एक विरासत, एक कहानीः  भारतीय संगीत ने बनारस ने जिस जादुई वायलिनिस्ट वी.बालाजी को चुना है, बहुत समझदारी से चुना है !

एक विरासत, एक कहानीः  भारतीय संगीत ने बनारस ने जिस जादुई वायलिनिस्ट वी.बालाजी को चुना है, बहुत समझदारी से चुना है !

विजय विनीत

देश के जाने-माने वायलिनिस्ट विष्णुचित्तन बालाजी बनारस में शास्त्रीय संगीत के ऐसे सितारे हैं जो गायन और वायलिन में एक साथ काम करते हैं। वह न केवल संगीतकार हैं, बल्कि वायलिन निर्माता भी हैं। ये अपने हुनर को बेचते नहीं, मुफ्त में बांटते हैं। चाहे संगीत हो या फिर वायलिन। भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति इस समर्पित कलाकार को अमेरिका, लंदन, श्रीलंका समेत दुनिया के  तमाम देशों में सम्मान तो बहुत मिला, लेकिन न बनारसियों ने इनकी कद्र की और न ही देश के हुक्मरानों ने। बालाजी बीएचयू में वायलिन के प्रोफेसर और वाद्ययंत्र विभाग के प्रमुख व डीन भी रहे। इनके कई शिष्यों को सरकार पद्मश्री आवार्ड से सम्मानित कर चुकी है, लेकिन वी.वालाजी अब तक उपेक्षा के शिकार हैं।

बालाजी इस बात से आश्चर्यचकित हैं नहीं हैं कि उनकी प्रेरणागाथा एक ही परिवार की चार पीढ़ियों से जुड़ी है। उनसे मिलाना, देखना और सुनना निस्संदेह उत्साहवर्धक है। उनके दो बेटे भी वायलिन के कलाकार हैं जो फिल्मों में काम करते हैं। बालाजी कहते हैं, “अगर आप अपने बच्चों को संगीत की तालीम देना चाहते हैं तो छोटी उम्र में ही उनके हाथों में वायलिन सौंपना होगा और सुनिश्चित करना होगा कि वे हार न मानें। हमारी चार पीढ़ियों ने वायलिन को अलग-अलग तरीके से देखा है। हमने जाकिर तबले के पुरोधा उस्ताद जाकिर हुसैन, गुदई महाराज, पंडित किशन महाराज समेत तमाम दिग्गज कलाकारों के साथ संगत की है। मैं अपने वायलिन पर कोई भी स्वर बजा सकता हूं – ख्याल, ध्रुपद, ठुमरी। आप मुझे कोई भी गायन अंश दे सकते हैं, और मैं उसे वायलिन पर बजा सकता हूं।”

प्रशंसा के तलबगार नहीं

बालाजी का वायलिन वास्तव में एक क्षैतिज पसली से निकले हुए दो वायलिन तने हैं, जिन्हें बजाते समय भारतीय शैली में ठुड्डी के नीचे दबाया जाता है या छाती के सहारे टिकाया जाता है। वह कहते हैं, “मैं दिल से संगीतकार हूं और एक संगीतकार के रूप में ही मैं दुनिया को देखता हूं। मेरी वायलिन किसी आंदोलन को नहीं बढ़ाती, कभी ऊर्जा के दिखावटी मोड़ में नहीं बदलती, जो सिर्फ प्रशंसा पाने के लिए जगह तलाश रही हो। ‘मैं अपने काम के लिए जीता हूं, मैं अपना काम चुनता हूं और मुझे लगता है कि एक निश्चित तरीके से मेरा काम मुझे चुनता है।”

साल 1958 में जन्मे बालाजी से हमारी लंबी बातचीत हुई। सन जैसी दाढ़ी और बाल में वायलिन के साथ वो एक सिद्धहस्त संगीतकार नजर आते हैं। सिर्फ संगीतकार ही नहीं, एक प्रयोगवादी वायलिनिस्ट व गायक भी हैं। बालाजी ने दुनिया भर अपनी संगीत कला का प्रदर्शन किया है। इनकी दो चर्चित पुस्तकें “स्वर श्रृंगारावली” और “भारतीय शास्त्री संगीत की दो धाराओं का एक रूपी संगा” हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और कर्नाटक संगीत में उन्हें महारथ हासिल है। बालाजी कहते हैं, “हमने तीन साल की उम्र में वायलिन बजाना शुरू कर दिया था। नौ साल की उम्र तक मैं एक पेशेवर संगीतकार बन गया था। कर्नाटक संगीत में हमने तब प्रशिक्षण लेना शुरू किया जब हम पांच साल के थे। हमारे दादा स्वर्गीय वीएन कृष्ण अयंगर और पिता स्वर्गीय वीके वेंकट रामानुजम का शागीर्द रहा। साल 1975 में इन्होंने प्रोफेसर (श्रीमती) एन.राजम के संरक्षण में बीएचयू में हिंदुस्तानी संगीत का अध्ययन शुरू किया और 1986 में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की।”

घर नहीं, संगीत का मंदिर

वायलिनिस्ट विष्णुचित्तन बालाजी से हमारी अचानक मुलाकात हुई। घर पहुंचने पर एहसास हुआ कि वो घर नहीं, संगीत का मंदिर है और बालाजी उसके पुजारी। उस कला के पुजारी जिसके दम पर श्रीलंका सरकार ने संगीत जगत के पुरोधा के सम्मान से नवाजा। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के अलावा इन्हें छत्रपति शिवाजी पुरस्कार, लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार, आईएससीएलओ पुरस्कार, संगीत रत्न, सिटी पुष्पा अवार्ड समेत कई सम्मान मिल चुके हैं।

लौटते समय बालाजी ने हमें टीका लगाया और अंगवस्त्रम भेंट किया। मैं अवाक था। समझ में यह नहीं आया कि मैं उनका ऋण कैसे अदा करूं। बालाजी से मिलकर हमें एहसास हुआ कि सच्चा फनकार वो होता है जो दूसरे कलाकार का सम्मान करता है। चाहे वो लेखक-पत्रकार हो, चित्रकार हो या फिर संगीतकार। जिस संगीत ने अपने वादन के लिए बालाजी को चुना है, उसने बहुत समझदारी और अच्छी तरह से चुना है। उनका कठोर शास्त्रीय अनुशासन है जिसने उन्हें वह बनाया है जो वह हैं। लगता है कि वो बहुत दूर तक संगीत की यात्रा पर निकले एक एक महान और समर्पित योद्दा हैं।

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