अफ्रीकी मछलियों का गंगा में कब्जा
देसी प्रजातियों का सफाया करने लगीं टिलैपिया व कैट फिश
खलनायक बनी चीनी मछलियों को भी मिलने लगी है मात
विजय विनीत
वाराणसी शहर के कुंड और तालाब ही नहीं, गंगा में भी अफ्रीकी मछलियों ने कब्जा जमा लिया है। इनमें एक है टिलैपिया और दूसरी कैट फिश (विदेशी मांगुर)। मांसाहारी होने के कारण शासन ने कैट फिश को पालने पर प्रतिबंध लगा रखा है। अफ्रीका से स्मगल होकर आई टिलैपिया का गंगा में बर्चस्व बढ़ता जा रहा है, जिसके चलते देसी प्रजाति की मछलियां लुप्त होने लगी हैं। बनारस में भेलूपुर के जल संस्थान (फिलिंग टैंक) में भी निषिद्ध क्षेत्र के वाटर टैंक के पानी में भी टिलैपिया का कब्जा है। लक्ष्मी कुंड, राम कटोरा कुंड में टिलैपिया पाई गई हैं।
पूर्वांचल में कुछ कुछ साल पहले तक चीनी मछलियों का आतंक था। चीन की कामन कार्प, सिल्वर कार्प और बिग हेड का आतंक शुरू हुआ तो देसी मछलियों पर संकट बढ़ने लगा था। अब अफ्रीकी प्रजाति की दोनों मछलियों ने चीनी मछलियों को मात दे दिया है। गंगा में कुछ साल पहले तक देसी प्रजाति की मछली रोहू, नैन, कतला, टेंगर, बयासी, सिंघाड़ा, सौल, सिधरी, रैया आदि का दबदबा था। इनके बीच अब अफ्रीकी मूल की मछलियां खलनायक साबित हो रही हैं। गंगा में करीब पांच साल साल पहले घुसपैठिया के रूप में आई अफ्रीकी मूल की यह मछली टिलैलिया ने जलीय जीव-जंतुओं के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। इसकी वजह है इसका बारहो मास प्रजनन करना।
‘ओरियो क्रोमिस नाइलोटिका’ के वैज्ञानिक नाम से जानी जाने वाली टिलैपिया पूरी दुनिया में जलीय जीव-जंतुओं के लिए आतंक का पर्याय है। अब इस मछली ने गंगा के अलावा शहर के तालाब व कुंडों में अपनी विनाशलीला शुरू कर दी है। मत्स्य विभाग ने राष्ट्रीय मत्स्य आनुवांशिक संसाधन विभाग, लखनऊ को हाल में पत्र भेजकर कहा है कि टिलैपिया का आतंक जारी रहा तो यह सभी मछलियों के वजूद को खत्म कर अपना साम्राज्य स्थापित कर लेगी। इस मछली की सबसे बड़ी फितरत यह है कि यह देसी मछलियों के बच्चों को खा जाती है। साथ ही जलीय पारिस्थितिकी के सूक्ष्म जीवों को भी।
गंगा में गुम हो जाएंगी देसी मछलियां
मत्स्य विभाग के पूूूूर्व मुख्य कार्यपालक अधिकारी (मत्स्य) डा.अरविंद मिश्र आशंका जताते हैं कि यदि अफ्रीकी मछलियों टिलैपिया व कैट फिश का प्रसार रोकने के लिए कड़े कदम नहीं उठाए गए तो गंगा नदी से देसी मछलियां गुम हो जाएंगी। उन्होंने बताया कि गंगा में कतला की आमद तेजी से घटी है। मांसाहारी होने के कारण इस मछली में रोगाणु पाये जाते हैं जिससे जन-स्वास्थ्य को खतरा पैदा हो जाता है।