रिलेशनशिप : लास्ट परशन-मोहब्बत से आगे की इबादत, रूह का आख़िरी सजदा

रिलेशनशिप : लास्ट परशन-मोहब्बत से आगे की इबादत, रूह का आख़िरी सजदा

जहां शब्द ख़त्म होते हैं, वहीं रिश्तों की सच्ची शुरुआत होती है…!

विजय विनीत

किसी की ज़िंदगी में आख़िरी ठहराव  बन जाना कोई शोर मचाने वाली उपलब्धि नहीं होती। न इसमें तालियां बजती हैं, न वाह-वाह की गूंज सुनाई देती है। यह तो वह मुक़ाम है जहां इंसान अपनी मौजूदगी से नहीं, अपने सब्र, अपने सुकून और अपने निभाव से पहचाना जाता है। यह वह जगह है जहां नाम नहीं, नीयत मायने रखती है; जहां वादों की ऊंची आवाज़ नहीं, बल्कि ख़ामोश साथ की गहराई बोलती है।

फ़र्स्ट पर्सन बनना आसान होता है। शुरुआत में हर रिश्ता रौशनी से भरा होता है। मुलाक़ातें नई होती हैं, बातें ताज़ा होती हैं और एहसासों में एक मीठी सी बेचैनी रहती है। दिल तेज़ धड़कता है, आंखों में सपने चमकते हैं और ज़िंदगी किसी अधूरे शेर की तरह लगती है, जिसे मुकम्मल करने की जल्दबाज़ी रहती है। वक़्त के साथ जब ज़िंदगी अपनी असल शक्ल दिखाती है-जब ज़िम्मेदारियां, थकान, डर, असफलताएं और पुराने ज़ख़्म सामने आते हैं तब पता चलता है कि हर चमक टिकाऊ नहीं होती।

लास्ट पर्सन वही होता है जो उस वक़्त भी ठहरा रहे, जब चमक फीकी पड़ जाए। जो तब भी साथ दे, जब कहने को कुछ ख़ूबसूरत न बचा हो। जो तब भी आपके पास बैठे, जब आप ख़ुद से बात करने की हिम्मत खो चुके हों। लास्ट पर्सन बनना किसी रोमांचक कहानी की शुरुआत नहीं, बल्कि एक लंबी, सब्र भरी यात्रा है। ऐसी यात्रा जिसमें मंज़िल से ज़्यादा साथ मायने रखता है।

लास्ट पर्सन बनने के लिए चेहरा ख़ूबसूरत होना ज़रूरी नहीं। ज़रूरी यह है कि दिल में छल न हो। बातों में मिठास होना ज़रूरी नहीं, ज़रूरी यह है कि ख़ामोशी में भरोसा हो। हर पल मोहब्बत का इज़हार करना ज़रूरी नहीं, ज़रूरी यह है कि मुश्किल वक़्त में कंधा मौजूद हो। क्योंकि ज़िंदगी के असली इम्तिहान मुस्कुराते दिनों में नहीं, बल्कि टूटते लम्हों में लिए जाते हैं।

फ़र्स्ट पर्सन अक्सर दिल में हलचल पैदा करता है। उसकी मौजूदगी से ज़िंदगी में रंग आते हैं, बेचैनियां जन्म लेती हैं और हर एहसास थोड़ा ज़्यादा तीखा लगने लगता है। लास्ट पर्सन दिल को ठहराव देता है। वह ठहराव जो भागते हुए मन को सुकून देता है। वह ठहराव जिसमें इंसान अपने टूटे हुए टुकड़ों को समेट सकता है, बिना इस डर के कि कोई सवाल करेगा या जज करेगा।

कभी-कभी ज़िंदगी में कोई फ़र्स्ट पर्सन बनकर आता है-सबकुछ नया, रोशन, हसीन। लगता है जैसे अब कोई कमी नहीं रही। मगर फिर वक़्त अपना खेल खेलता है। गलतफ़हमियां जन्म लेती हैं, अहं बीच में आ जाता है। हालात करवट बदल लेते हैं। वही रिश्ता, जो कभी दुनिया लगता था, धीरे-धीरे याद बन जाता है। और इंसान सोचता है कि शायद अब किसी पर भरोसा करना मुमकिन नहीं।

इसी मोड़ पर, अक्सर बिना किसी ऐलान के, कोई शख़्स ज़िंदगी में दाख़िल होता है। न वह बड़े वादे करता है, न बड़ी बातें। वह बस मौजूद रहता है। आपकी चुप्पी को समझता है, आपके डर को हल्का करता है और आपकी अधूरी जगहों को भरने की कोशिश करता है कि बिना यह जताए कि वह कुछ कर रहा है। यही लास्ट पर्सन होता है। जो आपकी टूटी हुई मुस्कान को भी अपनी मोहब्बत से जोड़ देता है और आपके अतीत से डरकर पीछे नहीं हटता।

लास्ट पर्सन बन जाना सिर्फ़ रिश्तों का नहीं, क़िस्मत का भी खेल है। क्योंकि हर किसी को यह मौक़ा नहीं मिलता कि वह किसी की ज़िंदगी के आख़िरी मोड़ तक साथ चले। दिलों के इस मेले में बहुत लोग आते हैं। कुछ थोड़ी देर ठहरते हैं, कुछ अपनी ज़रूरत पूरी होते ही किनारा कर लेते हैं। मगर जो अंत तक ठहर जाए-वह सिर्फ़ साथी नहीं, कहानी का सबसे कीमती अध्याय बन जाता है।

यह भी सच है कि हर कोई किसी की मोहब्बत का पहला हक़ नहीं बन पाता। पहला हक़ अक्सर जोश, नासमझी और अधूरे सपनों के नाम होता है। मगर किसी की ज़िंदगी का आख़िरी सहारा बन जाना-यह बड़ी बात है। यह वह मुक़ाम है जहां आप किसी की आदत नहीं, उसकी ज़रूरत बन जाते हैं। जहां आपकी मौजूदगी से उसे यह एहसास होता है कि अब गिरने का डर नहीं, क्योंकि संभालने वाला कोई है।

लास्ट पर्सन का प्यार दिखावटी नहीं होता। वह सोशल मीडिया की तसवीरों में नहीं, रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों में ज़िंदा रहता है। बीमार होने पर दवा याद दिलाने में, थकान भरे दिन के बाद चुपचाप पास बैठ जाने में और बिना कहे यह समझ लेने में कि आज ज़्यादा बोलना ज़रूरी नहीं। यह मोहब्बत शोर नहीं करती, लेकिन इसकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं।

अक्सर लोग पूछते हैं कि इतना सब्र क्यों? इतना समझौता क्यों? जवाब सीधा है क्योंकि लास्ट पर्सन मोहब्बत को प्रतियोगिता नहीं मानता। वह जीत-हार से ऊपर उठकर रिश्ते को बचाने की कोशिश करता है। वह जानता है कि इंसान परफ़ेक्ट नहीं होते और प्यार का मतलब एक-दूसरे को सुधारना नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ बढ़ना है।

लास्ट पर्सन वही होता है जो आपके बदलते रूप को स्वीकार करता है। जो यह नहीं कहता कि तुम पहले जैसे नहीं रहे,” बल्कि यह समझता है कि वक़्त के साथ बदलना ज़िंदगी की सच्चाई है। जो आपकी कमज़ोरियों को हथियार नहीं बनाता, बल्कि उन्हें संभालने की ज़िम्मेदारी लेता है।

सबसे बड़ी बात। लास्ट पर्सन कभी यह एहसास नहीं दिलाता कि आप बोझ हैं। वह आपकी उदासी को भी अपनाता है और आपकी चुप्पी को भी। वह जानता है कि हर दिन अच्छा नहीं होता, मगर हर बुरा दिन भी हमेशा नहीं रहता।

आख़िर में, यही कहा जा सकता है कि किसी के जीवन में पहला पन्ना बनना एक इत्तेफ़ाक़ हो सकता है, मगर आख़िरी ठहराव  बनना एक इबादत है। किसी के जीवन में पहला पन्ना बनो या न बनो, कोशिश करो कि उसकी कहानी का अंतिम सूरज तुम ही बनो। शुरुआत हर कोई दे सकता है, लेकिन खूबसूरत अंत वही लिख पाता है जिसकी मोहब्बत सच्ची हो, जिसकी नियत पाक हों, जिसका साथ और वक़्त से भी लंबा हो।

अगर ज़िंदगी में किसी का हाथ थामो, तो इस नीयत से थामो कि मुश्किल आने पर भी छोड़ोगे नहीं। कोशिश करो कि किसी की कहानी का अंत तुम बनो। वह अंत जो सुकून दे, जो भरोसा दे, जो यह कह सके कि “हां, सफ़र मुश्किल था, मगर साथी सही था।”

शुरुआत हर कोई दे सकता है, मगर ख़ूबसूरत अंत वही लिख पाता है जिसकी मोहब्बत दिखावे से परे हो, जिसकी वफ़ा हालात की मोहताज न हो और जिसका साथ-वक़्त के हर इम्तिहान से गुज़रकर भी कायम रहे।

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