जर्नलिज्म AI : आंख नहीं, एक धड़कता हुआ दिल है-जहां सूचना नहीं, स्पंदन है पत्रकारिता की भाषा

विजय विनीत की पुस्तक में झलकता है पत्रकारिता का वह चेहरा जो न डिजिटल, न यांत्रिक बल्कि ये है एक संवेदनशील, जीवंत और भावनात्मक अभिव्यक्ति
समीक्षा सिंह राजपूत
पत्रकारिता केवल शब्दों की बाज़ीगरी नहीं है, यह वह पुल है जो दर्द और दरबार के बीच बना है। यह वह आईना है जिसमें समाज न केवल अपना चेहरा देखता है, बल्कि उसमें छुपे ज़ख्म भी दिखते हैं। पत्रकारिता वह ताप है जो अंधेरे में जलती है और उम्मीद का एक दिया बनती है। जब यही पत्रकारिता कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आगोश में आती है तो स्वाभाविक रूप से एक बेचैनी के साथ कई सवालों को भी जन्म देती है कि क्या संवेदना मशीनों से निकल सकती है? क्या एक कंप्यूटर पीड़ित की आंखों में छलकते आंसुओं का ताप महसूस कर सकता है? क्या मशीनें समाज की सिसकियों को सुन सकती हैं या वे सिर्फ डाटा एन्ट्री के शोर में गुम हो जाती हैं?
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत की पुस्तक “जर्नलिज्म AI” इन सवालों के जवाब में खड़ी होती है, एक प्रतिरोध की तरह नहीं, एक प्रस्ताव की तरह। एक पुकार की तरह जो आत्मा से निकली है और कहती है कि तकनीक को सिर्फ आंख मत बनाओ-दिल बनाओ। वह सिर्फ कैमरा न रहे, वह एक संवेदनशील आंख बन जाए; वह सिर्फ रिकॉर्डर न बने। वह एक सुनने वाला हृदय बन जाए। यह किताब तकनीक और संवेदना के संगम की एक जीवंत मिसाल है, जहां पत्रकारिता महज़ पेशा नहीं, एक प्रयाण बन जाती है।

मिट्टी से उगता हुआ अनुभव
विजय विनीत का लेखन सिर्फ सूचनाओं का संकलन नहीं है। यह उनकी ज़िंदगी के उस अनुभव का सार है जो उन्होंने गांवों की धूल फांकते, घाटों की नमी में भीगते और शहरों की गहमागहमी में सच की तलाश करते हुए अर्जित किया है। उन्होंने पत्रकारिता को दूर से नहीं, भीतर से जिया है। उन्होंने खबरों को टेबल पर बैठकर नहीं, ज़मीन पर चलते हुए लिखा है। यही कारण है कि “जर्नलिज्म AI” किताब नहीं, एक जीवंत अनुभव बन जाती है। ऐसा अनुभव जो पढ़ने वाले को सोचने और महसूस करने पर विवश करता है।
चंदौली जैसे छोटे जनपद से उठकर बनारस, लखनऊ, बरेली, मेरठ, दिल्ली और फिर अमेरिका तक का उनका सफर, उनकी दृष्टि को वैश्विक बनाता है। उस वैश्विक दृष्टिकोण में गांवों की की सोधी माटी की गंध है और घाटों की गूंजती हुई करुणा है। विजय विनीत जब AI की बात करते हैं तो वह मशीनों की सूचना भर नहीं होती। वो मानवीयता की संभावना की बात भी करते हैं।
तकनीक और संवेदना का संगम
इस पुस्तक में AI केवल एक तकनीकी उपकरण नहीं, एक संवाद माध्यम बन जाता है। जब विनीत लिखते हैं, “जब तुम किसी पीड़ित की आवाज़ रिकॉर्ड कर रहे हो तो रिकॉर्डर मत बनो, इंसान बनो।” यह वाक्य तकनीक के पिंजरे में फंसी पत्रकारिता को आज़ादी देता है। इसमें एक चेतावनी भी छुपी है और एक संभावना भी। चेतावनी यह कि अगर पत्रकार सिर्फ मशीन बनकर काम करेगा तो वह समाज से कट जाएगा और संभावना यह कि अगर वह मशीन के साथ इंसान बना रहा तो तकनीक भी संवेदनशील हो जाएगी।
“जर्नलिज्म AI” बताती है कि पत्रकारिता के लिए आपको बड़े न्यूज़ रूम की ज़रूरत नहीं है। आपको चाहिए सिर्फ एक मोबाइल, तेज दिमाग और जुनून। पत्रकारिता को अब सिर्फ संपादकीय डेस्क की नहीं, ज़मीन की ज़रूरत है जहां मुद्दे जन्म लेते हैं। पत्रकारिता की ऐसी जमीन जहां लोग जीते हैं, रोते हैं, लड़ते हैं और टूटते हैं।
AI को लेकर हमारे समाज में जो आशंकाएं हैं यह पुस्तक उन्हें खारिज नहीं करती, बल्कि उन्हें समझती है और एक मानवीय विकल्प प्रस्तुत करती है। विजय विनीत स्वीकार करते हैं कि AI में भावना नहीं होती। वह भावना का वाहन बन सकता है, अगर चलाने वाला पत्रकार संवेदनशील हो। यही पुस्तक का सार है और यही जर्नलिज्म एआई की सबसे बड़ी ताक़त है।
विजय विनीत पत्रकारिता को एक दर्शन मानते हैं और इस दर्शन में AI भी एक पात्र है। उनकी पुस्तक पात्र प्रधान नहीं, सहयोगी है। उनकी पत्रकारिता की आत्मा मानवता है और तकनीक उसका विस्तार। जब लेखक यह लिखते हैं, “जब तुम डाटा एनालिसिस कर रहे हो तो उसमें दर्द के आंकड़े पढ़ो।” “जर्नलिज्म AI” एक अपील करती की नए जमाने के पत्रकर सूचनाओं में भी संवेदना खोजें, ग्राफ़ में गिरते चेहरे देखें और रिपोर्ट में रोते-विलखते ग्रामीणों की आवाज़ भी सुनें।
“जर्नलिज्म AI” विशेष रूप से युवा पत्रकारों के लिए एक मार्गदर्शिका की तरह सामने आती है। वह पीढ़ी जो मोबाइल हाथ में लेकर भी असमंजस में है कि पत्रकारिता कैसे करें। उनके लिए यह एक आश्वासन है कि तुम्हारे पास जो है वह काफी है, अगर तुम्हारे अंदर जुनून है। यह किताब कोई ‘how to’ गाइड नहीं है, यह एक ‘why’ का जवाब है। अगर आप सिर्फ स्टूडियो की चमक के लिए आए हो तो शायद यह किताब आपके लिए नहीं है। आप अगर किसी पीड़ित की आवाज़ बनने आए हो और किसी ग़रीब की आंखों का सपना बनना चाहते हो तो यह किताब एक पवित्र ग्रंथ बन सकती है।

ज़मीर के साथ ज़माना
विजय विनीत की भाषा में कोई बनावटीपन नहीं है। उनकी शैली आत्मीय है-जैसे कोई बुजुर्ग आपको चुपचाप जीवन का एक बड़ा पाठ पढ़ा रहा हो। इसमें न कोई दावा है, न कोई प्रचार-बस एक सच्ची पुकार है। “जर्नलिज्म AI” को पढ़ते हुए बार-बार यह महसूस होता है कि आप किसी किताब को नहीं, किसी अनुभवी रिपोर्टर की आत्मा को पढ़ रहे हैं। वह आत्मा जो गांव की खामोशी को जानती है। शहर की चकाचौंध को पहचानती है और दोनों को जोड़ने की ताक़त रखती है।
AI को लेकर समाज में एक भय है कि क्या इंसान गायब हो जाएगा? लेकिन यह किताब इस भय को पलट देती है। यह कहती है कि इंसान तभी गायब होगा जब वह खुद को मशीन बनने देगा। अगर वह तकनीक को अपने दिल की आवाज़ से संचालित करेगा, तो वह कभी भी मशीन नहीं बनेगा, बल्कि मशीन को इनसान बना देगा।
“जर्नलिज्म AI” को पढ़ना एक यात्रा है, जो हमें न्यूज़रूम से निकालकर दिल के कमरे तक ले जाती है। यह हमें सिखाती है कि पत्रकारिता केवल सूचना नहीं, अनुभूति है। यह वह कला है जिसमें शब्द नहीं, संवेदना बोलती है। विजय विनीत ने एक पत्रकार के रूप में जो महसूस किया है उसे उन्होंने अपनी पुस्तक में पाठकों के दिल में उकेरा है। यही इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता है।

“जर्नलिज्म AI” पढ़ने के बाद कोई भी पत्रकार अपने पेशे को फिर से प्रेम करने लगेगा और शायद कुछ युवा पहली बार इसे समझ पाएंगे। कुल मिलाकर विजय विनीत की किताब सिर्फ किताब नहीं एक अनुभव है। यह एक चेतावनी भी है और एक संभावना भी। यह वह आवाज़ है जो कहती है कि अगर तुम्हारा कैमरा जाग रहा है तो तुम्हारा ज़मीर भी जागना चाहिए।
यही विजय विनीत की पत्रकारिता की परिभाषा है और यही उनकी इस पुस्तक की आत्मा है। इस आत्मा की गूंज हम सबको सुननी चाहिए, क्योंकि पत्रकारिता अब भी ज़िंदा है और अगर वह ज़िंदा है तो शायद समाज का ज़मीर भी अब तक मरा नहीं..और वो जमीर-जुनून हमेशा जिंदा रहेगा…!!
(समीक्षा सिंह राजपूत नवोदित पत्रकार हैं और साहित्य व पत्रकारिता में गहरी दिलचस्पी है)