोतवाल ने सिपाहियों को छोड़ा, मगर सिपाही तलवार देखते ही भागकर कोतवाली में घुस गए। फाटक बंद हो गया। बनारस की गुंडई के सामने अंग्रेज़ी कानून भी दुबक गया।
इसके बाद नन्हकू सिंह अपने साथी शिवनाथ सिंह और बहादुर सिंह को लेकर शिवाला घाट की तरफ़ बढ़े। किला चारों तरफ़ से फिरंगियों से घिरा था। घाट पर गोलियां चल रही थीं। तलवारें टकरा रही थीं। नन्हकू सिंह के साथी किले के फाटक पर अंग्रेज़ों से भिड़े रहे, ताकि ध्यान बंटा रहे। इसी बीच नन्हकू सिंह शिवालय की खिड़की से किले के भीतर दाख़िल हो गए।
अंदर का मंजर अफ़रातफ़री से भरा था। अंग्रेज़ अफ़सर चौंक गए। राजमाता पन्ना और राजा चेत सिंह को जैसे अपनी आंखों पर यक़ीन नहीं हुआ। गुस्से से तमतमाए नन्हकू सिंह ने बिना वक़्त गंवाए दोनों को नाव पर बैठाया। गंगा की धार में नाव उतरी और रामनगर किले की तरफ़ बढ़ चली। लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं होती।
लेफ्टिनेंट स्टाकर अपने सिपाहियों के साथ पीछा करता हुआ पहुंचा। उसने राजा चेत सिंह को पकड़ने की कोशिश की। तभी नन्हकू सिंह सामने आए। तलवार चली। एक ही वार में स्टाकर धराशायी हो गया। कहते हैं, राजा चेत सिंह ने अपनी आँखों से नन्हकू सिंह को तलवार भांजते देखा था-एक गुंडे को जो उस दिन इतिहास बन गया।
नाव रामनगर की ओर बढ़ चुकी थी। राजमाता सुरक्षित थीं। राजा चेत सिंह बच चुके थे। लेकिन काशी का यह शेर अब बुरी तरह ज़ख़्मी हो चुका था। फिरंगियों की गोलियां, तलवारों के वार-सब कुछ नन्हकू सिंह के जिस्म पर दर्ज था। मगर उनके मुंह से एक चीख तक नहीं निकली। वे वहीं शहीद हो गए-चुपचाप, मुस्कुराते हुए, अपनी मोहब्बत और वफ़ादारी की क़ीमत अदा करते हुए।
इस लड़ाई में उनके दो साथी शिवनाथ सिंह और बहादुर सिंह भी शहीद हुए। ये वही गुंडे थे, जो गिरे हुए दुश्मन पर वार नहीं करते थे। जो भीख मांगने वाले को छोड़ देते थे। जिनकी गुंडई में भी एक नैतिकता थी। उस वक़्त की लड़ाइयां आमने-सामने होती थीं। लाठी तनती थी, गड़ासा चलता था, मगर धोखा नहीं होता था।
लोकगीतों में गाए जाते हैं गुंडे
आज के मायने में ‘बदमाश’ तब का ‘गुंडा’ नहीं था। पुराने बनारसी आज भी कहते हैं,“ई बनारस हौ। हम ऊ जमाना देखले हई, जब लाठी-गड़ासा चलत रहल। एक बीड़ा पान पर दुश्मनी ख़त्म हो जात रहल। तब गुंडा समाज में पूजत जात रहल। बंदूक-पिस्तौल वाला नाही। गड़ासा-लाठी वाला गुंडा।”
बनारस शायद दुनिया का इकलौता शहर है जहां गुंडे लोकगीतों में गाए जाते हैं। जहां उनकी चौपालें, उनके चौरे, उनके किस्से ज़िंदा रहते हैं। नन्हकू सिंह का चौरा आज भी राजा चेत सिंह के किले के परिसर में मौजूद है। वहीं उन अंग्रेज़ अफ़सरों के मक़बरे भी हैं, जिन्हें नन्हकू सिंह ने मौत के घाट उतारा था। फिरंगियों को उसी किले के पास दफनाया गया, जहाँ उन्होंने काशी की अस्मिता को रौंदने की कोशिश की थी।
शिवाला घाट पर खड़ा राजा चेत सिंह का किला आज भी मौजूद है, मगर उसकी हालत जीर्ण है। दीवारें उखड़ रही हैं। कमरों में सन्नाटा नहीं, शोर है-जुआरियों का, मनचलों का। वही किला, जहां कभी इतिहास ने करवट ली थी, आज उपेक्षा का शिकार है। राजा चेत सिंह उसी पन्ना के बेटे थे, जिन्हें राजा बलवंत सिंह ने अगवा कर अपनी पत्नी बनाया था। इतिहास के ये सारे विरोधाभास इस किले की दीवारों में आज भी कैद हैं।
नन्हकू सिंह की कहानी कोई अकेली कहानी नहीं। बनारस के हर मोहल्ले में ऐसे गुंडों के क़िस्से बिखरे पड़े हैं जो सत्ता से नहीं, ज़मीर से चलते थे। जिनके लिए मोहब्बत, दोस्ती और इज़्ज़त जान से ऊपर थी।
तपस्या थी गुंडई
आज के दौर में “गुंडा” शब्द सुनते ही ज़हन में हिंसा, डर और अराजकता की सूरत उभर आती है। मगर बनारस का गुंडा इस तसव्वुर से कोसों दूर खड़ा मिलता है। बनारस का गुंडा फ़िल्मी खलनायक नहीं था, न ही वह क़ानून से भागने वाला अपराधी। बनारस का गुंडा एक संस्कार था, एक रिवायत थी, एक ऐसी तपस्या थी जो गलियों में जी जाती थी। वह अघोरी था, फ़क्कड़ था, अलमस्त था। वह मज़हब से बड़ा इंसान था और ताक़त से बड़ा विवेक। वह दृढ़ था, मगर निर्दयी नहीं; सख़्त था, मगर बेरहम नहीं। उसकी गुंडई डर पैदा करने के लिए नहीं थी, वह डर को रोकने की ज़िम्मेदारी थी।
बनारस का गुंडा किसी एक घर या एक जाति का नहीं होता था। उसकी कोई नस्ल नहीं थी, कोई मज़हब नहीं था। वह सिर्फ़ बनारस का होता था। वह बारिश की झड़ी में भी उतनी ही बेपरवाही से निकलता था जितनी पूस की कंपकंपाती रातों में। जेठ की कड़कती धूप हो या सावन की भीगी उदासी-ललका गमछा सिर पर बाँधे, कंधे पर चमकता गंड़ासा टांगे, वह गलियों में यूं चलता था जैसे पूरा शहर उसकी निगरानी में हो। उसकी मूंछ हर गली की ताव थी, हर मुहल्ले की पहचान। उसकी मौजूदगी से औरतों के दिलों में इत्मीनान उतरता था, ग़रीबों को सहारा मिलता था, और असहायों को हौसला।
उसकी गुंडई में विनम्रता की मिठास थी। वह बड़े–बूढ़ों के सामने सिर झुकाता था, उनके चरणस्पर्श में उसे फ़ख़्र महसूस होता था। बेटियों को वह लक्ष्मी और दुर्गा समझता था। उसकी इज़्ज़त किसी किताब में लिखे क़ानून से नहीं आती थी, बल्कि दिलों में दर्ज उस भरोसे से आती थी, जो बनारस के लोग उस पर करते थे। वह बहरी अलंग का दीवाना था, गंगा की रेत पर दंड पेलता था, मचलती धार में तैरता था। उसे नाट्यशास्त्र का इल्म था, संस्कृत के मंत्र उसकी ज़बान पर रहते थे। वह जानता था कि जब तक वह अपने मूल संस्कार में जिएगा, तब तक कोई ताक़त उसे झुका नहीं सकती।
मणिकर्णिका घाट पर खड़ा होता हूं, तो चिताओं की आग के साथ स्मृतियों की लपटें भी उठने लगती हैं। लगता है जैसे इसी घाट की आग में नन्हकू सिंह जले होंगे। भंगड़ भिक्षुक, दाताराम नागर, शिवनाथ सिंह, बहादुर सिंह, उमादत्त, बबुआ पांडे, हजारी गुरु-न जाने कितने बनारसी गुंडे यहीं पंचतत्व में विलीन हुए होंगे। बनारस की ख़ासियत यही है-यहां मौत भी आख़िरी सच नहीं होती। वे सब आज भी ज़िंदा हैं-क़िस्सों में, दास्तानों में, गलियों की सरगोशियों में।
आज जब गुंडई शब्द सुनते ही अपराध, भय और हिंसा का चेहरा उभरता है तब नन्हकू सिंह की कहानी हमें ठहरकर सोचने को मजबूर करती है। यह कहानी सिर्फ़ एक गुंडे की नहीं, बल्कि उस दौर की है जब समाज के हाशिये पर खड़े लोग भी इतिहास का रुख़ मोड़ दिया करते थे। नन्हकू सिंह न राजा थे, न सेनापति फिर भी उन्होंने काशी की अस्मिता, एक औरत की इज़्ज़त और अपने वचन की हिफ़ाज़त के लिए जान दे दी।
बनारस की मिट्टी आज भी ऐसे किस्सों को सांसों में ढोती है। घाटों की सीढ़ियां, गलियों की खामोशी और गंगा की लहरें आज भी फुसफुसाकर कहती हैं-यह शहर सिर्फ़ मंदिरों और मोक्ष का नहीं, बल्कि गुंडों की ग़ैरत और क़ुर्बानी का भी है।
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं)
