मीडिया में महिलाओं के लिए सब कुछ अच्छा नहीं

मीडिया में महिलाओं के लिए सब कुछ अच्छा नहीं

 

    मीडिया  में महिलाओं का चित्रण

विजय विनीत 

भारत में न्यूज चैनलों, अखबारों अथवा पत्रिकाओं को देखें तो आप बहुत सी महिलाओं को एंकर, संपादक और पत्रकार के तौर पर पाएंगे। इसे देखकर आप ऐसी धारणा बना सकते हैं कि भारत में महिलाओं की स्थिति जो भी हो, लेकिन पत्रकारिता में उन्होंने काफी नाम कमाया है। पर एक सच यह भी है कि महिलाएं आज भी बदलाव के एक ऐसे सिरे पर हैं जहां उन्हें लंबा सफर तय करना बाकी है।

1960 के दशक के बाद पत्रकारिता में महिलाओं ने कदम रखा। इस पेशे में शुरूआत में मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग की महिलाओं से हुई। 1980 के दशक से दृश्य बदला। महिलाएं पत्रकारिता में बड़ी तादाद में आने लगीं। आज कई महिलाएं संपादक, रिपोर्टर और टेलीविजन एंकर के पदों पर काम कर रहीं हैं। हिंदी पत्रकारिता प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक। दोनों ही क्षेत्रों में पिछले कुछ समय में महिला पत्रकारों की संख्या में इजाफा देखने को मिला है।

दीगर बात है कि दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों के बाहर पत्रकारों की बिरादरी में महिलाओं की भागीदारी अभी भी बेहद कम है। मीडिया ऐसा क्षेत्र है, जहां आपको वक्त-बेवक्त कभी भी, कहीं भी आने-जाने के लिए तैयार रहना होता है। बड़ी खबरें रात के 12 बजे आए या दो बजे, कवर करना ही होगा। घर और परिवार की जिम्मेदारी संभालते हुए ऐसा कर पाना कई बार बहुत मुश्किल हो जाता है। पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर रही लड़कियों और महिलाओं की कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं जो किसी अन्य क्षेत्र में काम करते हुए उन्हें पेश नहीं आती हैं। मीडिया के क्षेत्र में महिलाएं अब पुरुषों का वर्चस्व तोड़ रही हैं। कामयाबी के बावजूद कई महिलाओं को परिवार से जो सहयोग मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता। खाना बनाना और बच्चों की देखभाल अभी भी महिलाओं का ही काम माना जाता है। यानी अब महिलाओं को दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ रही है। घरेलू महिलाओं की तुलना में कामकाजी महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा है। इन महिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र और घर, दोनों को संभालने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है।

 चालीस फीसदी महिला पत्रकारों को छोड़नी पड़ती है नौकरी

घर और आफिस के बीच सामंजस्य बैठाने में दिक्कत होने पर कई बार महिलाओं को कहा जाता है कि वो अपनी पेशेवर हसरतों की कुर्बानी दे दें। एसोचैम का सर्वे कहता है कि मां बनने के बाद 40 फीसदी महिला पत्रकारों को नौकरी छोड़ देनी पड़ती है। बहुत सी महिला पत्रकारों के बारे में भी ये बात सच साबित होती है। हिंदी पत्रकारिता और महिला पत्रकारों की चुनौतियों के बीच बदलाव सुखद हो तो आनंद का एहसास किसे नहीं होता। आजकल हाईस्कूल से लेकर आईएएस जैसी परीक्षाओं तक लड़कियां केवल सफलता के झंडे ही नहीं गाड़ रहीं हैं। टॉप कर रही हैं। छोटे शहरों से लेकर महानगरों तक। कहीं भी आप किसी कोचिंग के बाहर खड़े हो जायें, आपको बड़ी संख्या में लड़कियां आती-जाती मिल जाएंगी। कई जगहों पर तो ये संख्या लड़कों के मुकाबले ज्यादा भी होती है।

बेवजह की दखलंदाजी, टोका-टाकी से मुक्ति पाकर जिस भी लड़की को कुछ अलग करने का मौका मिल रहा है, वो अपनी मेहनत और काबिलियत की छाप छोड़ रही हैं। यही बात पत्रकारिता के क्षेत्र में भी लागू होती है और बेटियां पूरी शिद्दत से इसे निभा भी रही हैं। मीडिया में महिला पत्रकारों को तीन स्तरों पर जूझना पड़ता है। एक व्यक्ति के रूप में, एक नारी के रूप में फिर एक पत्रकार के रूप में। तीनों भूमिकाओं में समन्वय पर ही महिलाएं सामाजिक भूमिका निभा सकती हैं। मीडिया में सब कुछ अच्छा नहीं है। चुनौतियां बाकी हैं।

मीडिया में लड़कों के मुकाबले लड़कियों को कहीं ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उसे कम करके आंका जाता है। बार-बार उसे लड़की होने की दुहाई दी जाती है। लड़कियों के लिए चुनौतियां तो पिता के घर से ही शुरू हो जाती हैं। परंपरागत भारतीय समाज में लड़कों को उनकी इच्छा के मुताबिक पढ़ने, घूमने, करियर के लिए कोई विकल्प चुनने जैसे मामलों में आजादी हासिल होती है, जबकि लड़कियों को इनमें से हर एक मामले में कई तरह की दखलंदाजी और पाबंदियों से दो-चार होना पड़ता है। कड़ी मेहनत करने के बाद जब आप एक प्रोफेशनल के तौर पर काम करना शुरू कर देते हैं। तब भी मुश्किलें कम नहीं होतीं। हां, ये जरूर है कि जीवन के इस पड़ाव पर मुश्किलों के रंग-रूप कुछ बदल जाते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार आर. अखिलेश्वरी ने अपनी चर्चित किताब ह्यूमन जर्नलिस्ट इन इंडिया में भारतीय महिला पत्रकारों की स्थिति की तुलना दूसरे देशों से की है। वह बताती हैं कि किस तरह उन्होंने एक बेहतर वेतन वाली नौकरी की जगह कम सैलरी वाली अखबार की नौकरी चुनी। तीन साल बाद, जब वह हैदराबाद पहुंचीं और नौकरी तलाशने की कोशिश की तो उन्होंने पाया कि तीन साल का अनुभव और दो अवॉर्ड भी उन्हें नौकरी नहीं दिला पाए, क्योंकि सभी अखबारों और न्यूज एजेंसियों के पास उस वक्त एक महिला रिपोर्टर थी, और दूसरी को बोझ माना जाता था। हालांकि, अपने दृढ़ निश्चय के चलते अखिलेश्वरी को आठ साल बाद नौकरी हासिल हुई। वह आगे चलकर विदेश संवाददाता बनीं और उन्होंने रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका, यूरोप, मिडिल ईस्ट और दक्षिणपूर्व एशिया से रिपोर्टिंग की।

रिपोर्टिंग में अभी भी दो फीसदी महिला पत्रकार नहीं

पिछले 25 सालों में महिला पत्रकारों की संख्या बढ़ी है, किंतु रिपोर्टिंग में अभी भी दो फीसदी महिला पत्रकार नहीं हैं। तमाम गंभीर विषयों को उठाने, मौका मिलने पर खुद को सिद्ध करने के बावजूद उन्हें बेहतर अवसर नहीं दिए जाते। उनकी क्षमता को संदेह की नजरों से देखा जाता है। यही वजह है कि उन पदों पर महिलाएं नहीं है, जहां निर्णय लिए जाते हैं और नियम बनते हैं। विभागों की प्रमुख भी महिला नहीं हैं। महिला और सौंदर्य-स्वास्थ्य पत्रिकाओं को छोड़ दे तो एक-दो समाचारपत्रों को छोड़कर महिलाएं संपादक नहीं हैं। महिलाओं की काबिलियत पर सवाल करने का दुस्साहस अब अगर कोई करता है तो उसे जवाब भी उसी अंदाज में बेटियां दे रही हैं, लेकिन कई बार अहम जिम्मेदारियां महिलाओं को देने में संकोच जरूर किया जाता है। कार्यस्थल पर छेड़छाड़ या अमर्यादित व्यवहार का शिकार भी कई बार लड़कियों को होना पड़ता है हालांकि अब इस तरह की हरकतों के खिलाफ वो मुखर हो रही हैं, अपनी आवाज उठा रही हैं।

पत्रकारिता एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें भारतीय महिलाओं ने बीते कुछ दशकों में काफी प्रगति की है। महिला पत्रकारों ने दंगे, युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं को कवर किया है। वह कई न्यूज चैनलों का चेहरा बनी हैं और उन्होंने क्रिकेट जैसे खेल की रिपोर्टिंग भी की है जो कि लंबे समय तक पुरुषों के वर्चस्व वाला क्षेत्र रहा है। महिलाएं न्यूज कवरेज को नया दृष्टिकोण प्रदान कर सकती हैं।  हो सकता है कि यह बेहतर न हो, लेकिन अलग जरूर होगा। वह किन विषयों को कवर करना चाहती हैं या फिर किस तरह से स्टोरी बताना चाहती हैं, इसे लेकर उनकी अलग राय हो सकती है। कई संस्कृतियों में तो उन्हें पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले ज्यादा सहूलियत होती है। मसलन, मुस्लिम देशों में महिला पत्रकार महिलाओं का इंटरव्यू कर सकती हैं, लेकिन पुरुष नहीं। आज से कुछ बरस पहले तक मीडिया में अंगुलियों पर गिनी जाने वाली महिलाएं थीं, लेकिन आज स्थिति भिन्न है।

समाज के एक हिस्से में अभी भी लज्जा की एक सीमा-रेखा है, स्त्रियां अभी भी लज्जा की देवी मानी जाती हैं। घर और घर के बाहर भी उनका सम्मान करने वाला पुरुष वर्ग है, पर अधिकांश समूह ऐसा है जो लाज को पिछड़ेपन की संज्ञा देकर आधुनिकता की निर्लज्ज फिजा में सांस लेकर खुद को ज्यादा चतुर, मॉडर्न और सुशिक्षित समझने लगा है। जनसंचार साधनों ने भारतीय नारियों को मुखर बनाया है। जेम्स स्टीफेन की वाणी को पत्रकारों ने सार्थकता प्रदान की है। औरतें मर्दों से अधिक बुद्धिमती होती हैं, क्योंकि वे जानती कम, समझती अधिक हैं। संचार-साधनों ने नारी-जाति में जागरुकता पैदा की है। दहेज-बलि, पति-प्रताड़ना, पत्नी-त्याग के समाचारों के प्रकाशन से मानव-समाज को गौरवान्वित करना पत्रकारों का ही कार्य है। पत्रों ने समाज में एक नई दृष्टि दी है कि आज भी हम महिलाओं को महराजिन, महरी, आया, धोबन, नर्स के रूप में ही देखते हैं। पत्रकारों के लिए विचारणीय बिंदु यह है कि हम लोगों ने ही नारी को एक रंगीन बल्ब बना दिया है। सर्वत्र स्त्रियां सामिष भोजन की तरह परोसी जा रही हैं। नारी दुर्व्यवहार का समाचार करुणा और सदाशयता के स्थान पर सनसनीखेज हो रहा है। चिंता की जगह चटपटापन पैदा कर हम लुत्फ उठा रहे हैं। अब नारियों को मुखरित होना पड़ेगा।

इन दिनों महिलाओं से संबंधित पत्र-पत्रिकाएं समय काटने और मनोरंजन के साधन स्वरूप हैं। ऐसी पत्रिकाएं साज-श्रृंगार, फैशन, रूप-रंग को कैसे निखारें? घर को कैसे सजाएं?  पति को सुंदर कैसे दिखें? आदि पर ही जोर देती हैं। वस्तुत: स्त्रियों में सौंदयार्नुभूति अधिक होती है। वे सुरुचिपसंद और सलीकापसंद होती हैं। सजने-संवरने में रुचि रखती हैं। इन प्रश्नों के अतिरिक्त विज्ञान, खेल, राजनीति, साहित्य विषयों में भी महिलाओं की भागीदारी होती है जिसके संदर्भ में पत्र-पत्रिकाओं को प्रकाश डालना चाहिए। कुछ पत्रिकाएं नारियों की अपरिष्कृत और सतही रुचियों को बढ़ावा देती हैं। बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, दहेज-प्रथा एवं अनेक सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन में हिंदी के पत्र प्रभावकारी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को कुटीर उद्योग एवं हस्तकला से कैसे संबद्ध किया जाय, इस प्रश्न को पत्रिकाएं सुलझा रही हैं।

हिंदी पत्र-पत्रिकाएं जनता को सही दिशा और नई प्रेरणा देने में सक्षम हैं। महिलाओं की मानसिकता परिमार्जित करने में महिलोपयोगी प्रकाशन महत्त्वपूर्ण हैं। इनसे सजने-संवरने के अतिरिक्त चतुर्दिक जागरण का शुभ संदेश प्राप्त होता है। आजकल की कुछ हिंदी पत्रिकाओं के अनुसार नारी का अर्थ मां नहीं, वात्सल्य नहीं, सहचरी नहीं, अपितु सेक्स का धमाका है। छोटे-बड़े स्थानों में स्थित सभी बुक स्टाल नारी की कामुक मुद्रा से सजे हैं। काले-पीले कारोबार पर समाज का अंकुश नहीं है।

इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट पत्रकारिता की दुनिया में महिला स्वर प्रखरता से उभरें

मीडिया-जगत का ऐसा कोई कोना नहीं जहां महिलाएं आत्मविश्वास और दक्षता से मोर्चा नहीं संभाल रही हो। पिछले कुछ सालों में प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट पत्रकारिता की दुनिया में महिला स्वर प्रखरता से उभरें हैं। इस जगमगाहट का एक अहम कारण यह है कि पत्रकारिता के लिए जिस वांछित संवेदनशीलता की जरुरत होती है वह महिलाओं में नैसर्गिक रूप से पाई जाती है। पत्रकारिता में एक विशिष्ट किस्म की संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है और समानांतर रूप से कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त करने की भी। संवाद और संवेदना के सुनियोजित सम्मिश्रण का नाम ही सुन्दर पत्रकारिता है। महिलाओं में संवाद के स्तर पर स्वयं को अभिव्यक्त करने का गुण भी पुरुषों की तुलना में अधिक बेहतर होता है। यही वजह रही है कि मीडिया में महिलाओं का गरिमामयी वर्चस्व बढ़ा है।

संवेदना के स्तर पर जब तक वंचितों की आह, पुकार और जरुरत एक पत्रकार को विचलित नहीं करती उसकी लेखनी में गहनता नहीं आ सकती। लेकिन महज संवेदनशील होकर पत्रकारिता नहीं की जा सकती क्योंकि इससे भी अधिक अहम है उस आह या पुकार को दृढ़तापूर्वक एक मंच प्रदान करना। यहां जिस सुयोग्य संतुलन की दरकार है वह भी नि:संदेह महिलाओं में निहित है। अपवाद संभव है, लेकिन मोटे तौर पर यह एक सच है जिसे वैज्ञानिक भी प्रमाणित कर चुके हैं।

पत्रकार की तीसरी महत्वपूर्ण योग्यता गहन अवलोकन क्षमता और पैनी दृष्टि कही जाती है। यहां भी महिलाओं का पलड़ा भारी है। जिस बारीकी से वह बाल की खाल निकाल सकती है वह सिर्फ उसी के बस की बात है। पिछले कुछ सालों में मीडिया में महिलाओं ने एक और भ्रम को सिरे से खारिज किया है। या कहें कि लगभग चटका दिया है, वह यह कि पत्रकार होने के लिए यह कतई जरूरी नहीं कि लड़कों की तरह कपड़े पहने जाएं। या बस रूखी-सूखी लड़कियां ही पत्रकार हो सकती है। अपने नारीत्व का सम्मान करते हुए और शालीनता कायम रखते हुए भी सशक्त पत्रकारिता की जा सकती है। यह सच भी इसी दौर की पत्रकारिता में दिखाई दिया है।

सार ये है कि अगर भारत की महिला पत्रकार अपने पेशे को लेकर ईमानदार और समर्पित रहती हैं, और उनका फोकस लक्ष्य पर रहता है तो ऊंचाइयों पर पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। हो सकता है कि वे अपने पुरुष सहकर्मियों से आगे निकल जाएं। शायद पुरुष पत्रकारों को ऐसा लगता है कि वे पहले ही सबकुछ हासिल कर चुके हैं, उनके लिए पत्रकारिता अब जज्बा नहीं, शायद एक अन्य पेशे की तरह है। कोई ऐसी समस्या नहीं होती, जिसका समाधान न हो। मीडिया में आपसे पहले आपकी प्रतिभा और दक्षता खुद बोलती है। यहां छल, छद्म, झूठ और मक्कारी आपको ले डूबते हैं। मीडिया महिलाओं के लिए सुरक्षित क्षेत्र है। बस इसे सम्मानजनक भी बना रहने दें। यह मीडिया की ही जिम्मेदारी है। मीडिया में  इस ओर रास्ता खुद लड़किया बना रही हैं। हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग आना बाकी है। लेकिन यकीन मानिए, बिना बेटियों के ये असंभव होगा।

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