प्रेम का बनारस और जिद्दी इश्क की अनछुई दुनियां : ‘मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना’
चेहरों के परे, दिलों की गहराई : बनारसी लेखक विजय विनीत की अनकही और आत्मिक कहानियों का संसार
खुशबू
कभी-कभी कोई किताब शब्दों से नहीं, एहसास से लिखी जाती है। उसके पन्नों में स्याही नहीं बहती, भाव बहते हैं। वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत की पुस्तक ‘मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना’ ऐसी एक नदी है, जिसमें उतरने वाला इंसान केवल पढ़ता नहीं, बहता चला जाता है। यह कहानी संग्रह प्रेम की उस धारा की तरह है जो किसी दिशा में नहीं बहती। वह हर तरफ़ फैलती है, हर दिल को छूती है। प्रेम यहां कोई घटनाक्रम नहीं, बल्कि जीवन का मूल स्वर है। वही स्वर, जिससे हर कहानी जन्म लेती है और हर पाठक अपने भीतर की किसी चुप्पी को आवाज़ देता हुआ महसूस करता है।
बनारस में प्रेम कोई ताजमहल नहीं बनाता, वह चाय की प्याली में बस जाता है। वह किसी घाट की सीढ़ियों पर बैठी हुई शाम है, जिसमें आसमान के रंग और किसी अधूरी प्रेम कहानी की सुगंध घुली होती है। विजय विनीत का बनारस वही शहर है जहां इश्क की खुशबू धुएं में नहीं, दीपक की लौ में मिलती है। उनकी कहानियों के पात्र बनारस की गलियों जैसे हैं। वो कभी सीधे नहीं चलते, लेकिन हर मोड़ पर कोई नया अर्थ दे जाते हैं। “काश”, “सुबह हो गई”, “रुक जाओ ना…” जैसी कहानियां बनारस शहर की तरह ही है। इनकी कहानियां सरल दिखती हैं, लेकिन भीतर अनंत अर्थों का समुंदर छिपाए हुए हैं।
‘काश’ कहानी में लेखक खुद एक किरदार बन जाते हैं। यह कहानी महज़ किसी अधूरे प्रेम की कथा नहीं, बल्कि उस जिद्दी एहसास का बयान है, जो इंसान को बार-बार जीने की वजह देता है। जैसे गंगा हर रोज़ दूषित होकर भी पवित्र बनी रहती है, वैसे ही विजय विनीत का प्रेम भी टूटकर भी जिंदा रहता है।
प्रेम, जो उम्र नहीं देखता
‘मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना’ में कितना सुंदर लिखा है विनीत ने, “प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। प्रेम तो उम्र की सीमा भी नहीं देखता। गठिया की तरह पुरानी हड्डियों पर वो अधिक जमता है।”यह पंक्ति मुस्कुराने पर मजबूर करती है, लेकिन भीतर गहरी सच्चाई छिपी है। प्रेम का यह स्वर किसी जवान दिल की धड़कन नहीं, बल्कि उस आत्मा की परिपक्वता है, जिसने दर्द, समय और अकेलेपन को जिया है।
‘मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना’ की ज्यादातर कहानियों में विजय विनीत खुद नायक के रोल में हैं। उनका प्रेम किसी नायक-नायिका के बीच की मीठी बात नहीं, बल्कि वह आत्मिक ताप है, जो इंसान को बेहतर बनाता है। यह प्रेम अहंकार को गलाता है और भीतर से इंसान को ऐसा निर्मल बना देता है, जैसा गंगा किनारे की सुबह धुंध से भरी, लेकिन उजले उजाले से भरी हुई।
विजय विनीत बार-बार हमें याद दिलाते हैं, “चेहरे तो नक़ाब हैं, असली इंसान तो दिल में बसता है।” उनकी कहानियां उन लोगों के लिए हैं जो चेहरे देखकर मोहब्बत करते हैं और आखिर में टूटकर समझते हैं कि असल सुंदरता तो दिल की रोशनी में है। उनकी भाषा में एक सादगी है, जो बनावटी नहीं। वो प्रेम को आटोग्राफ़ नहीं बनाते, बल्कि एक एहसास की तरह उतारते हैं-कभी बारिश की गंध में, कभी घाट की चुप्पी में। उनकी कहानियों में एक अनकहा दर्द भी है जो हर संवेदनशील पाठक के भीतर उतरता है।
सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक में 11 कहानियां हैं, जो बनारसी जीवन के अनगिनत रंगों जैसी लगती हैं। कभी घाट की नमी सी कोमल, तो कभी रामनगर के मेले जैसी भीड़ में खोई हुई। कभी कोई पात्र साधारण से शब्दों में असाधारण सच कह जाता है कि असली सुंदरता आंखों को नहीं, आत्मा को भाती है। विजय विनीत के शब्दों में यह प्रेम, किसी फैंटेसी की तरह नहीं, बल्कि जीवन की रोटी जैसा है- सादा, लेकिन ज़रूरी।
विजय विनीत की लेखनी में सिर्फ बनारसी ठसक ही नहीं, अविरल गंगा की पवित्रता और हिंदी व उर्दू से पगी मिठास भी है। कहानियों में बनारस कि अनंत गहराई है। ऐसा बनारस जो किताब से निकलकर पाठक की देह में बसने लगता है। वो गालिब की तरह बनारस की याद दिलाते हैं जहां एक रुकने वाला शायर किसी शहर की आत्मा में बस जाता है। उनकी कहानियों में गंगा की लहरें हैं, मंदिरों की घंटियां हैं और उस शहर की धीमी-सी धड़कन है जो हर चीज़ को प्रेम में पिरो देती है।
कहानी संग्रह में विजय विनीत लिखते हैं, “प्रेम और मानवता में कोई अंतर नहीं है, यह तो सिर्फ़ समझ का अंतर है।” यह वाक्य केवल एक संवाद नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है। लेखक के लिए प्रेम सिर्फ़ दो आत्माओं का मिलन नहीं, बल्कि समाज के सबसे बुनियादी मूल्य-संवेदना और विश्वास की पुनर्प्रतिष्ठा है। उनकी कहानियों में प्रेम, समाज के कुरूप चेहरे को आईना दिखाता है। वहां प्रेम का अर्थ केवल आकर्षण नहीं, बल्कि करुणा है। एक ऐसा भाव जो हर सीमा, हर बंधन से परे जाकर इंसान को इंसान बनाता है।

गहरी होती है दिल की रोशनी !
विजय विनीत की कहानियों को पढ़ने के बाद यह एहसास भीतर तक उतर जाता है कि किसी इंसान को पहचानने की शुरुआत भले ही उसके चेहरे से होती हो, लेकिन असली पहचान तो उसके दिल की गहराई में छिपी होती है। मुस्कान देखकर, आंखों की चमक देखकर, या बातों के अंदाज़ से हम अंदाज़ा लगाने लगते हैं कि सामने वाला कितना अच्छा और सच्चा है, लेकिन सच तो यह है कि चेहरा सिर्फ़ एक नक़ाब होता है, जिसे हम हर दिन दुनिया के लिए पहनते हैं। असली इंसान तो उस नक़ाब के पीछे छिपा होता है, जहां सच्चाई, अपनापन और संवेदना का घर होता है।
आज के दौर में लोग चेहरे की मुस्कान में ईमानदारी ढूंढते हैं और आंखों की नमी को कमज़ोरी समझ लेते हैं। कोई ठहरकर यह नहीं पूछता कि यह मुस्कान कितने दर्द के बाद आई है अथवा यह चुप्पी किन कहानियों को छिपाए बैठी है। “मैं इश्क लिखूं तुम बनारस समझना” की कहानियों में यही मर्म बेहद गहराई से महसूस होता है। कभी कोई चेहरा इतना सुंदर लगता है कि लगता है कि यही है सुकून की जगह। उसकी मुस्कान, उसके शब्दों की मिठास सब कुछ जादू सा लगता है। लेकिन वक्त गुजरने के साथ वह जादू उतर जाता है और तब समझ आता है कि वो चमक, वो मोहकता तो सिर्फ बाहर की थी। अंदर का संसार तो खाली था, अकेला था और शायद टूटा हुआ भी।
वहीं दूसरी ओर, कोई ऐसा होता है जो बिल्कुल साधारण लगता है। न कोई चमक, न कोई बनावट, लेकिन बहुुत जिद्दी और अक्खड़। जब वह पास आता है तो उसकी मौजूदगी ही सुकून बन जाती है। उसके शब्दों में सच्चाई होती है। उसकी चुप्पी में अपनापन और उसके दिल में वह शांति जो इस तेज़ और शोरगुल भरी दुनिया में बहुत दुर्लभ है।
प्रेम और मानवता का संगम
शायद विनीत को लगता है कि खूबसूरत चेहरे हर गली, हर शहर में मिल जाएंगे। बस थोड़ा सजावट, थोड़ा फ़िल्टर और इंसान तस्वीर बन जाता है। मगर खूबसूरत दिल… वो मिलना अब मुश्किल है। वो दिल जो बिना स्वार्थ मुस्कुरा दे, जो किसी की तकलीफ़ में अपना सुकून भूल जाए, जो किसी की खुशी में खुद को भुला दे-ऐसे दिल बहुत कम बचे हैं। लेकिन विजय विनीत के कहानी संग्रह “मैं इश्क लिखूं तुम बनारस समझना” में इसी तरह के दिल दिल धड़कते हैं-सच्चे, ईमानदार और संवेदनशील।
यह सच है कि चेहरा तो वक्त के साथ बदल जाता है। उसकी चमक उम्र की धूप-छांव में फीकी पड़ जाती है जो झुर्रियों में खो जाती है। मगर दिल की खूबसूरती… वो वक्त के साथ और गहरी होती जाती है। जैसे-जैसे जीवन बीतता है, वैसा दिल और निखरता है। उसका नूर कभी मद्धम नहीं पड़ता। उसकी करुणा, उसका स्नेह, उसकी सादगी-सब दिलों में हमेशा के लिए निशान छोड़ जाते हैं।
आज हम बाहरी सुंदरता के इतने आदी हो चुके हैं कि भीतर की सच्चाई को देखना भूल गए हैं। तस्वीरों, फ़िल्टरों और दिखावे की इस दुनिया में अब असली चेहरों की पहचान नहीं रही। हम उस इंसान के पीछे भागते हैं जो “अच्छा दिखता” है, न कि उसके पीछे जो “अच्छा होता” है। और जब कोई सच्चा दिल चुपचाप हमारे सामने से गुजर जाता है, तो हमें एहसास भी नहीं होता कि हमने क्या खो दिया।
सच्चे दिल वाले लोग कभी शोर नहीं करते। वे अपनी अच्छाई का प्रदर्शन नहीं करते। वे बस अपने कर्मों, अपने प्रेम और अपनी ख़ामोश उपस्थिति से दूसरों की ज़िंदगी को छू जाते हैं। और जब वे चले जाते हैं, तो एक ऐसी खाली जगह छोड़ जाते हैं जिसे कोई वक्त, कोई इंसान, कोई इलाज भर नहीं पाता। कभी ठहरकर सोचिए कि हमने अपने जीवन में कितने खूबसूरत चेहरे देखे हैं, लेकिन कितने खूबसूरत दिलों को महसूस किया है? शायद बहुत कम, क्योंकि दिल की खूबसूरती को देखने के लिए आंखें नहीं, संवेदना चाहिए और यह संवेदना अब दुर्लभ होती जा रही है।

चेहरा नहीं, दिल टटोलिए
किसी इंसान को उसके शब्दों, उसकी ईमानदारी, उसके स्नेह से पहचानिए-उसके चेहरे से नहीं। चेहरा तो पलभर की झिलमिलाहट है, जो वक्त के साथ मिट जाती है। एक अच्छा दिल… वह उम्रभर की रोशनी है जो अंधेरों में भी राह दिखाती है, जो टूटे हुए मन को संभालती है और जो इंसानियत को जिंदा रखती है।
‘मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना’ में विजय विनीत के शब्द बनारस की आरती की तरह हैं-धीरे-धीरे बहते हुए, लेकिन भीतर की अंधकार को उजाला देते हुए। उनकी कहानियां सिखाती हैं कि दुनिया में अब भी कुछ रोशन दिल बाकी हैं, जो दिखावे की भीड़ में भी सच्चाई की लौ जलाए रखते हैं। इस मतलब भरी दुनिया में कोई अगर बिना मतलब से मिले, तो सपना सा लगता है।
दरअसल, एक चेहरा ओढ़ना पड़ता है दुनिया को दिखाने के लिए, पर जब कोई हमें वैसे ही अपना ले जैसे हम हैं, तो वो गैरों की इस दुनिया में भी अपना सा लगने लगता है। किसी इंसान को उसके शब्दों, उसकी ईमानदारी, उसके स्नेह से पहचानिए, उसके चेहरे से नहीं। ज़िंदगी का असली सौंदर्य उसी में है जब हम चेहरों के पार जाकर दिलों को समझना सीख जाएं। सच्ची सुंदरता वो नहीं जो आंखों को भाए, बल्कि वो है जो आत्मा को छू जाए। चेहरा बदल सकता है, पर दिल की रोशनी अमर होती है और वही रोशनी हर इंसान को सच में इंसान बनाती है।
‘मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना’ सिर्फ एक कहानी-संग्रह नहीं, बल्कि मानव संवेदना का दस्तावेज़ है। यह किताब बताती है कि प्रेम मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है और जब यह पूंजी खत्म होगी तब सभ्यता का अस्तित्व मिटने लगेगा। शायद यही सच्चाई है कि जब चेहरों की चमक मिट जाएगी, तब भी दिल की रोशनी अमर रहेगी। यही इश्क है, यही बनारस है और यही विजय विनीत की कहानियों का सार है-एक ऐसा इश्क, जो लिखा नहीं जाता… सिर्फ महसूस किया जाता है।
‘मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना’ अमेज़न पर उपलब्ध है।

लेखक के बारे में….
विजय विनीत (Vijay Vineet) : पत्रकारिता में साहस, संवेदना और सामाजिक सरोकारों के लिए पहचाने जाने वाले विजय विनीत ने अपने लेखन से बनारस की आत्मा को शब्दों में उतारा है। वे लंबे समय से जनसरोकार, संस्कृति और हाशिए के समाज पर लिखते आ रहे हैं। उनकी लेखनी में बनारस की बनावट, घाटों की रूह और इंसानी रिश्तों की नमी एक साथ महसूस की जा सकती है।
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