इन्हें तपन चाहिए…जलन चाहिए, ताकि झनझनाती दोपहरिया में ठना-ठन गिरते रहें सिक्के !
विजय विनीत (वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)
आज का दिन भी कुछ अलग था। सुबह से ही सूरज आसमान में आग उगल रहा था। ऐसी आग जैसे मानो उसकी किरणें धरती को जला देने के लिए उद्धत हों। लेकिन इस तपन में भी एक अजीब सी जीवंतता और उत्साह था।
इन दिनों मैं तभी घर से बाहर निकलता हूं, जब कोई रिपोर्ट लिखने के लिए कवरेज पर जाना होता है। बाकी समय बंद कमरे में कंप्यूटर, मोबाइल और किताबों से दोस्ती। कुछ सोचना, कुछ लिखना, कुछ पढ़ना। न किसी से मुलाकात, न बातचीत, न कोई मेल-जोल। और कोई दूसरा रंग नहीं जिंदगी में।
आज मैंने सोचा, क्यों न इस चिलचिलाती धूप में बाजार की रौनक का जायजा लिया जाए। कुछ देर के लिए दोपहर में निकला। लहुराबीर पहुंचा तो देखा कि ठेले वालों की कतारें एक नई ऊर्जा से भरी हुई थीं। चारों तरफ रंग-बिरंगे गोले, जलजीरा, शिकंजी, लस्सी, ठंडई की दुकानें सजी हैं। तरावट की इन दुकानों पर लोगों की लंबी कतारें भी दिख रही ह ।
बनारस के लहुराबीर पर एक बुजुर्गवार काका, जो कुछ दिन पहले उदास बैठे थे, आज मुस्कान के साथ अपने ठेले पर खड़े थे। उनके ठेले के सामने लोगों की भीड़ थी, जो बर्फ के गोलों का मजा ले रहे थे। उनकी आवाज में वो पुरानी चमक और चेहरे पर एक नई उमंग थी।
मैंने काका से पूछा, “काका, आज तो आपका धंधा खूब चल रहा है?” उन्होंने हंसते हुए बोले, “बेटा, हमें तपन चाहिए…, जलन चाहिए…। जब सूरज यूं ही आग बरसाएगा और दुपहरिया झनझनाएगी, तभी तो हमारे ठेले पर ठना-ठन सिक्के गिरेंगे। लोग गर्मी से राहत पाने के लिए हमारे ठंडे का सहारा लेते हैं। यही तपन हमारी रोज़ी-रोटी है।”
उनकी बातें सुनकर मेरे दिल में एक अजीब सा भाव जाग उठा। ये लोग सूरज की तपिश को अपने जीवन की ऊर्जा मानते हैं। जब लोग गर्मी से बचने के लिए छांव की तलाश में होते हैं, तब ये ठेले वाले उसी तपिश में अपनी मेहनत से उम्मीदों के फूल खिलाते हैं। उनकी जिंदगी की रफ्तार और खुशियों का राज़ इसी झनझनाती दोपहरिया में ही छिपी है।
हमने आसपास नजर घुमाई तो हर ठेले वाले के चेहरे पर वही उमंग और संतोष दिखाई दिया। सत्तू की लस्सी, पना, अमावट, डाब, घड़ा, सुराही, बर्फ, पानी, ताड़ के पंखे और खस की पट्टी बेचने वाले काफी मगन थे। हर कोई अपने काम में जुटा था और ग्राहकों की भीड़ उनकी मेहनत का प्रमाण थी। सूरज की किरणें उनके लिए किसी सोने की किरण से कम नहीं थीं।
महीनों से हरहराती लू का इंतजार करने वालों को लगता है कि जब तक गर्मी मारेगी नहीं, ग्राहक उनके पास आएंगे क्यों? इस बार इन्हें भरोसा है कि मौसम ज्यादा दिनों तक आग बरसाएगा। शायद वो महीनों से बाट जोह रहे थे कि पिछले साल की और ज्यादा दिनों तक इस बार हरहराती लू चले। आसमान से ऐसी आग बरसे कि डामर की सड़क पर जूता चिपकने लगे।
लहुराबीर पर क्वींस कालेज के सामने खस की टट्टी बनाने वाली चाची ने कहा कि देखना देवता का कोप है। अबकी सावन-भादो तक लू के थपेड़े चलेंगे। पता नहीं यह उनका अनुभव बोल रहा था या फिर डिवाइन उन्हें ऐसा कहने के लिए प्रेरित कर रही थी या फिर कमाई की उम्मीद टिमटिमा रही थी। हालांकि चाची के चेहरे की झुर्रियों और उनके सन जैसे बालों को देखकर लग रहा था कि यह उनका अनुभव बोल रहा है। तभी तो बनारस में शुक्रवार को पारा 44 डिग्री पार कर गया। लोग-बाग पसीने-पसीने थे। दोपहरिया में काशी के घाटों पर कर्फ्यू सा नजारा था। सूरज आग का गोला दागता नजर नहीं आया। दरअसल मौसम का मिजाज खस वाली चाची के अनुभव ने ही पहचाना है।
पांडेयपुर के कोहरान का रामू ठेलिया पर घड़े रखकर कालोनियों में चक्कर लगाता मिला। उसकी कच्चे बर्तनों की दुकान है, लेकिन लोग अभी नहीं आ रहे हैं। इसलिए वह खुद उनके दरवाजे पर पहुंच रहा है। जमाना फ्रिज का है। रामू बताता है कि जिनके घरों में असल फ्रिज है वे ड्राइंग रूम में सजाने के लिए कलात्मक मटके और सुराहियां खरीद रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि मिट्टी के मटकों को वे फोक आर्ट का नमूना बता सकें। मटका उनके कला प्रेमी होने का सनद बन सके।
चौकाघाट में घड़े और सुराही बेचने वाले एक दुकानदार ने कहा कि बस जरा मौसम को और गरमाने तो दीजिए। मुंह बिचकाने वाले दुकान के सामने लाइन लगा देंगे। मटकों की मुंहमागी कीमत देंगे। शहर की सैकड़ों दुकानों में किसिम-किसिम के कूलर भरे पड़े हैं। बनारस के फुटपाथों पर खस की टट्टियां बनाने के कई देसी कारखाने खुल गए हैं। सभी को इंतजार है हरहराती लू चलती रहे…, धरती जलती रहे…दहकती रहे।
लहुराबीर पर शिकंजी बनाने वाले बनारसी, ढाब बेचने वाला राजेंद्र, मिल्क बार चलाने वाले नन्हें यादव, सबको धूप, लू, पसीना, उमस और अदहन सरीखी गर्मी का इंतजार है। दोपहरिया की ओर इशारा करते हुए ठंडा बेचने वाले प्रकाश ने कहा कि यह हरहरती लू अषाढ़ तक आग बरसाएगी…। लू के थपेड़े लाएगी…। जब दुपहरिया झनझनाएगी तब देखिएगा उसके ठेले पर कैसे ठन-ठन गिरेंगे सिक्के…।
बनारस के कैंट रेलवे स्टेशन पर ताड़ के पंखे बेचने वालों का झुंड आ चुका है। लस्सी, ठंडई, मिश्रांबु, जलजीरा और बर्फ के दुकानदार व ठेले वाले मुस्तैद हो गए हैं। ठंडई बेचने वाले नन्हें को कोक-पेप्सी वालों से नाराजगी है। वो कहते हैं, “इस नामुराद बोतलबंद ठंडे के कारण बनारस में लस्सी और ठंडई पीने वाले कम होते जा रहे हैं। नन्हें सवाल करते हैं कि भइया ई कउनो पीयै क चीज हौ? लगय ला कि लोग फटफटहिया की टंकी की तरह मुंह में पेट्रोल डालत हउवन।”
दहकती दोपहरिया में तरावट का धंधा करने वालों से मिलकर लगा कि इनकी मेहनत और तपन के प्रति उनका यह प्रेम ही इन्हें जिंदगी की हर मुश्किल से लड़ने की ताकत देता है। इन्हें सूरज की आग से डर नहीं लगता, बल्कि वही आग इनकी जिन्दगी की रोशनी है। ये लोग चाहते हैं कि दुपहरिया यूं ही झनझनाती रहे, ताकि इनके ठेले पर ठना-ठन सिक्के गिरते रहें और उनकी मेहनत रंग लाती रहे।
आज की इस तपिश में मैंने इन ठेले वालों की जिन्दगी की असली चमक देखी। उनकी मेहनत, उनका संघर्ष और उनकी उम्मीदें, सब कुछ सूरज की किरणों के साथ मिलकर चमक रहे थे। तपिश और जलन ने ही उनकी जिन्दगी में रौनक भरी थी और आज मैंने उस रौनक को अपनी आंखों से देखा।
000000