दम तोड़ती बनारस की ये लोक कला
हुकुलगंज मेें दम तोड़ रही सवा सौ साल से जिंदा शिल्प कला
बनारस के हुकुलगंज में पटरियों के किनारे बांस के दम पर करीब सवा सौ साल से जिंदा शिल्प कला दम तोड़ती जा रही है। लोककला के साधकों के पास न कोई साधन हैं, न सुविधाएं। अगर कुछ है तो सिर्फ बड़ा दिल और हौसला, जिसकी वर्णमाला उंगलियों पर अनूठी कला का सृजन करती है। बांस की खपच्चियों से अपनी कला को विविध आयाम देने वाले धरकार समाज के लोगों के पास स्थायी ठिकाना नहीं है। समूचा परिवार सड़क के किनारे बेना, दउरी, सूप, झाबा, डोलची, टोकरी, चटाई के अलावा पूजा-पाठ के लिए पवित्र आसनी और विवाह में प्रयुक्त होने वाला डाल और झपोली बनाता है।
कुछ बरस पहले हुकुलगंज के इन शिल्पकारों पर कैंट पुलिस ने हमला बोला था और उनकी झोपड़ियों को उजाड़ दिया था। सामाजिक कार्यकर्ता डा.लेनिन ने मामला राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में उठाया तो कुछ शिल्पियों को कांसीराम आवास मिला। फिर भी अधिसंख्य शिल्पियों की जिंदगी बेनूर ही रह गई।
प्लास्टिक उद्योग ने जहां कुम्हारों के पेट पर लात मारा है, वहीं बांस से निर्मित शिल्प कला का सृजन करने वाले पूर्वांचल के धरकार समाज की रोटी भी छीना है। हुकुलगंज के शिल्पकार बंजारा जीवन के उदाहरण हैं, जिनके पास कोई स्थायी ठिकाना नहीं है। सड़क के किनारे कई जिंदगियां सिर्फ लोक शिल्प कला के दम पर ही पल रही हैं। सरकार की तमाम योजनाएं आईं और चली गई, लेकिन इन शिल्पकारों के ठौर तक नहीं पहुंचीं।
शिल्पकार कैलाश बताते हैं कि जो बांस पहले 20 से 30 रुपये में मिल जाता था, वही अब 125 से 150 से कम में नहीं मिलता। खेती न होने से बांस मुश्किल से मिल पाता है। हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद समूचे परिवार की रोज की कमाई दो-ढाई सौ रुपये से ज्यादा नहीं होती। दम तोड़ती बांस निर्मित शिल्प कला के जादूगर अब अपने बच्चों को यह हुनर नहीं सिखाना चाहते। कारण-पिछले 125 साल से इनकी जिंदगी बदरंग और बेरौनक है। लोक शिल्पियों के बच्चों को सरकारी स्कूल तक नसीब नहीं है। हुकुलगंज की पटरियों पर सालों से पलती लोककला जिंदा है तो सिर्फ पापी पेट और परंपराओं से चलते। अन्यथा ये कला कब की दम तोड़ चुकी होती। बांस निर्मित बेना, दउरी, सूप, झाबा, डोलची, टोकरी, चटाई को नई पीढ़ी भूल चुकी होती…।