ज़ीरो माइल बरेली : वह शहर, जो एहसासों में धड़कता है, जहां हर शब्द, हर चित्र खींचते हैं जिंदगी के अनंत बिंब
पुस्तक समीक्षा : ज़ीरो माइल बरेली
लेखकः प्रभात सिंह
प्रकाशकः वाम प्रकाशन, दिल्ली
मूल्यः 250 रुपये
@विजय विनीत
‘ज़ीरो माइल बरेली’ एक संवेदनशील आत्मा की यात्रा है। एक लेखक, छायाकार और शहरप्रेमी की यात्रा, जिसने अपने भीतर बरेली को जिया, महसूस किया और फिर उसे शब्दों की भाषा में जन्म दिया। वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं फोटोग्राफर प्रभात सिंह की यह कृति न केवल बरेली का दस्तावेज़ है, बल्कि उस अदृश्य शहर का भी चित्र है जो समय, स्मृति और अनुभवों के बीच हर वक्त धड़कता रहता है।
प्रभात सिंह केवल लेखक नहीं, बल्कि एक भावदर्शी छायाकार हैं, जिन्होंने बरेली, बनारस और गोरखपुर समेत समेत कई शहरों को अपने कैमरे की आंख और दिल की संवेदना से देखा है। यही कारण है कि यह पुस्तक किसी साधारण वृत्तांत की तरह नहीं पढ़ी जाती; यह तो एक जीवंत फोटोग्राफिक एल्बम बन जाती है, जिसमें हर शब्द किसी तस्वीर की तरह ठहरा हुआ, हर वाक्य किसी धड़कन की तरह चलता हुआ महसूस होता है।

‘ज़ीरो माइल बरेली’ की विशेषता यह है कि इसमें बरेली को केवल भूगोल या इतिहास के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि उसे अनुभव, स्मृति और आत्मीयता की दृष्टि से रचा गया है। प्रभात सिंह ने बरेली को घटनाओं और स्थलों में नहीं बांधा; उन्होंने उसे महसूस किया है-उसकी हवा की गंध, उसकी गलियों की धुन, उसकी सड़कों की परछाई और उसके लोगों की थमी हुई सांसों को।
‘ज़ीरो माइल बरेली’ पुस्तक बारह अध्यायों में विभाजित है और हर अध्याय बरेली के एक अलग रूप, एक अलग रंग, एक अलग मनःस्थिति को प्रकट करता है। शुरुआती अध्याय में जब लेखक शहर के मिथकों, इतिहास और लोकधारणाओं की परतें खोलते हैं, तो पाठक खुद को किसी प्राचीन कथा के भीतर उतरता हुआ पाता है। वह महसूस करता है कि यह शहर केवल दीवारों और सड़कों से नहीं बना-यह सदियों से बहती स्मृतियों का नगर है।
आगे के अध्याय में जब लेखक बरेली की गलियों, बाजारों, और चौक-चौराहों की ओर बढ़ते हैं, तो दृश्य अचानक किसी चलती हुई फिल्म की तरह जीवंत हो उठते हैं-पांच पैसे की मिठाई, लाला की जलेबियां, फेरीवाले की पुकार, गल्लों की धुन, भीड़ की खामोशी और किसी पुराने ट्रांजिस्टर से आती फिल्मी धुन -सब मिलकर ऐसा वातावरण रचते हैं कि पाठक शब्दों के भीतर चलते-चलते खुद को बरेली के बीचोंबीच महसूस करने लगता है।
और फिर जब लेखक लिखते हैं, “शेर वाली चवन्नी से इंकार” या “किक मारने से आदमी स्टार्ट हो गया” तो ये वाक्य किसी कैमरे की क्लिक की तरह लगते हैं। हर पंक्ति एक तस्वीर बन जाती है, जिसमें जीवन का हास्य, विडंबना, और मर्म तीनों एक साथ मौजूद हैं। यह किताब जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, बरेली का चेहरा बदलता है जो कभी हंसता, कभी सोचता, कभी उदास और कभी शांत हो जाता है।

प्रभात सिंह की लेखन शैली कोमल, आत्मीय और लयात्मक है। उनकी भाषा में न केवल साहित्यिक गरिमा है, बल्कि एक ऐसी पारदर्शिता भी है जो सीधे दिल तक जाती है। हर पृष्ठ से नॉस्टैलजिया की एक हल्की सी महक उठती है-जैसे कोई पुरानी तस्वीर हाथ लगते ही बचपन की आवाजें सुनाई देने लगें। बरेली के पुराने नाम, सड़कों के बदले हुए चेहरे, खोए हुए पड़ोस और नई चमकती इमारतों के बीच जो भावनात्मक संघर्ष है, उसे प्रभात सिंह ने बड़ी सहजता से उकेरा है।
वह बार-बार हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या वे गलियां आज भी वैसी हैं जैसी कभी थीं? क्या वे लोग अब भी वैसे ही हंसते हैं? क्या शहर की आत्मा अब भी उतनी ही जिंदा है, जितनी तब थी जब विकास की दौड़ ने उसे नहीं छुआ था?
यही वह क्षण है जब प्रभात सिंह केवल लेखक अथवा फोटोग्राफर नहीं रह जाते। वह एक दार्शनिक पर्यवेक्षक बन जाते हैं, जो समय के साथ बदलते शहर की नब्ज़ टटोल रहा है। उनकी नजर शहर की रफ्तार से आगे जाती है। उस रफ्तार के भीतर छिपी गहराई, गंभीरता और अनदेखी जिंदगियों पर सवाल करती है। वे विकास की चकाचौंध के पीछे छिपे अंधेरों को भी उजागर करते हैं जैसे कोई फोटोग्राफर तस्वीर में कंट्रास्ट का संतुलन खोजता है।
‘ज़ीरो माइल बरेली’ के हर अध्याय में एक ऐसा भाव है जो केवल पढ़ा नहीं जा सकता, उसे महसूस करना पड़ता है। यह किताब पाठक को बार-बार बुलाती है जैसे कोई पुराना घर, जहां बचपन की गंध अब भी दीवारों से टकराकर लौटती है। इसे पढ़ना किसी पुराने फोटोग्राफ को पलटने जैसा अनुभव है-हर बार उसमें कुछ नया दिखता है। कोई भूला चेहरा, कोई अधूरी बात, कोई पुरानी धुन।
इस पुस्तक की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह लेखक की दृष्टि का विस्तार भी दिखाती है। प्रभात सिंह केवल बरेली तक सीमित नहीं हैं; उनकी गहरी दृष्टि बनारस से गोरखपुर तक फैली है। वह बनारस जिसने भारतीय आत्मा को देखा, साधा और शब्द दिया। प्रभात सिंह की फोटोग्राफिक प्रदर्शनी बनारस में लग चुकी है और वहां के दर्शकों ने भी उनके चित्रों में उस गहराई को महसूस किया जो सामान्य दृष्टि से परे होती है।
उनकी तस्वीरों में बनारस का आध्यात्मिक रंग और बरेली की लोक-संवेदना एक साथ सांस लेती है। यही वजह है कि उनकी लेखनी में भी बनारस की गहराई और बरेली की आत्मीयता साथ-साथ बहती है। प्रभात सिंह की बनारस के प्रति आस्था गहरी और सजीव है। शायद इसीलिए उनके शब्दों में एक अद्भुत शांति और विश्वास है। उनकी भाषा में बनारस की नदी की तरह बहाव है, और बरेली की गलियों की तरह आत्मीय अपनापन।
‘ज़ीरो माइल बरेली’ पढ़ने के बाद यह अहसास होता है कि किताब खत्म नहीं हुई, बल्कि हमारे भीतर कुछ नया शुरू हुआ है। यह पुस्तक स्मृति की तरह बस जाती है और बार-बार लौटने का आग्रह करती है। जब आप इसे बंद करते हैं, तब भी इसकी आवाज़ गूंजती रहती है-जैसे किसी पुरानी फोटो से आती धीमी सी प्रतिध्वनि।
इस किताब में न केवल शहर है, बल्कि शहर का मन है। यह बरेली की मिट्टी, धूल, और धूप की कहानी है; वहां के लोगों के सपनों और संघर्षों की गाथा है। प्रभात सिंह ने इसमें यह दिखाया है कि शहर केवल ईंट और गारे से नहीं बनता। वह बनता है यादों, रिश्तों और भावनाओं से।
पुस्तक का शीर्षक ‘ज़ीरो माइल बरेली’ भी प्रतीकात्मक है। यह केवल दूरी का बिंदु नहीं, बल्कि एक भावनात्मक शून्य है, जहां से शहर की हर दिशा शुरू होती है। यह वह बिंदु है जहां स्मृति और वर्तमान मिलते हैं और लेखक खड़ा होकर दोनों को एक ही फ्रेम में कैद कर देता है। कुल मिलाकर, ‘ज़ीरो माइल बरेली’ एक ऐसी रचना है जो साहित्य, कला और फोटोग्राफी-तीनों विधाओं का सुंदर संगम है। इसमें शब्दों का सौंदर्य, दृष्टि की गहराई और स्मृति की कोमलता साथ-साथ चलती है।
यह किताब उन पाठकों के लिए है जो शहरों को केवल नक्शे पर नहीं, बल्कि दिल में बसाने की कला जानते हैं। वह लोग जो हवा में तैरती पुरानी आवाज़ों को सुन सकते हैं, जो सड़कों पर चलते हुए इतिहास की पदचाप पहचान सकते हैं और जो मानते हैं कि हर शहर की एक आत्मा होती है और वह आत्मा किताबों से नहीं, अनुभवों से बोलती है।
‘ज़ीरो माइल बरेली’ उसी आत्मा की पुकार है- थोड़ी धीमी, लेकिन अनंत गहराइयों के साथ। एक ऐसी पुकार जो हमें यह याद दिलाती है कि चाहे समय कितना भी बदल जाए,शहर वही रहते हैं-बस हम बदल जाते हैं।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक है)
