चंदौलीः प्रकृति का वह प्रतीक, जो इतिहास और परंपराओं पर गर्व करता है

चंदौलीः प्रकृति का वह प्रतीक, जो इतिहास और परंपराओं पर गर्व करता है

विजय विनीत (वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक) 

चंदौली सिर्फ एक नाम नहीं, एक परंपरा है। ऐसी परंपरा जिसे अपने लंबे इतिहास और रवायत पर गर्व है। यहां के रीति-रिवाज और परंपराएं प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। चंदौली की मुकम्मल पहचान सिर्फ इतनी सी है कि यहां जो भी मुसाफिर आता है वह प्रकृति के अनंत गहराइयों में डूब जाता है। हर किसी को हक्का-बक्का कर देता है चंदौली। चाहे राजदरी-देवदरी और औरवाटांड के मनमोहक नजारों का दीदार कीजिए या फिर काशी विश्वनाथ के प्रतिरूप बाबा जागेश्वरनाथ धाम में पहुंचकर आपने जन्म के सारे पापों को एक झटके में धो डालिए। यकीन कीजिए, चंदौली में आदर के भाव के साथ जो भी ढूंढेंगे, हर चीज पाएंगे। भक्ति भी और वरदान में शक्ति भी। चंदौली प्रकृति का वह प्रतीक है जो इतिहास और परंपराओं पर गर्व करने की ताकत देता है।

यूं तो चंदौली का शब्दिक अर्थ है दीपों की लड़ियां। जुगुनूं की तरह चमकने वाली ऐसी लड़ियां जिनका कोई ओर-छोर नहीं। 2484.7 वर्ग किमी में फैसे इस इलाके को धान का कटोरा का खिताब हासिल है। चंदौली की सीमाएं जहां बिहार से जुड़ती हैं, वहीं सोनभद्र की मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार व झारखंड से। पुरातात्विक नजरिए से यह समूचा इलाका विश्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला है। साल 1997 में बनारस के एक बड़े हिस्से को काटकर नए जिले का गठन किया गया।

चंदौली सदर, सकलडीहा, मुगलसराय, चकिया और नौगढ़ तहसीलें अपनी अनूठी विविधता के लिए दुनिया भर में सरनाम है। चंद्रकांता के देश का नौगढ़ चंदौली में ही है, जिसे पढ़ने, देखने और सुनने के लिए दुनिया भर के लोगों ने हिन्दी सीखी। जैव-विविधता से भरे इस इलाके में जड़ी-बूटियों और औषधियों का ऐसा खजाना है जिनके जरिये जानलेवा बीमारियों पर विजय पाने की सदियों पुरानी परंपराएं हैं।

जंगलों की लंबी श्रृंखलाएं

चंदौली में जंगलों की लंबी श्रृंखलाएं हैं तो जलवायु शीतोष्ण। कर्मनाशा और चंद्रप्रभा नदियों की घाटियों में साल के वन और इन वनों के बीच पर्णपाती वन बारिश के दिनों में हर किसी को दीवाना बना देते हैं। चंदौली के जंगल पहले शेरों और बाघों का गढ़ हुआ करते थे। ये वन पहले महाराजा बनारस की निजी जागीर थे। उन्होंने इसे एक अच्छे शिकारगाह के रूप में इस्तेमाल करने के मकसद से संरक्षित किया था।

इन वनों को बचाने के लिए साल 1921 में बनारस स्टेट फ़ॉरेस्ट एक्ट बनाया गया। बाद में वनों को दो भागों में बांटा गया। पहला रेखांत वन, जिसमें लकड़ियों की कटाई पूरी तरह प्रतिबंधित थी। इसे शिकारगाह के रूप में उपयोग करने के लिए संरक्षित किया गया था।

दूसरा था छूटांट वन। ये वन गांव की सीमा से लगे हुए थे। इस वन में लकड़ी काटने के लिए पांच रुपये प्रति कुल्हाड़ी सालाना शुल्क जमा करने की प्रथा थी। आजादी से पहले तक काशी वन्य जीव विहार के इलाके में काफी घने और रमणीक जंगल हुआ करते थे। इस जंगल में टाइगर और चौसिंघा मुख्य रूप से पाए जाते थे। गैंडे, बारहसिंघे जैसे जीवों का चित्रण राक पेंटिंग में कुछ साल पहले तक मौजूद रहा। चंदौली के नौगढ़ के वनों में मुख्य रूप से तेंदू, घौ, झींगन, खैर, ककोर आदि प्रजाति के वृक्ष हैं। यहां आसन, सलई, यार, महुआ, आंवला, पलास, कोरैया, साल, अर्जुन, जामुन के वृक्ष के निकट जलस्रोत पाए जाते हैं। इन जंगलों में हेड़ा, हर्रा, कमरहटा, विजयसाल, चिलबिल, नीम, सेमल, ममरी, कदंब, अमलतास, फरई, महुली, वेलगोंधा, ढाक, कोरैया, मकोय, कुची के पेड़ों की बहुलता है।”

काशी वन्य जीव अभ्यरण उत्तर प्रदेश का इकलौता ऐसा जंगल है, जो वनौषधियों से भरा हुआ है और अब वह भी संरक्षण के अभाव में विलुप्त होने की कगार पर है। नौगढ़ के जंगलों में सफेद मूसली, काली मूसली, नागर मोथा, चितावर, सतावर, दंतीमूल, पित्त पापड़, भ्रृंगराज, शिवलिंगी, असगंधा, अग्निमंथ, कंदरी, बड़ी हसिया, काकनासा, गुमची, भूमि आंवला,  सहजना, टेसूफूल, अमरबेल, हरसिंगार, काद, धतूरा, वनतुलसी, इंद्र जौ, रोहिणी, धामिन, झींगन, कैरा, गुड़मार, केवटी, गंगेलुआ, काली गुलूशर, गुलाखड़ी, निशोदा, चौंघारा, मकरा, जमराली, कवनी गुल्फुला, साहुसमूली, पापड़ा, भृंगराज, अगड़ी, कालामेध, कलिहारी, मेद, चिरौंजी, मरोड़ फली, कमरहटा, विजयसाल, पिपली, वच, सेमल, आंवला, कढ़ी पत्ता, रीठा, कुसुम, जिंगकन, आम, बेर, आसन, अर्जुन, कटहटल, बरगद, गूलर, पीपल, जामुन, कचनार, अमलतास, इमली, खैर, बबूल, सिरिस आदि के पेड़ बड़े पैमाने पर आज भी मौजूद हैं।

नौगढ़ स्थित विंध्य की पहाड़ियों में काले रंग का लौह शिलाजीत भी यहां पाया जाता है, जो पत्थरों का मद होता है। जेठ और असाढ़ के महीने में जब विंध्य की पहाड़ियां गर्म होकर पिघलती हैं तब पत्थरों का रस एकत्र होकर ठोस रूप ले लेता है। इसे ही शिलाजीत कहते हैं। इलाकाई आदिवासियों का मानना है कि नौगढ़ के औरवांडांट इलाके में पाया जाने वाले शिलाजीत के विधि पूर्वक सेवन से हर तरह की बीमारियां ठीक हो सकती हैं।

वन्य जीवों का मिटता वजूद

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने 02 दिसंबर 1957 को चंद्रप्रभा वन्य जीव विहार के संरक्षण और संवर्धन के लिए एक नर, दो मादा शेर और एक बबर शेर इन जंगलों में छोड़वाए थे। इन शेरों को राजा-रानी और जयश्री नाम दिया गया था। कुछ साल तक ये वन्य जीव चंद्रप्रभाग से लगायात कैमूर वन्य जीव विहार में विचरण करते रहे। साल 1965 में काशी वन्य जीव विहार में इन जानवरों की गणना कराई गई तो इनकी संख्या 11 पहुंच गई थी। बाद में इस वन्य जीव विहार की सीमा छोटी पड़ने लगी और शिकार न मिलने की वजह से वो आसपास के वन क्षेत्रों में जाने लगे।

नतीजा, साल 1970 में कुछ शिकारियों ने बब्बर शेर को मार डाला और दूसरे बाघ इस क्षेत्र को छोड़कर कहीं और चले गए। काशी वन्य जीव प्रभाग में साल 2001 में वन्य जीवों की गणना कराई गई तो गुलदार 14, भालू-133, चीतल-209, चिंकारा-223, चौसिंघा-09, सांभर-119 और 1697 जंगली सुअर पाए गए थे। नौगढ़ के गहिला और पंडी इलाके के जंगलों में पहले शेर विचरित किया करते थे जो भेड़-बकरियों का शिकार किया करते थे, लेकिन अब वो गायब हो चुके हैं।

मौजूदा समय में नौगढ़ के जंगलों में तेंदुआ, भालू, चिंकारा, चीतल, चौसिंघा, सांभर, लकड़बग्घा, लोमड़ी, जंगली सूअर, जंगली बिल्ली, सेही, खरगोस, बंदर, लंगूर, नीलगाय, बंदर आदि मौजूद हैं। वन्य जीवों के अलावा रंग-विरंगे पक्षी-मोर, चौखाड़ा, मुर्गा, तीतर, बटेर, चील, ब्रम्हीचील, राज गिद्ध, गिद्ध, जंगली कौवा, नीलकंठ, जंगली उल्लू, ब्राउन उड उल्लू, वया, कठभोड़वा, कोयल, जंगली मौना, तोता, बुलबुल का भी इस जंगल में बसेरा है। सरीसृप जीवों में अजगर, करैत, धामिन, पनिहां सांप, गोह, गिरगिट, काला बिच्छू, भूरा बिच्छू आदि पाए जाते हैं।

नौगढ़ के जंगलों के बीच से निकलने वाली चंद्रप्रभा और कर्मनाशा नदियों में मछलियों की रोहू, भाकुर, नैन, कतला, मागुर,  कोह, सिधरी, टेंगरा, सौर, वाम, सिंघी आदि प्रजातियां पाई जाती हैं। राजदरी और औरवाटांड के जल प्रपात की चट्टानों में गिद्धों की कालोनियां थी, जिनका वजूद अब लगभग मिट चुका है। 

एक हजार साल पुरानी सुरंगें

नौगढ़ वन विश्राम गृह के पास एक पत्थर की गुफाओं से होती हुई करीब एक हजार साल पुरानी सुरंग है जो विजयगढ़ तक जाती है। साल 1961 में इसके मुख्य द्वार को बंद कर दिया गया था। एक दूसरी सुरंग चुनारगढ़ तक जाती थी। इसे पहले नैनागढ़ गुफा के नाम से जाना जाता था। देवदरी जल प्रपात के पास एक काफी पुराना वृक्ष है जिसमें एक ही तने से पांच प्रजातियों के वृक्ष निकले हैं, जिसमें पीपल, पाक, वट, समी और गूलर के वृक्ष हैं। इसे पाकड़ पेड़ का नाम दिया गया है। मान्यता है कि इसी वृक्ष की वजह से इस स्थान को देवदरी के नाम पर रखा गया था।

चंदौली और सोनभद्र के जंगलों में आदिवासियों की आठ जनजातियां रहती हैं जिनमें कोल, खरवार, भुइया, गोंड, ओरांव या धांगर, पनिका, धरकार, घसिया और बैगा हैं। ये लोग जंगलों से तेंदू पत्ता, शहद, जलावन लकड़ियां, परंपरागत औषधियां इकठ्ठा करते हैं और इसे स्थानीय बाज़ार में बेचकर अपनी रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम करते हैं। कुछ आदिवासियों के पास ज़मीन के छोटे टुकड़े भी हैं, जिन पर धान या सब्ज़ियों की खेती से उनकी ज़िंदगी गुज़रती है। मौजूदा समय में अपनी रोजी रोटी का इंतज़ाम करने का बेतरतीब तरीका इनकी ज़िंदगी को समझने के लिए मजबूर करता है।

चंदौली के बांध-बंधियों का इस्तेमाल सिंचाई करने के बजाय मत्स्य पालन के लिए हो रहा है। नतीजा यह है कि चंदौली जिले के कई इलाके सूखते जा रहे हैं। मौजूदा समय में पर्यावरण, वन और वन्य जीवों के प्रति जनमानस में उपेक्षा का भाव बढ़ता जा रहा है। इससे प्राकृतिक ही नहीं, सामजिक संतुलन भी बिगड़ रहा है, जिससे आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय स्थितियां गड़बड़ाती जा रही हैं। सबसे अहम बात यह है कि चंदौली के जंगलों के दम पर ही देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र बनारस सांस लेता है। चंदौली के पर्यावरण और वनों को बचाने के लिए सार्थक पहल नहीं की गई तो पूर्वांचल में लाखों लोगों के फेफड़े जाम हो जाएंगे और दिलों की धड़कन रुकने लगेंगी।

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