चंदौली का कुबराडीह: गुलामी से आज़ादी तक का सफर…!

चंदौली का कुबराडीह: गुलामी से आज़ादी तक का सफर…!

संस्मरणः विजय विनीत

कभी भुखमरी और दरिद्रता के काले साए में सिसकता चंदौली का कुबराडीह, आज विकास और उम्मीदों का चेहरा बन चुका है। 24 बरस पहले, यही गांव भूख से बिलखती महिलाओं, सूखे खेतों और चबाई जा रही लकड़ियों की तस्वीर दिखाया करता था। हर कोना गवाही देता था उस त्रासदी की, जो केवल भूख और बेबसी नहीं, बल्कि इंसानी गरिमा के पतन का प्रतीक थी।

मुझे वह दिन आज भी याद है जब पहली बार कुबराडीह के एक पिचके हुए कुएं के पास बच्चों को लकड़ी चबाते देखा था। आंखों में खालीपन और पेटों की भूख, उनके जीवन के सच थे। वहां हर कदम पर भूख और बदहाली का साक्षात्कार होता था। लेकिन आज, वही कुबराडीह चमचमाते गांवों की कतार में खड़ा है।

कुबराडीह की किस्मत उस दिन बदलनी शुरू हुई, जब सरकार की नरेगा योजना ने इस गांव के दरवाजे खटखटाए। पहले पहल, लोगों ने इसे शक की नजर से देखा। लेकिन जब कुछ हाथों को काम और पेटों को भोजन मिला, तो उम्मीदों ने फिर से जन्म लिया। बच्चों के पिचके गाल भरने लगे, और पेटों की भूख धीरे-धीरे गायब हो गई।

अब गांव की मिट्टी पर सूखे खेत नहीं, हरे-भरे धान के पौधे लहलहाते हैं। जिन बच्चों के पैरों में कभी जूते नहीं होते थे, वे अब स्कूल की ड्रेस में मुस्कुराते हुए दिखते हैं। महिलाएं, जो कभी गुलामी का शिकार थीं, अब सिलाई और छोटे-मोटे रोजगार के जरिए आत्मनिर्भर हो चुकी हैं।

गांव की बदलती तस्वीर

पहले जब खबरची या गैर-सरकारी संगठन कुबराडीह आते थे, तो उन्हें भूख, प्यास और गरीबी का साक्षात्कार होता था। लेकिन आज, वे चमचमाते गांव में कदम रखते हैं। बिजली के खंभों पर टिमटिमाती एलईडी लाइटें, पक्की सड़कों पर दौड़ती मोटरसाइकिलें, और हर घर पर लगे इंडिया मार्का हैंडपंप, कुबराडीह के विकास की कहानी कहते हैं।

मुझे आज भी याद है, उस दिन की बात जब गांव की एक बुजुर्ग महिला ने कहा था, “बाबू, हमारे गांव में पानी के लिए बस एक कुआं है। गर्मियों में वह भी सूख जाता है।” वह कुआं अब बीते कल की बात हो गया है। आज हर घर के पास पीने के पानी की सुविधा है।

कुबराडीह में पलायन आज भी एक सच्चाई है। लेकिन यह पलायन ही इस गांव के विकास का आधार बन गया। जो युवक मजबूरी में शहरों की ओर गए, वे वहां से कमाई करके न केवल अपने परिवारों का सहारा बने, बल्कि गांव की तरक्की में भी योगदान दिया।

गांव के नौजवानों ने अपनी मेहनत से कुबराडीह को हरा-भरा किया है। उन्होंने अपने घरों में बिजली, बच्चों की पढ़ाई के लिए स्कूल, और परिवारों के लिए पक्के मकान बनाए हैं। उनके इस संघर्ष ने गांव की किस्मत बदल दी है।

अब कुबराडीह में भूख से बिलखते बच्चे नहीं दिखते। न ही लकड़ी चबाती महिलाएं। उनके स्थान पर अब चमचमाते कपड़े पहने बच्चे, मुस्कुराती महिलाएं, और काम में जुटे पुरुष दिखते हैं। गांव में मंगल गीत गूंजते हैं, और हर घर में खाना पकाने के लिए गैस चूल्हा है।

जब मैं गांव के एक युवा से मिला, जिसने शहर से कमाई करके अपने खेत को सिंचाई की नई तकनीक से हरा-भरा किया था, तो उसकी आंखों में आत्मविश्वास और गर्व साफ झलक रहा था। वह कहता है, “हमने गरीबी देखी है। अब अपने बच्चों को वह नहीं देखने देंगे।”

तरक्की की नई इबारत

कुबराडीह अब न केवल भुखमरी से आज़ाद है, बल्कि आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन चुका है। गांव में बने शानदार स्कूल, नहरें, और सड़कों ने इसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है।

यह सब केवल सरकारी योजनाओं या नीतियों का नतीजा नहीं है। यह उस संघर्ष का परिणाम है, जो गांववालों ने अपनी बेबसी से लड़कर हासिल किया। कुबराडीह की कहानी हर उस गांव के लिए प्रेरणा है, जो गरीबी और बेबसी के चंगुल में फंसे हुए हैं।

हमें गर्व है कि हमारी कलम ने कुबराडीह की बेबसी की तस्वीर दुनिया के सामने रखी। आज जब हम उस बदले हुए कुबराडीह को देखते हैं, तो दिल को सुकून मिलता है। यह महसूस होता है कि हमारी कोशिशें रंग लाई हैं।

कुबराडीह आज केवल एक गांव नहीं, बल्कि उम्मीद और तरक्की की मिसाल है। यह उस सपने की कहानी है, जो भूख और गुलामी से आज़ादी की राह पर चलता है। कुबराडीह की इस यात्रा को देखकर हमें यह विश्वास हो चला है कि बदलाव संभव है—बस जरूरत है, इरादे और मेहनत की।

बदलाव की कहानी, उम्मीदों की ज़ुबानी

मोबाइल पर गाने सुनते और ट्रिन-ट्रिन साइकिल बजाते हुए स्कूल जाती लड़कियां और लड़के जब सुबह की धूप में चमकते नजर आते हैं, तो लगता है मानो यह कोई सपना हो। यही कुबराडीह है, जहां कभी बच्चों के हाथों में किताबें नहीं, बल्कि खाली कटोरी और बासी रोटियां हुआ करती थीं। डेढ़ दशक पहले यह गांव अपनी बदहाली और बेबसी के लिए जाना जाता था, लेकिन आज यहां की खुशहाली और मुस्कान की कहानी हर किसी की जुबान पर है।

कुबराडीह को संवारने में सरकार ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। किसानों को न केवल बैंक लोन मिला, बल्कि अनुदान ने उनकी परेशानियों को कम कर दिया। सिंचाई के लिए बनी नहरों ने सूखे खेतों को लहलहाते धान के खेतों में बदल दिया। एक्टिविस्ट बिंदू सिंह इसे याद करते हुए कहती हैं, “यह मीडिया की ताकत थी जिसने इस अभागे गांव को दुनिया के संपर्क में लाया।”

डॉ. लेनिन रघुवंशी, जो वर्षों से सामाजिक परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं, का मानना है कि कुबराडीह की कहानी केवल बदलाव की नहीं, बल्कि जागरूकता की है। उन्होंने कहा, “मीडिया ने जहां नौकरशाही को झकझोरा, वहीं गैर सरकारी संगठनों ने यहां के लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया।”

कुबराडीह की महिलाओं ने भी इस बदलाव में अहम भूमिका निभाई। कुमकुम देवी और मीरा देवी आज पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती हैं, “हमारे गांव की तरक्की मीडिया की देन है। उन्होंने हमारी आवाज को दुनिया तक पहुंचाया।” यह बदलाव केवल बाहर से नहीं आया; गांव के लोगों ने भी अपने हिस्से का संघर्ष किया।

गुल्लू, रामजग, राम सेवक और शांति जैसे ग्रामीणों का मानना है कि कर्मनाशा नदी के कहुववा घाट पर बने तीन करोड़ के पुल ने उनकी जिंदगी को आसान बना दिया। अब नौगढ़ की दूरी महज सोलह किलोमीटर रह गई है, जिससे बाजार और रोजगार के नए अवसर खुले हैं।

कुबराडीह से सटे पड़रिया, धनकुंवारी, काशीपुर और सरसहवां तक पहुंची नहरों ने न केवल पानी की समस्या को खत्म किया, बल्कि खेती के लिए नई संभावनाएं भी खोलीं। धान की खेती का रकबा बढ़ा, और लोगों को सूखे से राहत मिली।

कैसे आई बदलाव की बयार

मुझे आज भी वह दिन याद है, जब मैंने फोटोग्राफर बिहारी लाल जायसवाल के साथ कुबराडीह के एक बूढ़े दंपति से बात की थी। उनकी आंखों में आंसू थे—भूख और दर्द के। वे कहते थे, “बाबू, इस गांव का कुछ करवा दो। हमारे बच्चे भी खुश हों, पेट भर खा सकें।” उस दिन हमने ठान लिया था कि कुबराडीह का अंधेरा खत्म करना है।

आज वही बूढ़ा दंपति एक नए मकान में रहता है। उनके पोते-पोती स्कूल जाते हैं। घर में टीवी चलती है, और भोजन गैस चूल्हे पर बनता है। यह सब देखकर लगता है कि हमारी मेहनत सफल हुई।

कभी इस गांव के चारों ओर नक्सलियों का डर था। कुबराडीह के युवक बंदूक उठाने को मजबूर थे। लेकिन आज वही युवक खेती, छोटे उद्योग और व्यापार के माध्यम से न केवल अपना जीवन संवार रहे हैं, बल्कि गांव की तरक्की में भी योगदान दे रहे हैं। हरे-भरे खेतों में धान की फसलें लहलहा रही हैं। इस गांव में अब सब्जियों की भी खेती होती है ।

कुबराडीह की महिलाएं भी आत्मनिर्भर हो रही हैं। सिलाई, बुनाई, और छोटे उद्योगों से उनकी आमदनी बढ़ी है। आज कुबराडीह में हर घर में रोशनी है। हर आंगन में खुशी है। गांव के स्कूल में बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं और नए सपने देख रहे हैं। जिन नंगे पांव बच्चों को कभी हमने अपनी रिपोर्ट में देखा था, वे अब चमचमाते जूतों में स्कूल जाते हैं।

आज जब कुबराडीह के गांववाले हमारे साथ बैठे थे, तो उनकी खुशी शब्दों में बयां नहीं हो पा रही थी। एक बुजुर्ग महिला ने कहा, “बाबू, पहले हम सोचते थे कि हमारी जिंदगी ऐसे ही गुजर जाएगी। लेकिन अब लगता है, हमारी औलाद का भविष्य अच्छा होगा।”

कुबराडीह के लोग आज यह कहानी लिख रहे हैं कि कैसे एक गांव अपनी तकदीर खुद बदल सकता है। भूख और बेबसी से हरियाली और तरक्की तक का यह सफर हमें सिखाता है कि बदलाव नामुमकिन नहीं है। बस जरूरत है, सही दिशा और इरादे की।

यह कहानी सिर्फ कुबराडीह की नहीं है; यह हर उस जगह की कहानी है, जहां बदलाव की गुंजाइश है। यह दिखाता है कि अगर सही इरादे और मेहनत हो, तो सबसे अंधेरी रात भी सुबह में बदल सकती है। कुबराडीह आज सिर्फ एक गांव नहीं, बल्कि एक मिसाल है। पूर्वांचल का यह ‘कालाहांडी’ अब विकास की मिसाल बन चुका है।

तरक्की की तस्वीर आप खुद देखें

कुबराडीह… एक ऐसा नाम जो कभी भूख, गरीबी, और बेबसी का पर्याय बन चुका था। पूर्वांचल का ‘कालाहांडी’ कहलाने वाला यह गांव आज विकास और उम्मीदों की नई परिभाषा गढ़ रहा है। जहां कभी भूख से दम तोड़ती जिंदगियां थीं, वहां अब हरियाली की चादर बिछी है। बच्चों की मासूम हंसी और घर-घर से उठते मंगल गीत, इस गांव के नए सफर की गवाही दे रहे हैं।

मैंने उस कुबराडीह को देखा था, जहां हर कोना बेबस था। नंगे पांव चलते बच्चे, चूल्हे पर चढ़ी खाली हांडी, और आंखों में डर समेटे लोग। लेकिन आज वही कुबराडीह रोशनी से जगमगा रहा है। गांव के लोग कहते हैं, “हमारी तसवीर बदल गई है, और इसके लिए हमने खुद को बदल डाला।”

यह कहानी सिर्फ कुबराडीह की नहीं है; यह उस बदलाव की है, जो तब शुरू हुआ जब सरकारी सिस्टम की बेशर्मी को चुनौती दी गई। हमने न केवल सरकारी मशीनरी के ढीले पेंच कसे, बल्कि यह सुनिश्चित किया कि योजनाओं का लाभ सीधे गांववालों तक पहुंचे। जिस गांव में पहले राशन कार्ड से लेकर मनरेगा तक हर सरकारी योजना का दुरुपयोग होता था, वहां अब हर हाथ में काम और हर पेट में भोजन है।

यदि आप अब भी कुबराडीह की बदहाली के पुराने किस्से सुनकर यकीन नहीं कर पा रहे हैं, तो यहां आकर बदलाव की तस्वीर देख सकते हैं। सड़कें चमचमा रही हैं, हरियाली मुस्कुरा रही है, और लोग आत्मसम्मान के साथ जिंदगी जी रहे हैं।

कभी भूख से बिलखते और खाली आंखों से सपने देखने वाले बच्चे, आज आत्मविश्वास के साथ स्कूल जा रहे हैं। महिलाएं घर के काम तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर बनकर अपने परिवारों को संवार रही हैं।

कुबराडीह अब केवल एक गांव नहीं, बल्कि उस संघर्ष, उम्मीद और बदलाव की मिसाल है, जो हर मुश्किल को पार कर सकती है। यह दिखाता है कि जब सरकार, समाज और मीडिया एक साथ आते हैं, तो सबसे अंधेरी रातें भी उजाले में बदल सकती हैं। यह गांव अब खुद अपनी कहानी लिख रहा है—एक ऐसी कहानी, जो हर भारतीय गांव के लिए प्रेरणा बन सकती है।

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