जैव तकनीक से संरक्षित होंगे खाद्य पदार्थ
दूध, सब्जियां और जूस लंबे समय तक रहेंगे सुरक्षित
विजय विनीत
वाराणसी के भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (आईआईवीआर) ने खाद्य पदार्थों को संरक्षित करने के लिए नई जैव तकनीक विकसित की है। यह तकनीक अम्लीय और क्षारीय दोनों तरह के पदार्थों को संरक्षित करने में सहायक है। आईआईवीआर वैज्ञानिकों ने चार सौ नमूनों में से लेक्टोकोकस लैक्टिस नामक जीवाणु (बैक्टिरिया) को चिह्नित किया है जो खाद्य पदार्थों को संरक्षित करने वाला प्रोटीन छोड़ता है। इस प्रोटीन का नाम है नाइसिन। यही प्रोटीन खाद्य पदार्थों को लंबे समय तक संरक्षित रखता है।
खाद्य पदार्थों को संरक्षित करने के लिए बाजार में जो रसायन हैं उससे शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अभी तक नाइसिन तैयार करने के लिए रासायनिक प्रक्रिया इस्तेमाल में लाई जाती है। कृत्रिम रूप से तैयार किए गए नाइसिन की कीमत नौ हजार प्रति 25 ग्राम है। आईआईवीआर ने नाइसिन को पशुओं के दूध, लार, नाल, गोबल, चारा, मूत्र, दूध, दही, चीज के अलावा मूर्गियों के बीट से हासिल किया है। इसलिए यह काफा सस्ता है। इसके प्रयोग से शरीर पर कोई दुष्प्रभाव भी नहीं पड़ता है। जैव विधि से निकाला गया नाइसिन 100 सेल्शियस ताप में भी नष्ट नहीं होता।
आईआईवीआर के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा.सुधीर सिंह के नेतृत्व में वर्ष 2006 में नाइसिन हासिल करने की जैव तकनीक पर कार्य शुरू किया गया। इनकी सहायक प्रीति खेमरिया ने करीब 400 नमूनों की जांच किया तो 30 में खासी संख्या में लेक्टोकोकस लैक्टिस बैक्टिरिया का पता चला। इनमें से आठ ऐसे बैक्टिरिया पाए गए जो बड़े पैमाने पर नाइसिन प्रोटीन छोड़ते हैं। इनसे प्राप्त नाइसिन को सबसे पहले सब्जियों को संरक्षित करने में लाया गया। इसके उत्साहजनक परिणाम सामने आए दो दूसरे खाद्य पदार्थों को संरक्षित करने में इस्तेमाल किया जाने लगा। डा.सिंह के मुताबिक जैव तकनीक से निकाले गए नाइसिन का इस्तेमाल काफी आसान और सेहत के लिए लाभकारी है।