रेशमी धागों में लिपटी दुआएं… और एक नाम—अमरेश

रेशमी धागों में लिपटी दुआएं… और एक नाम—अमरेश

– विजय विनीत

वाराणसी की पुरानी हवाओं में घुली रामनगर की गलियां जब सुबह की किरणों से रौशन होती हैं, तो लगता है मानो रेशमी धागों पर कोई सपना उग रहा हो। ऐसी ही एक दोपहर, उत्तर प्रदेश इंडस्ट्रियल कोऑपरेटिव एसोसिएशन लिमिटेड (UPICA) के सभापति अमरेश कुशवाहा जी से उनके रामनगर स्थित निवास पर आत्मीय भेंट हुई। यह मात्र एक मुलाकात नहीं थी, यह संवाद था, बनारसी मिट्टी, रेशम के ताने-बाने और सहकार के एक नवप्रभात से जुड़ा संवाद।

रामनगर में जैसे ही मैं उनके निवास पहुंचा, आत्मीय मुस्कान से भरे उनके स्वागत ने पहली ही झलक में यह जता दिया कि सादगी और संकल्प जब किसी व्यक्तित्व में उतरते हैं, तो वह जनसरोकार की भाषा बोलने लगता है। उनके शब्दों में विनम्रता थी, किंतु दृष्टि में भविष्यद्रष्टा की स्पष्टता। यही वे अमरेश कुशवाहा हैं जिन्होंने बिना किसी आडंबर के, एक लम्बा यात्रा-पथ तय कर, यूपिका के अध्यक्ष पद तक का सफर पूरा किया  और वह भी ऐसे समय जब पच्चीस वर्षों बाद इस बोर्ड का पुनर्गठन हुआ। उनकी यह निर्विरोध जीत न केवल बनारस की मिट्टी की विजय थी, बल्कि उन बुनकरों की चुपचाप गूंजती जीत थी, जो वर्षों से अपने हुनर को बिना किसी मंच के बुनते आए हैं।

संवाद के दौरान उनकी बातों में बार-बार “बुनकर” शब्द लौटता रहा,  कभी यह संकल्प की तरह प्रतीत हुआ, कभी संवेदना से भरा हुआ और कभी एक पिता के गर्व की तरह, जब उन्होंने अपनी पुत्री अंगिका कुशवाहा का उल्लेख किया। GIS समिट में लगे उस स्टॉल की चर्चा करते हुए उनकी आंखों में जो संतोष झलक रहा था, वह केवल एक प्रदर्शन का नहीं, बल्कि उस क्षण का था जब अंगिका ने न केवल बनारसी साड़ी को मंच दिया, बल्कि अमित शाह जैसे नीति-निर्माताओं को भी उसकी सांस्कृतिक गहराइयों से रूबरू कराया।

रामनगर में उनका निवास अब केवल घर नहीं, एक विचार प्रयोगशाला है, जहां ‘अंगिका हथकरघा विकास उद्योग सहकारी समिति’ जैसे उपक्रम आकार लेते हैं। वहां के हथकरघों पर जब एक-एक धागा जुड़ता है, तो उसमें केवल रंग नहीं, बल्कि इतिहास, संघर्ष और अनकही उम्मीदें भी बुनी जाती हैं। हर बुनकर की हथेली से निकलती एक-एक साड़ी मानो रामनगर के आत्मबल की चुप किंतु गरिमामयी घोषणा होती है।

जब G-20 बैठक और इन्वेस्टर समिट की चर्चा हुई, तो यह स्पष्ट हो गया कि अमरेश जी की दृष्टि सिर्फ स्थानीय नहीं, वैश्विक है। उनकी योजनाएं — अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बनारसी साड़ी को प्रतिष्ठा दिलाना, बहुराष्ट्रीय कंपनियों से साझेदारी के करार करना  और बुनकरों को उच्च पारिश्रमिक दिलाना, ये महज़ आर्थिक उपक्रम नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन हैं, जिसकी जड़ें इसी रामनगर में हैं।

अमरेश जी की दृष्टि में कहीं गांधी का ग्रामस्वराज प्रतिबिंबित होता है, तो कहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय का गहरा संकेत। पर इन सबके परे, वे बनारस के उस बेटे की तरह प्रतीत होते हैं जो जानता है, साड़ी केवल परिधान नहीं, बल्कि आत्मा है रामनगर की… और बुनकर उस आत्मा के श्रद्धेय उपासक।

भेंट के अंतिम क्षणों में, जब मैं विदा ले रहा था, तो उनकी एक पंक्ति मेरे मन में ठहर गई, “साड़ी सिर्फ परिधान नहीं, आत्मा होती है इस रामनगर की… और बुनकर इस आत्मा के पुजारी।”

उस दिन, रामनगर से मैं लौटा एक नए संकल्प के साथ,  उन हाथों की आवाज़ बनने, जो अक्सर चुप रह जाते हैं…।

(एक आत्मीय मुलाकात के बाद)

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