शब्दों के तीर्थ में सन्नाटा, मंचों के पुजारी कमलनयन मधुकर नहीं रहे..!!

बनारस की उस आवाज़ की विदाई हो गई, जो बनारस की आत्मा थी…!
✍ विजय विनीत
काशी की हवाओं में अब एक ऐसी उदासी पसरी है, जो शब्दों से नहीं, केवल मौन से व्यक्त हो सकती है, जैसे तुलसीघाट की आरती एक क्षण के लिए रुक गई हो, जैसे कोई पुराना दोहा अधूरा छूट गया हो, जैसे बनारस की आत्मा ने चुपचाप अपने ही भीतर एक दीपक बुझा दिया हो। हां, बनारस ने अपना कवि, अपना रचनाकार, और पत्रकारिता का अपना विवेकपूर्ण प्रहरी खो दिया है—कमलनयन मधुकर अब नहीं रहे।

मधुकर जी, बनारस के अर्दलीबाजार में रहते थे—वहीं जहां से साड़ी की दुकानों की रौनक, नुक्कड़ की चाय और शाम को होने वाली ठेठ बनारसी बहसों की गूंज निकलती है। 6 अप्रैल 2025 की रात सर सुंदरलाल चिकित्सालय (बीएचयू) की दीवारों ने वो अंतिम सांस सुनी, जो वर्षों तक मंचों पर गूंजती रही, शब्दों में बहती रही, और संवेदना की सबसे महीन तानों में बुनी जाती रही।

बनारस उनके भीतर बहता था
कमलनयन मधुकर केवल एक नाम नहीं था। वे बनारस की आत्मा के शिल्पकार थे। एक ऐसी आत्मा जो गंगा के जल से शुद्ध थी, पान की लाली से सुशोभित थी, और अस्सी की सुबह से ऊर्जावान थी। उनकी कविता में बनारसी मिज़ाज झलकता था—वो मस्ती जो संकटमोचन की भीड़ में भी विनम्र रहती है, वो ठहराव जो दशाश्वमेध की आरती में मिलता है, और वो मिठास जो गीले पान की पहली चबायी में महसूस होती है।
गंगा उनके लिए नदी नहीं, माँ थीं—शब्दों की भी, संस्कारों की भी। उनके हर लेख में गंगा का प्रवाह मिलता था—कभी चंचल, कभी गंभीर, पर हर बार निर्मल और सच्चा। वे घाटों के श्रोता भी थे और वक्ता भी—जैसे हर सुबह किसी साधु की आंखों में भोर देखते हों और हर शाम किसी मल्लाह की पीठ पर ढलता सूरज।

बनारसियत उनकी आत्मा थी
वे जब मंच पर होते थे, तो ऐसा लगता था जैसे बनारस खुद बोल रहा है। उनकी बोली में पक्के महाल की गली थी, और लहजे में चौक की चिकनाहट। उनकी आत्मीयता में कचौड़ी-तरकारी की सोंधी महक होती थी और संवाद में विश्वनाथ गली की गहराई। वे बनारस को केवल जीते नहीं थे, बनारस उन्हें जीता था।
और पान! — उस पर तो मधुकर जी की एक अलग ही दीवानगी थी। उनके होंठों की कोर पर अक्सर एक सुर्ख मुस्कान तैरती थी, जो न केवल पान से, बल्कि बनारसीपन से रंगी होती थी। मंच पर जाने से पहले भी ‘एक मीठा पत्ता’ उनका रिवाज था—जैसे हर बात से पहले एक रस का प्रारंभ।

लेखनी और मंच : उनके दो घाट
पत्रकारिता उनके लिए महज़ पेशा नहीं, जनचेतना का दायित्व थी। वे जब लिखते थे तो कलम नहीं, आत्मा बोलती थी। जब मंच संचालन करते, तो शब्द नहीं, संस्कृति प्रवाहित होती थी। उनकी वाणी में काशी की परंपरा और समकालीन चेतना का संगम होता था। उनके व्यंग्य में कटाक्ष नहीं, करुणा होती थी, और उनकी मुस्कान में ठहराव नहीं, संवाद होता था।
काशी पत्रकार संघ के उपाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने जो गरिमा पत्रकारिता को दी, वह किसी पद के आभूषण से बड़ी थी। वे उन दुर्लभ व्यक्तित्वों में थे, जिनमें न कोई शोर था, न कोई प्रदर्शन—बस एक निरंतर साधना थी।

एक युग की विदाई
हाल के वर्षों में वे हृदय संबंधी व्याधियों से जूझ रहे थे। एक सप्ताह पहले न्यूरोलॉजिकल जटिलता के कारण बीएचयू के वरिष्ठ न्यूरोलॉजिस्ट प्रो. वी.एन. मिश्रा के संपर्क में भी आए, पर नियति के पास कोई और योजना थी। जब 7 अप्रैल की सुबह यह समाचार फैला, तो पूरा शहर जैसे एक साथ ठहर गया। अखबारों के शब्द कांपने लगे, घाटों की सीढ़ियाँ नम हो गईं, और मंचों की माइक भी मौन हो गई।
अर्दलीबाजार स्थित उनके निवास पर एक मौन यात्रा शुरू हुई—साहित्यकार, पत्रकार, छात्र, शुभचिंतक… हर कोई एक-एक करके उस मौन से गुजरता रहा, जो कमलनयन जी के ना होने की व्याख्या कर रहा था। अपराह्न 3:30 बजे जब उनकी शवयात्रा हरिश्चंद्र घाट की ओर चली, तो वह कोई शवयात्रा नहीं, एक युग की विदाई थी। और 5 बजे जब गंगा किनारे उनकी चिता प्रज्वलित हुई, तब उस अग्नि में केवल एक शरीर नहीं जला—बनारस की संस्कृति की एक चेतना, एक आत्मा, एक आवाज़ उस अग्नि में विलीन हो गई।

स्मृतियां बनारस की तरह शाश्वत हैं
अब कोई नहीं कहेगा मंच से उस आत्मीय मुस्कराहट के साथ—”मित्रों…”
अब कोई नहीं होगा जो श्रोताओं की नब्ज़ समझकर उन्हें शब्दों के हवाले कर दे।
अब मंच पर रोशनी होगी, लेकिन वह आत्मा नहीं होगी जो शब्दों को रौशन कर देती थी।
कमलनयन मधुकर जी,
काश आपसे एक बार और मिल पाते,
काश आपकी कोई अधूरी कविता हम पूरी कर पाते,
काश आपके शब्दों की गूंज और थोड़ा ठहर पाती…
आप चले गए, पर बनारस में रह गए—
घाटों की सीढ़ियों पर,
गंगा की लहरों में,
मीठे पान की मिठास में,
और हमारी स्मृतियों में।
आपको श्रद्धा के पुष्प अर्पित करता हूं।
— विजय विनीत
