सैयारा : कोरियाई आत्मा की देसी देह में इश्क़ का भरम-न दिल, न एहसास, बस आत्माहीन कथा की सजी-संवरी परछाईं…!!

रेटिंग: ⭐⭐☆☆☆ (2/5)
टैगलाइन : “जब शरीर बोले, लेकिन आत्मा चुप हो जाए तो सिनेमा केवल दृश्य होता है और कोई भी दृश्य दृष्टि नहीं देता है।”
@ विजय विनीत
सिनेमा जब एक देश की सांस्कृतिक धड़कनों से निकलकर दूसरे देश की आत्मा में उतरता है, तब वह केवल दृश्यात्मक परिवर्तन नहीं लाता। वह संवेदनाओं, मूल्यों और सामाजिक ताने-बाने से संवाद करता है। जब यह संवाद सतह से ऊपर उठने के बजाय वहीं ठहर जाए तब वह केवल अनुवाद नहीं, एक गहरा सांस्कृतिक विच्छेदन बन जाता है। ‘सैयारा’ इसी विच्छेदन का एक भावुक लेकिन भटका हुआ उदाहरण है। इसे हम “एक कोरियाई आत्मा की भारतीय देह-बिना स्पंदन, बिना गहराई” कह सकते हैं। सैयारा यानि मुसाफिर में रूप है, रंग है, लेकिन आत्मा अनुपस्थित है।
सैयारा फ़िल्म कोरियाई क्लासिक A Moment to Remember से कथा का आधार लेती है। लेकिन वह गहराई, स्मृति और उस सामाजिक तानाबाना को नहीं पकड़ पाती, जिसने कोरियाई मूल को एक वैश्विक अनुभव बना दिया था। A Moment to Remember में सामाजिक संबंधों की जटिलता, स्मृति-विलय की त्रासदी और प्रेम की अंतर्दृष्टि को जिस संजीदगी से उकेरा गया था। वही संजीदगी ‘सैयारा’ में केवल एक सतही प्रस्तुतिकरण बनकर रह जाती है। इस फिल्म के देखने के बाद एहसास होता है कि इसकी प्रस्तुति भारतीय प्रतीकों में सजी है, लेकिन अंदर पूरी तरह खोखली है।
‘सैयारा’ साधारण प्रेमकहानी है। दूसरी प्रेम कहानियों की तरह यह अधूरे प्रेम की वह दास्तान है जो नाम, रिश्ते या परिणति से परे होकर सिर्फ़ एक एहसास की तरह ज़िंदा रहती है। निर्देशक मोहित सूरी ने इसे भावुक स्पर्श देने की कोशिश की है। फिल्म की आत्मा हैं कृष कपूर (अहान पांडे) और वाणी बत्रा (अनीत पड्डा) दो टूटे हुए किरदार, जो एक-दूसरे की राख में जीवन की आग तलाशते हैं।
सूनी और आत्माहीन कथा
कृष एक एकाकी संगीतकार है जिसकी धुनों में किसी अधूरे इंतज़ार की प्रतिध्वनि है। उसके सुर, प्रेम की पुकार हैं। वह प्रेम जो कभी था या शायद कभी हो भी नहीं सका। वाणी, एक संवेदनशील गीतकार है जो अपनी कविता में बीते हुए पल और भुली हुई यादों को संजोती है। इन दोनों की मुलाकात अचानक और सधी हुई होती है, जिसमें न कोई नाटकीयता, न कोई फिल्मी बनावट, सिर्फ एक दृष्टि, एक चुप्पी जो दर्शकों के गले नहीं उतरती।
धीरे-धीरे यह चुप्पियां संवाद में ढलती हैं और संवाद अनुभूति में। वाणी कहती है,“तुम्हारी ये धुन… जैसे किसी ने मेरे ज़ख़्मों को पढ़ लिया हो।” कृष मुस्कराता है, “कभी-कभी धुनें खुद नहीं बनतीं, कोई दर्द उन्हें बनाता है।” यहां संगीत सिर्फ़ पृष्ठभूमि नहीं, एक जीवंत किरदार है। जब टाइटल ट्रैक ‘सैयारा’ धड़कता है तो लगता है जैसे किसी बीती हुई प्रेमकथा की परछाई से साक्षात्कार हो रहा हो।
सैयारा की कहानी वहां करवट लेती है, जहां दर्शक एक पूर्णता की उम्मीद करता है। वाणी को early-onset Alzheimer’s है। वह धीरे-धीरे अपनी मुहब्बत को भूलने लगती है जो उसके लिए सब कुछ था। एक दृश्य में कृष उसकी वही धुन बजाता है तो वाणी ठिठककर कहती है, “ये सुना-सुना सा लगता है… लेकिन याद नहीं आ रहा।” कृष कहता है, “कोई बात नहीं… मैं फिर से सुनाऊंगा… हर दिन, जब तक तुम्हें याद न आ जाए… या जब तक तुम मुझे फिर से चाहना शुरू कर दो।”
सैयारा में एक भावात्मक क्षण भी आता है जब प्रेम ‘याद’ नहीं, ‘इच्छा’ बन जाता है। क्लाइमेक्स में वाणी कृष को एक अजनबी की तरह देखती है और पूछती है, “क्या हम पहले कभी मिले हैं?” कृष उत्तर देता है,“मिले थे… हर रोज़, हर लम्हा… बस तुम्हें याद नहीं रहा।”
यह दृश्य आत्मा को छूने की कोशिश करता है, लेकिन ठीक उसी पल फिल्म थोड़ी जल्दबाज़ी दिखाने लगती है- जैसे भावनाओं का विसर्जन अधूरा रह गया हो।
कोरियाई आत्मा की भारतीय देह
दरअसल, भारतीय सामाजिक संरचना में इमोशन और पारिवारिक मूल्यों को खास तबज्जो दी जाती है। सैयारा की संहिता और पारिवारिक मूल्य दक्षिण कोरियाई समाज जैसे हैं, जो भारतीय दर्शकों को बार-बार खटकते हैं। जब Alzheimer’s जैसी बीमारी भारतीय जीवन में प्रवेश करती है तो उसके साथ सामाजिक कलंक, पारिवारिक टकराव, आर्थिक तनाव और रिश्तों की जटिलता भी आती है। ‘सैयारा’ इन गहराइयों को छूती नहीं। बस दृश्यात्मक सजावट में उलझकर रह जाती है।
सैयारा का छायांकन, संगीत और अभिनय संतोषजनक हैं। बड़ा सवाल यह है कि यह फिल्म क्या तकनीक संवेदना का विकल्प हो सकती है? क्या किसी फिल्म को सिर्फ़ इसीलिए सफल मान लिया जाए कि वह आपकी आंखों में थोड़ी सी नमी ला दे, भले ही वह दिल तक न पहुंचे?
‘सैयारा’ एक बड़ा सवाल छोड़ती है कि क्या भारतीय सिनेमा अपनी मिट्टी, अपने संघर्ष और अपनी कहानियों से विमुख होकर सिर्फ़ विदेशी कथाओं का आयात बनता जा रहा है? क्या हमारे पास प्रेम, पीड़ा और प्रतीक्षा की कहानियां नहीं हैं जिन्हें किसी कोरियाई रूपरेखा की ज़रूरत हो? जब कोई फ़िल्म अपने ही देश के भूगोल और भावलोक को आत्मसात नहीं कर पाती, तब वह केवल एक सजावटी देह बन जाती है जिसमें आत्मा नहीं होती। यही ‘सैयारा’ की सबसे बड़ी विफलता है। फिल्म में सिर्फ कथा का नहीं, बल्कि एक अनुभव का भी सतही अनुवाद साफतौर पर नजर आता है।
आज जब प्रेम इंस्टाग्राम स्टोरीज़ और टेम्पररी इमोशंस में सीमित होता जा रहा है, ‘सैयारा’ हमें एक पुरानी बात याद दिलाती है, प्यार का मतलब है, “मैं तेरे साथ हूं… चाहे जो हो जाए।”
अगर आप यह नहीं कह सकते तो वह प्रेम नहीं-एक भावनात्मक सहारा भर है। कोरियाई मूल की ‘कॉपी-पेस्ट’ होने के बावजूद, फिल्म कुछ जगहों पर गहरा संदेश भी छोड़ती है,
प्यार सिर्फ़ महसूस करने की चीज़ नहीं, निभाने और उसके लिए लड़ने की जिम्मेदारी है।
बस एक अधूरी प्रेमकथा की छाया
कृष और वाणी की कहानी यही सिखाती है कि प्रेम शब्दों या स्मृतियों का नाम नहीं, वह एक स्टैंड लेने की हिम्मत है। वह हिम्मत, जो कृष ने दिखाई, जब वाणी उसे भूल रही थी। तब भी वह न पीछे हटा और न चुप रहा,“अगर तू भूल गई, तो क्या हुआ… मैं तो तुझे हर दिन फिर से प्यार करूंगा।”
समूची फिल्म में यह इकलौता संवाद है जो सैयारा की आत्मा बन जाता है। ‘सैयारा’ हमें सिखा जाती है कि जिस प्रेम के लिए आप दुनिया के सामने खड़े न हो सकें तो वह इश्क-इश्क नहीं। इश्क वो है जिसमें आप डर से ऊपर उठें। समाज की परवाह छोड़ें और उस एक इनसान का हाथ थामें, जिसे आपने अपना कहा है।
‘सैयारा’ एक अनुभव है, उनके लिए जिन्होंने किसी को पूरे मन से चाहा हो, बगैर गारंटी और बगैर किसी वायदे के। यह फिल्म बताती है कि सच्चा प्रेम याद रखने में नहीं, हर दिन दोबारा मोहब्बत करने की कोशिश में है।
‘सैयारा’ उन सभी दर्शकों के लिए है जिन्होंने कभी किसी को टूटकर चाहा हो…और शायद उन सबके लिए भी जो यह समझना चाहते हैं कि सच्चा प्रेम तब सामने आता है जब वक़्त आपको चुप रहने को कहे और आप बोलने का साहस चुनें…।
मैं सैयारा बन गया हूं… मंज़िलों की क्या तलाश,
हर मोड़ पे ज़िंदगी ने इक नया नक्शा दिया…!!