कहानी – कशमकश

कहानी – कशमकश

विजय विनीत की चर्चित कहानी

कशमकश

वह एक हसीन शाम थी। कश्मीर के सुहाने मौसम में तेज सर्द हवाएं शरीर में कंपकपी पैदा कर रही थीं। डल झील के किनारे प्रकृति के रमणीय मौसम को मैं अपने कैमरे में कैद करने का इरादा बना रहा था। इसी बीच मेरी नजर फूलों से लदी एक छोटी सी नौका पर पड़ी।
मैंने देखा एक खूबसूरत सी लड़की अपनी तंद्रित आंखों से मुझे एकटक देख रही है। गोरा रंग, गुलाबी चेहरा, गुलाब से खिले अधर, बादलों की घटा के सदृश्य स्याह बाल, एक ही नजर में मदहोश कर देने वाली चंचल शरारती आंखें, जिसमें खामोशी के साथ-साथ उदासी के बोझिल-बोझिल साए हिलोरे ले रहे थे। एक निर्विकार भाव था नौकावाली के चेहरे पर।
मैने एक पल के लिए उसकी उदास आंखों की गहराइयों में झांका। मुझे अपनी तरफ आकर्षित पाकर उसने हौले से मुस्कुरा दिया।
उस सुंदरी के पावन सौंदर्य की बिजली मेरे दिल में उतरकर अजीब सी धड़कन पैदा कर रही थी। उसके आकर्षक व्यक्तित्व में कुछ भोलापन था, कुछ निवेदन।
मैं उसकी कांचन मांसलता पर खिंचता जा रहा था। लेकिन उसे इस बात का तनिक भी एहसास नहीं हो पाया कि उसकी तराशी हुई काया किसी की तीखी नजरों में समाए जा रही है। अचानक वह मेरी तरह उन्मुख हुई।
“क्या आप नौका विहार करेंगे?”
उसकी लचकदार और सुमधुर आवाज से मैं चौंका।
आं.. हां.. हां.. लगभग चीख पड़ा।
मेरे दिल में आहिस्ता-आहिस्ता मधुर आकांक्षाएं उभर रही थीं। इस एहसास से मुझे खुशी की कुछ सुखद अनुभूति होने लगी थी। उसने नौका किनारे लगाया और अभिवादन करते हुए अर्ज किया-
“प्लीज! बैठ जाइए।”
नौका पर बैठे हुए मैं बार-बार उसके चेहरे पर निगाहें जमाता। पल भर के लिए वह मेरी ओर देखती और एक फीकी सी बनावटी मुस्कान छोड़ने की नाकाम कोशिश करती।
कुछ देर बाद उसकी चुप्पी मुझे सालने लगी। उसके चेहरे पर परिचय देने और लेने के भाव परिलक्षित नहीं हो रहे थे। मैं बोर होने लगा था।
मन की वर्जना के बावजूद कुतूहल बस मैने उससे पूछा-
“क्या नाम है तुम्हारा?”
मेरे इस सवाल से झण भर के लिए उसका चेहरा मुरझा गया। उसकी मासूमियत और निराशा के भाव को मैं काफी देर तक पढ़ने की कोशिश करता रहा। उसकी जुबान बंद ही रही।
नौका विहार करता हुआ मैं काफी दूर पहुंच गया। वहां उसके और मेरे सिवा दूर-दूर तक कोई नहीं था। अगर कुछ थी तो खामोशी और नौकावाली के चहरे पर उदासी। आजिज आकर मैने नौका को किनारे लगाने का निर्देश दिया। मेरी बेरुखी उसे अच्छी नहीं लगी। शायद वह इसका मतलब समझ चुकी थी। अचानक उसके अधर खुले और बिना किसी भूमिका के अपना नाम बताया।
“करिश्मा…. “
पर्यटकों को नौका विहार कराने के साथ-साथ फूल बेचना उसकी दिनचर्या थी।
उस दिन नौका विहार करते-करते शाम काफी ढल गई थी। मैने उसे पांच सौ रुपये का नोट दिया। कुछ देर तक वह उसे निहारती रही। कुछ रुपये लेकर बाकी वह मुझे लौटाना चाहती थी, लेकिन उसे रख लेने को कहकर मैं चल पड़ा।
“ठहरिए”
उसकी आवाज के जादू से मेरे पैर एकाएक रुक गए। मैं उसकी ओर मुखातिब हुआ।
“बाकी पैसों का आप गुलदस्ता ले लीजिए।”
इस बार उसकी मुस्कान पहले से कुछ ज्यादा ही दिलकश थी, जिसमें कुछ निवेदन था और आकर्षण का पुट भी। चाहने के बावजूद मैं इनकार नहीं कर सका।
गुलदस्ता लेते हुए मैने पूछा-
“यहां कब तक रहती हो? “
“शाम छह बजे तक।” उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया।
मैं अपने हाउस बोट पर लौट रहा था। नौकावाली के मुस्कान की कशिश मेरे मन की गहराइयों में उतर कर अजीब सी कसक पैदा कर रही थी। दरअसल यह मेरे लिए नया अनुभव था।
कश्मीर की मनोरम वादियों को मैं अपने कैमरे में कैद करने लगा। लेकिन अब मैं तस्वीरें क्या खींचता। करिश्मा की तराशी काया मेरे रोंम-रोंम में रच-बस गई थी।
रात में विस्तर पर पड़ते ही उसकी याद मेरे मानस पटल पर फिल्म सरीखी उतरती चली गई।
मैं सोच रहा था कि नौका वाली की मुस्कुराहट में आखिर ऐसा जादू क्या है, जिसने अचानक मेरे दिल पर बिजली गिरा दी?
कहीं वह कालगर्ल तो नहीं, जो पर्यटकों को नौका विहार कराने और फूल बेचने की आड़ में जिस्म का धंधा करती हो…? कइयों के साथ उसके संबंध होंगे…? सैकड़ों को लूट चुकी होगी…?
संभव है कि उसकी मासूमियत और भोलेपन को देखकर लोग बड़ी आसानी से फंस जाते होंगे। चतुर धंधेबाज की तरह वह लोगों की जेबें खाली करा लेती होगी।
दूसरे क्षण सोचता-उसकी मुस्कुराहट में निराशा की झलक भी तो थी। क्या पता-वह भली और सभ्य औरत भी तो हो सकती है? मगर पर्यटकों को अपनी शोख अदाओं से रिझाती क्यों है?
ये सवाल उमड़-घुमड़कर मन में हलचल पैदा कर रहे थे। संभव है वह किसी कठिनाई में फंसी अकेली अबला हो। यह तर्क मुझे ज्यादा वजनदार लगा।
नौकावाली का हुस्न मेरे लिए आकर्षण का कारण अवश्य था, लेकिन मुझे इस बात से सख्त नफरत थी कि मैं किसी शरीर का खरीददार बनूं। उसकी जरूरत और भावनाओं से खेलूं।
अब मैं रोज ही नौका विहार करता और वह अपनी मुस्कुराहट की कुछ बिजलियां मुझपर गिरा देती। पता नहीं यह मेरा खेल था या उसकी अदा?
धीरे-धीरे वह मुझसे खुलती चली गई। मैं भी उसे अपना हमदर्द और करीबी मानने लगा। शायद उसकी मासूमियत और अदायगी ने मेरे दिल में जगह बना ली थी। आखिर मुझे भी एक ऐसे हमदर्द की तलाश थी जो मेरे सुख-दुख की सहभागी बन सके।
यदा-कदा मैं यह जरूर सोचता कि नौका विहार कराना उसका धंधा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह मेरी इकतरफा दीवानगी को भुना रही हो? पैसे खत्म हो जाएंगे तो शायद वह महत्व देना बंद कर दे?
लेकिन उससे मिले बगैर मुझे सब कुछ सूना सा लगता। जिस रोज मैं उससे नहीं मिलता, उस दिन कसमसाहट रहती। रात बेचैनी और उनींदी में गुजरती। अगले दिन उसे देखते ही मन का उथल-पुथल और उबाल शांत हो जाता।
धीरे-धीरे मुझे यकीन सा होने लगा कि उसके निस्सीम और निश्चल मन में मेरे लिए कहीं न कहीं धुंधली तस्वीर जरूर स्थान बना चुकी होगी। इसी भरोसे पर मैं उसकी निजी जिंदगी की पड़ताल में जुट गया। कोशिश करता, लेकिन हर बार निराशा ही मिलती। मेरे अटपटे सवाल पर वह मासूमियत के साथ मुस्कुराती और फिर बुझे हुए दीपक की तरह शांत हो जाती। कई बार ऐसा भी होता था कि सवाल करने से पहले ही वह बातों का रुख मोड़ देती। फिर भी उसकी मुस्कुराहट मुझे कुछ अलग ही मालूम पड़ती थी।
करिश्मा के मुस्कुराहट ने मुझे कश्मीर में कैद कर दिया था। महीने भर में मैने उसे काफी हद तक पढ़ लिया था। मुझे यह एहसास होने लगा था उसकी आत्मा कोई गहरा जख्म जरूर है। इस भेद को जानना ही अब मेरा लक्ष्य था। नौकावाली और उसकी मुस्कुराहट मेरे लिए अबूझ पहेली थी।
एक शाम वह काफी खुशमिजाज दिखी। आते ही मेरे करीब बैठ गई। इस मौके को मैं नहीं खोना चाहता था। हिम्मत करके उसके समक्ष जीवन साथी बनने का प्रस्ताव रख दिया। मेरे आग्रह का उस पर कोई असर नहीं हुआ। सिर्फ मुझे क्षणांश आंखें भरके देखा। उसके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान उभरी और फिर पहले की तरह उसके चेहरे का भाव निर्विकार हो गया।
“करिश्मा तुम्हें मेरा जीवन साथी बनना ही पड़ेगा।”
मेरे इस निवेदन पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बजाय वह सिर्फ मुस्कुरा देती। मैं जब उसे रिझाने की चेष्टा करता तो उसकी चंचलता पल भर में गायब हो जाती। उसकी मुस्कुराहट का ही मैं दीवाना था। मगर उसकी खामोशी को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता था।
काफी दिनों तक यूं ही उससे मिलने और नौका विहार करने का सिलसिला चलता रहा। अचानक एक दिन मैंने ठान लिया कि अब वह न करिश्मा से मिलेगा और न ही नौका विहार करेगा।
मैने सोचा कि जब मैं कुछ दिनों तक उससे नहीं मिलूंगा तो उसके मुलायम और आबदार चेहरे पर व्यथा और विछोह की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं जरूर उभरेंगी। फिर मुझे उसके आतुर मन की चीख सुनाई देगी। उसकी सीप सरीखी बड़ी-बड़ी आंखों में कोई मौन संकेत होगा और वह तरल हो उठेगी।
अगर ऐसा नहीं हुआ तो समझ लूंगा कि यह युवती सिर्फ चतुर धंधेबाज है। “मुस्कुराहट” को बेचना उसका पेशा है।
मेरा अंदाज कुछ हद तक सच निकला। पहले दिन मैने देखा कि वह अपनी नौका लिए रात दस बजे तक पाषाण मूर्ति की तरह निस्पाद एकटक मेरी राह देखती रही। इस बीच कुछ पर्यटकों ने उससे नौका विहार करने का आग्रह भी किया, लेकिन उसने इनकार कर दिया।
करिश्मा से मिले कई रोज गुजर गए। ढांढस देकर मैने अपने मन को रोके रखा। तन्हाई के पतझड़ ने पुरानी यादों की कब्र पर ढेर सारे सूखे पत्ते जमा कर दिए।
अब मैं अपने शहर लौटने का इरादा बना चुका था। इससे पहले एक बार अपनी पुरानी यादों को ताजा करने के लिए उन स्थानों की सैर कर लेना चाहता था, जो तन्हाई के हिस्से हैं।
झील के किनारे चलते हुए करीब एक फर्लांग का फासला तय कर चुका था। एकाएक नौकावाली मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। पहली नजर में मेरी आंखों को यकीन ही नहीं हुआ कि वह करिश्मा ही है।
पल भर के लिए उसकी उदास आंखों में झांका तो उसमें आंसुओं की मोती जगमगा रहे थे। मैं एकटक उसे देखता रहा। उसके सिर पर फूलों के गट्ठर थे। उसने मेरा हाथ पकड़ा और देवदार के पेड़ के नीचे बैठ गई। तब भी उसकी जुबान बंद रही। अपने आप में सिमटी, सिर नीचे किए कुछ सोचती और अपने नाखूनों को किरोदती रही।
उसकी बिखरी हुई जुल्फें, सर्द मौसम के बावजूद पेशानी पर चमकती पसीनें की हल्की बूंदें, गुलाबी गालों पर सुर्खी की जगह पीलेपन ने ले ली थी। हसीन आंखों के इर्द-गिर्द स्याह हल्के पड़ चुके थे। मैं मुश्किल से कह सका-
“करिश्मा! तुम… “
वह कुछ कहना चाहती थी, लेकिन उसके अधर कांपकर रह गए।
उसने मेरा हाथ पकड़ा और आगे-आगे चल पड़ी। मैं पीछे-पीछे था। ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होती हुई घनघोर चीड़-देवदार के झुरमुटों के बीच एक झोपड़ी के सामने खड़ी हो गई। उसने झोपड़ी का पट हटाया और ढिबरी जलाई। फिर इशारों से मुझे अंदर आने का संकेत दिया। झोपड़ी के अंदर पहुंचकर मैं ठिठक सा गया। भीतर का दृश्य देखकर मैं हतप्रभ था।
जमीन पर खर-पतवार के ऊपर एक फटी सी चादर बिछी थी। उस पर एक मरियल सा आदमी कराह रहा था। शरीर पर फटे कपड़े थे। उसकी आंखों में वेदना की धार बह रही थी।
मैं कुछ नहीं समझ पाया। कभी करिश्मा को तो कभी नरकंकाल सा दिखने वाले व्यक्ति को देखता। कुछ क्षण बाद करिश्मा की जुबान खुली तो आवाज की जगह सिर्फ सिसकियां ही निकलीं। फिर वह झोपड़ी से बाहर गई। उसने पानी से अपना चेहरा साफ किया। जब अंदर आई तो उसके चेहरे पर दृढ़ता के भाव थे।
उसने इशारे से मुझे बताया कि ये मेरे शौहर हैं, जो कैंसर के मरीज हैं। किसी तरह से वक्त-दोवक्त रूखी-सूखी रोटियां खिलाकर इन्हें जिला रहीं हूं। जो कमाती हूं वह इनकी दवा में ही खत्म हो जाते हैं….।
यह कहते ही उसकी आंखें छलछला गईं और वह फूट-फूटकर रो पड़ी। मेरे अंदर का खून पानी बन चुका था। टकटकी लगाए मैं झोपड़ी के बीमार मैले-कुचैले व्यक्ति को अवाक देख रहा था। अतीत के सूखे पत्ते से ढंका कब्रिस्तान हवा के बवंडर के साथ लड़खड़ाने लगा…। पत्ते बिखरने लगे और मजार दिखाई देने लगी…।
करिश्मा अपने अंदर के ज्वालामुखी को दबाए मुझे देख रही थी। मैं निरीह बालक के समान खड़ा था। मुझे उसकी खामोशी का उत्तर मिल चुका था।
उसकी हिचकियां कुछ रूकीं तो उसके मुंख से एक सहमी सी आवाज निकली-
“मुझे अपने पति को जिंदा रखना है। मुस्कुराने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं। अगर ऐसा नहीं करती तो न जाने कब विधवा हो गई होती।”
मेरा हृदय रो पड़ा। मैं सोच भी नहीं सका कि इस बहादुर, स्वावलंबी, पवित्र और पतिव्रता युवती की मुस्कुराहट में अथाह दर्द छिपा होगा।
मैंने अपना सारा पैसा उसके हवाले करना चाहा, लेकिन उसने लेने से इनकार कर दिया। मेरे विशेष आग्रह करने पर उसने दो टूक जवाब दिया-
“मैं सिर्फ अपनी मेहनत के पैसे लेती हूं। किसी का एहसान लेकर जीवन भर के लिए कर्जदार नहीं बनना चाहती।”
इस जवाब की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरा अस्तित्व उसके पांव तले धूल में विलीन होता जा रहा है…।
0 विजय विनीत
मोबाइल-9415201470

One thought on “कहानी – कशमकश

  1. कहानी का अंत बेहतरीन है । आखिर की कुछ पंक्तियां तो मैंने क ई बार पढ़ी

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