गोपनीयता कानून तार-तार न करें पत्रकार

गोपनीयता कानून तार-तार न करें पत्रकार

गलत रिपोर्ट छापने पर बिगड़ जाती है इमेज

विजय विनीत

मीडिया को अभिव्यक्ति का अधिकार मिला हुआ है तो जनता को गोपनीयता की रक्षा का। गोपनीयता कानून को लेकर कई बार मामले कोर्ट में पहुंचते हैं। मामला जब अदालत में जाता है तब जज अपने विवेक के तराजू पर दोनों के अधिकारों को तौलने की कोशिश करते हैं। ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी है कि क्या है गोपनीयता कानून? पत्रकार किस हद तक गोपनीयता की परत खोल सकता है?

पत्रकार जब भी किसी व्यक्ति की सेहत, उसकी आर्थिक व घरेलू स्थिति और यौन संबंधों की पड़ताल करता है तब उसे गोपनीयता के अधिकार संबंधी कानूनों की पुख्ता जानकारी होनी चाहिए। रिपोर्ट को प्रकाशित करने से पहले यह सोचना चाहिए कि अगर वैसी रिपोर्ट खुद उसके बारे में प्रकाशित की जाए तो उसे कैसा महसूस होगा? अगर किसी रिपोर्ट के छपने से समाज में किसी की प्रतिष्ठा धूमिल होती है तो वैसी रिपोर्ट प्रकाशित अथवा प्रसारित करने से बचना चाहिए।

किसी सार्वजनिक स्थान अथवा निजी समारोह, जन्मदिन या शोक के समय कोई भी रिपोर्ट लिखने से पहले गोपनीयता की रक्षा के अधिकार संबंधी कानूनों का अध्ययन जरूर करना चाहिए। ऐस न हो कि किसी रिपोर्ट के छपने से किसी व्यक्ति की जिंदगी बर्बाद हो जाए? कई मौके आते हैं जब जनता की दिलचस्पी किसी व्यक्ति के निजी पहलुओं को जानने की होती है। नकारात्मक रिपोर्ट लिखने से किसी का निजी जीवन प्रभावित होता है तो बचाने की कोशिश की जानी चाहिए। पत्रकारों को यह समझना जरूरी है कि जिन बातों में जनता की दिलचस्पी है उसे जानने में जनता का हित होगा अथवा नहीं?  यह आवश्यक नहीं है कि जिन बातों में समाज की दिलचस्पी हो उसे जानने में उसका हित भी निहित हो।

निजता के मामले  में  खुद से करें सवाल

रिपोर्ट लिखने से पहले पत्रकार को खुद से सवाल करना चाहिए कि जानकारी उजागर होने पर किसी व्यक्ति के जीवन पर क्या असर होगा? गोपनीय जानकारी प्रकाशित होने से किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन होता है तो अदालतें यह भी पड़ताल करती हैं कि उसमें जनता का हित निहित है अथवा नहीं? कोर्ट को यह भी तय करना पड़ता है कि किसी मामले में जनहित का संरक्षण महत्वपूर्ण है अथवा व्यक्ति की गोपनीयता का अधिकार।

आमतौर पर कोर्ट यही देखती हैं किसी खबर के छपने से जन-जीवन पर कोई असर पड़ता है अथवा नहीं? अगर सनसनी फैलाने अथवा लोगों का मनोरंजन करने के लिए कोई खबर प्रकाशित की जाती है तो उस स्थिति में अदालत मीडियाकर्मी के खिलाफ सख्त रूख अपना सकती है। अपराध की घटनाओं की परतों अथवा घोटालों या फर्जी दावों की पोल खोलना जनहित की श्रेणी में रखा जा सकता है।

निजी सूचनाएं मांगती हैं ज्यादा सफाई

किसी तथ्य के प्रकाशन से पहले पत्रकारों को इस प्रश्न पर जरूर विचार करना चाहिए कि सूचना जितनी निजी होगी, उतनी गंभीरता से सफाई भी देनी पड़ेगी। खबर के प्रकाशन पर जनहित का आधार बताना पड़ेगा। समाज में ढेरों लोग होते हैं जो घर-परिवार की निजी जानकारी छापने पर खफा हो सकते हैं अथवा उसे रुकवाने की चेष्टा कर सकते हैं। कई बार लोग कोर्ट में मानहानि के दावे भी करते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि ‘राइट टु लाइफ’ का मतलब मान-सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ जीवन जीने का अधिकार है। ऐसे में मानहानि से संबंधित कानूनी प्रावधान को बरकरार रखना जरूरी है। अगर यह कानून नहीं रहेगा तो अराजकता फैलेगी।

गोपनीयता संबंधी कानून का सीधा भाव यह है कि किसी खबर के प्रकाशित होने पर पत्रकार के समक्ष कौन से सवाल खड़े हो सकते हैं जो व्यक्ति की निजता का पलीता लगा सकते हैं? निजता कानून जनता को अधिकार देता है कि निजी जानकारी उजागर होने पर कोर्ट में उसकी फरियाद कर सके। फरियाद सही पाए जाने पर कोर्ट हर्जाना देने का फैसला सुना सकती है। खास बात यह है कि निजता के उल्लंघन में मुकदमा हारने वाले को दूसरे पक्ष का कानूनी खर्च भी अदा करना पड़ सकता है। कई बार यह खर्च हर्जाने से भी अधिक होता है।

सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने हाल में मीडिया के खिलाफ हुए मानहानि के मुकदमों पर अहम फैसला सुनाया  है। कोर्ट ने कहा है कि प्रेस की बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी ‘पूर्ण’ होनी चाहिए। ‘कुछ गलत रिपोर्टिंग’ होने पर मीडिया को मानहानि के लिए नहीं पकड़ा जाना चाहिए। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनंजय  वाई चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने एक पत्रकार और मीडिया हाउस के खिलाफ मानहानि की शिकायत निरस्त करने के पटना हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करने से इनकार करते हुए यह बात कही। पीठ ने कहा, ‘लोकतंत्र में, आपको (याचिकाकर्ता) सहनशीलता सीखनी चाहिए। किसी कथित घोटाले की रिपोर्टिंग करते समय उत्साह में कुछ गलती हो सकती है, लेकिन हमें प्रेस को पूरी तरह से बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी भी देनी चाहिए। इसके लिए उसे मानहानि के शिकंजे में नहीं घेरना चाहिए।’ कथित घोटाले की गलत रिपोर्टिंग में मानहानि का केस नहीं बनता। इस मामले में एक महिला ने गलत रिपोर्टिंग करने पर पटना हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। उसका तर्क था कि गलत रिपोर्टिग से उसका और उसके परिवार के सदस्यों की काफी बदनामी हुई है।

गलतियां हुई हैं तो भूल सुधार भी छापें

दुनिया में ऐसा कोई भी मीडियाकर्मी नहीं जो हर बार सिर्फ सही समाचार ही लिखता हो। निष्पक्ष होने के चाहे जितने भी दावे किए जाएं पर समयाभाव और प्रकाशन के दबाव के चलते कुछ अहम तथ्य छूट सकते हैं। साथ ही त्रुटियां अथवा गलतियां भी हो सकती हैं। ऐसे मामलों में पत्रकारों को माफी मांगना कठिन हो जाता है। यदि तत्परता दिखाते हुए ईमानदारी से माफी मांग ली जाए तो जनता का विश्वास आसानी से जीता जा सकता है। दूसरों की तरह पत्रकार भी अपनी गलतियों से ही रिपोर्टिंग के गुर सीखते हैं। आमतौर पर अड़ियल पत्रकार अपनी गलतियों को ईमानदारी से स्वीकार नहीं करते। ऐसे मीडियाकर्मी न तो पत्रकारिता के धर्म को निभा पाते हैं और न ही कुछ नया सीख पाते हैं। पत्रकारों को चाहिए कि खबरों पर मिलने वाली शिकायतों का जवाब बेहद विनम्रता से दें। ऐसा न करने पर पत्रकार के ऊपर लापरवाही का आरोप चस्पा हो सकता है।

शिकायतकर्ता को यह बताया जाना चाहिए कि प्रकरण की विस्तार से पड़ताल की जा रही है और उसे कब तक जवाब मिल सकेगा? अगर शिकायतकर्ता की बात सही है तो उसे स्वीकारने में भलाई है। अगर मतभेद है तब भी पत्रकार को यह बताना चाहिए कि उसका नजरिया अलग और सही क्यों है?

पत्रकारों को अपनी ग़लती को स्वीकारने और उसे करेक्ट करने में विलंब नहीं करना चाहिए। भूल सुधार के मामले में भारतीय पत्रकारों की इमेज अच्छी नहीं है। सच यह है कि पाठक अथवा दर्शक उसी पत्रकार पर ज्यादा भरोसा करते हैं जो अपनी गल्तियों को जल्द और ईमानदारी से स्वीकार कर लेते हैं। कभी कोई गलती  न करने का स्वांग रचने वाले पत्रकारों की इमेज जनता में अच्छी नहीं होती। वैसे भी आप लोकतंत्र के चौथे खंभे हैं। आपका कर्तव्य बनता है कि सटीक और सही खबर जनता तक पहुंचाएं।

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