बनारसः रूह से रिश्ता गांठने वाला शहर…!

बनारसः रूह से रिश्ता गांठने वाला शहर…!

एक ऐसा अनूठा शहर जो सवाल नहीं करता, स्वीकार कर लेता है बिना शर्त

@विजय विनीत

बनारस कोई शहर नहीं, एक सांस है। ऐसी सांस जो भीतर उतरते ही देह से ज़्यादा रूह में बस जाती है। यहां आने वाला हर मुसाफ़िर अपने साथ बहुत कुछ लाता है-नाम, पहचान, बोझ, डर, ख़्वाहिशें और जाते वक़्त अनजाने ही कुछ छोड़ जाता है। अक्सर वही जो सबसे भारी होता है। आत्मा का वह हिस्सा जो दुनिया की गर्दिश में थक चुका होता है।

सुबह-सुबह गंगा के घाटों पर धूप उतरती है तो लगता है जैसे वक़्त ने केसरिया चादर ओढ़ ली हो। नावों की पतवारें पानी से बातें करती हैं। घंटियों की आवाज़ हवा में घुलकर दुआ बन जाती है। यहां हर आवाज़ में एक तसल्ली है। हर ख़ामोशी में एक जवाब। बनारस सुनता है-बिना टोके, बिना फ़ैसला सुनाए। शायद इसीलिए लोग यहां आते हैं और अपनी आत्मा छोड़कर चले जाते हैं; क्योंकि यहां आत्मा को पहली बार भरोसा होता है कि उसे संभाल लिया जाएगा।

बनारस की गलियां इतनी संकरी हैं कि कंधे से कंधा छूता चलता है। इस तंगनाई में भी दिल की वुसअत कम नहीं होती। पान की महक, चाय की भाप, पुरानी दीवारों पर टिके हुए क़िस्से-सब मिलकर एक ऐसी दुनिया रचते हैं जहां अतीत बोझ नहीं, साथी बन जाता है। बनारस किसी को अजनबी नहीं रहने देता। वह सबको अपना लेता है जैसे बरसों की बिछड़ी हुई संतान को कोई मां पहचान लेती है-आंखों से, लहज़े से, ख़ामोशी से।

बनारस में दुख भी एक रस्म है। श्मशान की आग में जलते हुए सवाल राख हो जाते हैं और जो बचता है वह स्वीकार। मृत्यु यहां अंत नहीं, एक ठहराव है, जहां जीवन अपने अर्थ पर मुस्कुराता है। बनारस सिखाता है कि छोड़ना हार नहीं, राहत है। हर पकड़ ढीली करनी पड़ती है और हर ढीलापन प्रेम से भरा होता है।

शाम ढलते ही आरती की लौ उठती है और लगता है जैसे आसमान ने नदी में दीये उतार दिए हों। लोग हाथ जोड़ते हैं, आंखें बंद करते हैं  और किसी अनकहे रिश्ते में बंध जाते हैं। यहां ईश्वर मंदिर में कम, इंसान में ज़्यादा मिलता है। यहां दुआ और दावत के बीच की दूरी बहुत कम है। कोई तुम्हें देखे बिना भी पहचान लेता है और पहचान कर भी तुमसे कुछ नहीं मांगता-बस गले लगा लेता है।

बनारस का आलिंगन दिखाई नहीं देता, लेकिन उसकी गर्मी बहुत देर तक साथ रहती है। यह शहर किसी से सवाल नहीं करता, किसी से पहचान नहीं मांगता। जो जैसा है, उसे वैसे ही स्वीकार कर लेता है। यहां आते ही लगता है जैसे कोई पुराना अपना बिना कुछ कहे कंधे पर हाथ रख दे। धीरे-धीरे मन का बोझ हल्का होने लगता है, सांसें सहज हो जाती हैं और भीतर कहीं जमी हुई थकान पिघलने लगती है।

बनारस आपकी थकान उतार देता है, बिना जताए और बिना शोर किए। यहां की गलियां, घाट और सुबह की धूप इंसान से कुछ छीनती नहीं, बस उसे थोड़ा ठहरा देती हैं। आपकी बेचैनी को यह शहर नया नाम देता है। ऐसा नाम जो चुभता नहीं, बल्कि समझ में आता है। जो उलझन पहले भारी लगती थी, वह यहां आकर साधारण हो जाती है जैसे जीवन का ही एक स्वाभाविक हिस्सा हो।

बनारस में आंसुओं को छिपाना नहीं पड़ता। बनारस आपके आंसुओं को इजाज़त देता है-बहने की, हल्का करने की, शांत होने की। यहां रोना कमज़ोरी नहीं माना जाता, बल्कि थकान उतरने का सच समझा जाता है। गंगा के किनारे बैठकर इंसान अपने भीतर उतरता है और पहली बार खुद को बिना डर के देख पाता है।

बनारस में रहकर धीरे-धीरे यह समझ बनती है कि हर सवाल का जवाब शब्दों में नहीं मिलता। कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनका जवाब समय देता है, अनुभव देता है और कुछ का जवाब सिर्फ़ ख़ामोशी में छिपा होता है। यहां की ख़ामोशी बोझ नहीं होती। वह सहारा बन जाती है। वह आपको अकेला नहीं छोड़ती। बस आपके साथ बैठ जाती है।

शायद इसी वजह से जो एक बार बनारस आता है, वह पूरी तरह लौट नहीं पाता। उसका एक हिस्सा यहीं रह जाता है-सांसों में, यादों में और उस सुकून में जिसे शब्दों में बांधना मुश्किल है। बनारस इंसान को बदलता नहीं, बस उसे उसका असली रूप याद दिला देता है।

जब तुम लौटते हो ट्रेन, बस या नाव से तो पाते हो कि हल्के हो गए हो। तुम्हारी जेबें भरी हैं स्मृतियों से, लेकिन दिल खाली है उस भारीपन से जो तुम्हें यहां लाया था। तुम मुस्कुराते हो, क्योंकि जानते हो कि जो छोड़ा है, वह खोया नहीं। बनारस ने उसे संभाल लिया है। यहां सब सुरक्षित है-तुम्हारी थकान, तुम्हारा डर, तुम्हारी आत्मा।

शायद इसी लिए कहा जाता है कि लोग बनारस में आते हैं और आत्मा छोड़कर चले जाते हैं। बनारस सभी को अपना लेता है। गले लगा लेता है और जो गले लग जाए, उसे फिर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं रहती…।

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