डेयरी से कमाएं मोटा मुनाफा

डेयरी से कमाएं मोटा मुनाफा

डेयरी को अपनाएं, हो जाएं मालामाल

विजय विनीत

पशुपालन के जरिये मुनाफा कमाना बेहद फायदेमंद है। ग्रामीण व्यवसाय में यह सबसे प्रचलित तरीका है। किसानों के पास विभिन्न फसलों से चारा आसानी से मिल जाने के कारण भारत में दुग्ध उत्पादन की लागत दुनिया में सबसे कम रहती है। सही प्रबंधन न होने के कारण किसानों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। घरेलू स्तर पर दुधारू पशु पालने वाले लोग आम तौर पर 10 से 15 पशु पालते हैं। भैंस की देखभाल कम करनी पड़ती है, लेकिन सालभर दूध देने के कारण गाय की उपयोगिता ज्यादा है। लघु डेयरी फार्म के लिए संकर नस्ल की गाय और भैंस का मिश्रित पालन करना लाभकारी है।

नस्ल: छोटे किसानों के लिए उनके क्षेत्र के अनुसार अच्छा दूध देने वाली देसी नस्ल की गाय उपयुक्त रहती हैं। इनमें साहीवाल (1400 से 2500 लीटर दूध प्रतिवर्ष), लाल सिंधी (1300- 2200 लीटर दूध प्रतिवर्ष), हरियाणा (1200-1500 लीटर दूध प्रतिवर्ष), गिर (1400-1900 लीटर दूध प्रतिवर्ष) तथा थारपारकर (1100-1900 लीटर दूध प्रतिवर्ष) नस्ल की गायें प्रमुख हैं।

जरूरी स्थान: आमतौर पर दूध न देने वाली बछिया के लिए 2.5 से 3 वर्ग मीटर और दूध देने वाली को 3.5 से 5 वर्ग मीटर जगह की आवश्यकता होती है। शेड हवादार होना चाहिए और बीच में गर्म हवा के निकलने के लिए जगह होनी चाहिए। कम जगह होने पर पशुओं के खाने के लिए नादें अलग बनाई जा सकती हैं। नाद की गहराई करीब 40 सेमी होनी चाहिए और नाद के दोनों कोने में पानी की व्यवस्था होनी चाहिए।

पशुओं में रोगों से बचाव

यदि प्रबंधन ठीक ढंग से किया जाए तो पशुओं के रोगों से दूध उत्पादन में आने वाली बाधा से बचा जा सकेगा। इसके अलावा रोगी पशु के इलाज के खर्च से भी निजात मिलेगी। सही देखभाल के अभाव में डेयरी पशुओं में थनैला रोग का काफी प्रकोप होता है।  थोड़ी सी सावधानी से थनैला रोग से पशुओं को बचाया जा सकता है। थनैला रोग के थन में खराब दूध आता है, जिसे बाकी दूध में मिलाने से सारा दूध खराब हो जाता है। इससे बचाव के लिए हमेशा दूध निकालने से पहले एक मग में पानी में पोटेशियम परमैग्नेट मिला लें और थनों को अच्छी तरह से घोल से साफ कर लें। इसके बाद दूध निकालें। गाय का दूध रोजाना पूरी तरह निकालना चाहिए। ऐसा न होने पर संक्रमण हो सकता है। दूध निकालने के बाद थनों को डिटाल  के पानी से साफ कर लें। इससे थन में संक्रमण की संभावना काफी कम हो जाती है। इसके अलावा समय पर पशुओं को टीके लगवाएं, जिससे खुरपका-मुंहपका और गलघोंटू जैसे रोगों की रोकथाम हो सके। पशुओं के शरीर पर चिपकने वाले पिस्सुओं और अन्य परजीवियों की रोकथाम सावधानी पूर्वक करना चाहिए।

कैसे करें शेड निर्माण

० सूखी और उचित तरीके से तैयार जमीन पर शेड का निर्माण किया जाए।

०जल जमाव, दलदली व भारी बारिश वाली जगह पर शेड का निर्माण न करें।

० दीवारें 1.5 से 2 से मीटर ऊंची और अच्छी तरह  पलस्तर होनी चाहिए।

० शेड को पर्याप्त रूप से हवादार होना चाहिए।

० फर्श को  पक्का/सख्त, समतल और ढलुआ होना चाहिए तथा जल निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि वह सूखा व साफ सुथरा रह सके।

० पशुओं के खड़े होने के स्थान के  पीछे 0.25 मीटर चौड़ाई होनी चाहिए। पत्येक पशु के खड़े होने के लिए 271.05 मीटर का स्थान आवश्यक है।

० पशुओं के खड़े होने के स्थान के पीछे 0.25 मीटर चौड़ी नाली होनी चाहिए।

० शेड की छत 3 से 4 मीटर ऊंची होनी चाहिए।

० नांद के लिए 1.05 मीटर की जगह होनी चाहिए। नांद की ऊंचाई 0.5 मीटर और गहराई 0.25 मीटर होनी चाहिए।

० नांद , नाली और दीवारों के कोनों को गोलाकार किया जाना चाहिए।

०प्रत्येक पशु के लिए 5 से 10 वर्गमीटर का आहार-स्थान होना चाहिए।

० गर्मियों में छायादार जगह और शीतल पेयजल उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

० प्रत्येक पशु के लिए हर रोज बिछावन उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

० जाड़े के मौसम पशुओं को रात्रिकाल और बारिश  के दौरान अंदर रखा जाना चाहिए।

० शेड के आसपास स्वच्छता रखी जानी चाहिए।

० दड़बों और शेड में मैलाथियान अथवा कापर सल्फेट के घोल का छिड़काव कर बाहरी परजीवियों, जैसे चिचड़ी, मक्खियों, आदि को नियंत्रित किया जाना चाहिए।

० पशुओं के मूत्र को बहाकर गड्ढे में एकत्र किया जाना चाहिए और तत्पश्चात उसे नालियों/नहरों के माध्यम से खेत में ले जाना चाहिए।

० गोबर और पूत्र का उपयोग अचित तरीके से किया जाना चाहिए।

० गोबर गैस संयंत्र की स्थापना आदर्श उपाय है। जहां गोबर गैस संयंत्र स्थापित न किए गए हों, वहां गोबर को पशुओं के बिछावन एवं अन्य अवशिष्ट पदार्थों के साथ मिलाकर कम्पोस्ट तैयार किया जाना चाहिए।

आहार

० सर्वोत्तम आहार एवं चारा खिलाना चाहिए।

० नियमित रूप में पर्याप्त हरा चारा दिया जाना चाहिए।

० संभव हो तो स्वयं की उपलब्ध जमीन पर ही हरा चारा उगाना चाहिए।

चयन में बरतें सावधानियां

० स्वस्थ एवं ज्यादा दूध देने वाले पशुओं का चयन किया जाना चाहिए।

० हाल ही में बछड़ा ब्याने वाली गाय-भैंसों की खरीद की जानी चाहिए (दूसरे/तीसरे ब्यान वाली)।

० खरीद से पहले उन्हें लगातार तीन बार दुहकर दूध की वास्तविक मात्रा का पता लगाया जाना चाहिए।

० नए खरीदे गए पशुओं की पहचान के लिए उनपर निशान लगाया जाना चाहिए।

० नए खरीदे गए पशुओं का मुआयना लगभग दो हफ्तों तक अलग से किया जाना चाहिए।

० तत्पश्चात उन्हे मवेशियों  के सामान्य झुंड में शामिल किया जाना चाहिए।

० कम से कम दो दुधारू पशुओं की खरीद की जानी चाहिए।

० पहली खरीद के 5 से 6 माह बाद दूसरे पशु की खरीद की जानी चाहिए।

० चूंकि भैंसों का ब्यान मौसमी होता है। अत: उनकी खरीद जुलाई से फरवरी के दौरान की जानी चाहिए।

० जहां तक संभव हो दूसरे पशु की खरीद तब की जानी चाहिए, जब पहले पशु के दूध देने का समय खत्म होने वाला हो ताकि दूध के उत्पादन एवं आय-अर्जन में निरंतरता बनी रहे।

० 6 या 7 ब्यान के  बाद पुराने पशुओं की छंटनी कर देनी चाहिए।

रोगों से बचाव पर खास दें ध्यान

० कम खुराक, बुखार, असामान्य स्त्राव अथवा असामान्य बर्ताव पशुओं की बीमारी के लक्षण हैं। इन लक्षणों के प्रकट होते ही सतर्क हो जाना चाहिए।

० यदि रोग की आशंका हो तो सहायता हेतु निकटतम पशु-चिकित्सा केन्द्र से सम्पर्क करना चाहिए।

० संक्रामक रोग का प्रकोप होने पर बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग कर देना चाहिए और रोगों का परीक्षण समय-समय पर करवाया जाना चाहिए।

० पशुओं को नियमित रूप से कृमि मुक्त किया जाना चाहिए।

० आंतरिक परजीवियों का पता लगाने के लिए वयस्क पशुओं के गोबर की जांच कराई जानी चाहिए और उचित दवाओं/औषधियों से पशुओं का उपचार किया जाना चाहिए।

० ब्रूसेलोसिस, टी.बी, जॉन्स डिजीज, थनैला आदि रोगों का परीक्षण समय-समय पर करवाना चाहिए।

० साफ सफाई एवं स्वच्छता का निर्वाह करने के लिए समय-समय पर पशुओं को धोय/नहलाया जाना चाहिए।

उच्चकोटि का हो चारा प्रबंधन

० मोटे चारे को खिलाने से पहले उसे भूसी/कुट्टी के रूप में काटा जाना चाहिए।

० अनाज और दाने को दल लेना चाहिए।

० खली को पपड़ीदार और भुरभुरा होना चाहिए।

० दाने के मिश्रण को खिलाने से  पहले गीला कर लेना चाहिए।

० पर्याप्त मात्रा में विटामिन और खनिज तत्व देना चाहिए।

० दाने में खनिज तत्व के मिश्रण के अलावा थोड़ा नमक भी दिया जाना चाहिए।

० पर्याप्त मात्रा में साफ पानी पिलाया जाना चाहिए।

० पशुओं का व्यायाम अवश्य होना चाहिए। भैंसों को रोज पानी में लोटने के लिए बाहर ले जाना चाहिए।

० यदि संभव न हो तो उनपर पर्याप्त मात्रा में पानी छिड़कना चाहिए, विशेष रूप से गर्मी के महीनों में।

दुहाई में रखें सावधानी

० दिन में दो से तीन बार निश्चित समय पर किया जाना चाहिए।

० आठ मिनट के भीतर दूध दुहने का कार्य संपन्न कर लेना चाहिए।

० एक ही व्यक्ति द्वारा नियमिन रूप से दूध दुहा जाना चाहिए।

० बीमार गायों/भैंसों को सबसे अंत में दुहा जाना चाहिए ताकि संक्रमण को फैलने से रोका जा सके।

प्रजनन संबंधी देखभाल

पशु पर नजदीकी नजर रखी जानी चाहिए। उसके मदकाल में आने ,मदकाल की अवधि, गर्भाधान, गर्भधारण और ब्याने का रिकार्ड रखा जाना चाहिए।

गर्भाधान के दौरान देखभाल

० पशुओं का गर्भाधान समय पर कराया जाना चाहिए।

० ब्याने के 60 से 80 दिनों के भीतर उद्दीपन/मदकाल आरंभ हो जाता है।

०पशुओं का गर्भाशय तब कराया जाना चाहिए। जब वे मदकाल/उद्दीपन के चरम पर हों।

० उच्चस्तरीय वीर्य का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, विशेषकर अच्छे और तन्दुरूस्त सांडो के प्रशीतित वीर्य को तरजीह देनी चाहिए।

० ब्याने से दो माह पूर्व गाभिन गायों पर विशेष ध्यान देना चाहिए और उन्हें पर्याप्त स्थान, आहार, जल आदि मुहैया कराया जाना चाहिए।

दूध का विपणन

दूध निकालने के तुरंत बाद उसे बेचा जाना चाहिए। दुग्ध उत्पादन और विपणन के बीच कम से कम अंतर रखा जाना चाहिए।

० साफ-सुथरे बर्तनों का प्रयोग किया जाना चाहिए। दूध के रख-रखाव में विशेष स्वच्छता रखी जानी चाहिए।

० दूध की बाल्टी/डब्बों, बर्तनों को डिटर्जेन्ट से अच्छी तरह धेना चाहिए और अंत में इन्हें क्लोराइड के घोल से खंगालना चाहिए।

० परिवहन के दौरान दूध को बहुत ज्यादा हिलने डुलने से बचाना चाहिए।

० दूध का परिवहन दिन के अपेक्षाकृत ठंडे समय में किया जाना चाहिए।

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