विजय विनीत
सोच को तुम ले जाओ अपने शिखर तक,
…कि उसके आगे सारे सितारे भी झुक जाएं।
ना बनाओ अपने सफर को किसी कश्ती का मोहताज,
चलो इस शान से कि तूफान भी झुक जाए…।
यह सोच थी वरिष्ठ पत्रकार शशांक शेखर त्रिपाठी जी की। सकारात्मक चिंतन और मानवीय मूल्यों के लिए वह अड़ते थे, लड़ते थे। चाहे अपना हो या पराया। पत्रकारिता से लेकर समाजसेवा तक। तराई में फैले आतंकवाद की समस्या रही हो या फिर बदायूं का दंगा। प्रतिद्वंद्वी अखबारों को पछाड़ने के लिए जांबाज कमांडर की तरह अपने साथियों का नेतृत्व खुद करते थे।
अगस्त 1989 में दैनिक जागरण का बरेली संस्करण लांच होना था। जिम्मेदारी मिली थी लखनऊ के वरिष्ठ संपादक विनोद शुक्ला जी को। बरेली की लांचिंग टीम का नेतृत्व करने के लिए भेजे गए शेखर त्रिपाठी जी। साथ में थे श्री स्वदेश कुमार (मौजूदा समय में सूचना आयुक्त), विष्णु त्रिपाठी जी (वरिष्ठ संपादक दैनिक जागरण-नोएडा) और खुद मैं। दैनिक जागरण की लांचिंग के कुछ ही दिन बाद बदायूं में दंगा हुआ। दंगाइयों ने ट्रेन में बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया। हिंसा बदायूं शहर से लेकर गांवों तक भड़क गई। सैंकड़ों घर जलाए गए…। हर तरफ तबाही का मंजर था…। कर्फ्यू था…। ट्रेन में कत्लेआम की घटना को पुलिस पी जाने पर उतारू थी। इसलिए मीडिया को बदायूं की तरफ जाने की पाबंदी थी। हर तरफ पुलिस और प्रशासन का पहरा था। मगर हमारे कमांडर शेखर त्रिपाठी कहां रुकने वाले थे। पुलिस, प्रशासन, खुफिया एजेंसियों की बंदिशों और दंगाइयों के आतंक से बेखौफ हम शेखरजी के साथ हर रोज दंगे की कवरेज के लिए बरेली से बदायूं आते-जाते रहे। जान हथेली पर लेकर कवरेज करते रहे।
दंगे की लपटों को काबू में करने के लिए शेखरजी खुद रपटें लिखते और दंगाइयों पर कारर्वाई के लिए हमसे भी शानदार रपटें लिखवाते रहे। अराजक सुरक्षा बलों के पेंच भी कसते रहे। जिस बरेली में सिर्फ अमर उजाला की तूती बोलती थी, उसमें शेखरजी ने तगड़ी कील ठोंकी। विश्वसनीयता कायम की, जिसके बल पर पाठकों का बड़ा वर्ग जागरण से जुड़ गया। चंद दिनों में दैनिक जागरण का बरेली संस्करण बरेली ही नहीं, कुमाऊं संभाग में भी चर्चित हो गया।
पंजाब का आतंकवाद तराई में छलका तो नक्सली समस्या को कवर करने का टास्क मुझे मिला। शुरुआती दिनों में शेखरजी के नेतृत्व में अनगिनत बेहतरीन रपटें लिखीं। बाद में शेखरजी लखनऊ लौट गए और मुझे बरेली रोक दिया गया। तराई के आतंकवाद पर उम्दा रिपोर्ट लिखने के लिए शेखरजी लखनऊ से गूढ़ मंत्र देते रहे।
सालों बाद शेखरजी का साथ मिला बनारस हिन्दुस्तान में। वह स्थानीय संपादक बनकर आए थे। साल 2003 में बनारस के आदमपुर इलाके के पौराणिक ओंकालेश्वर मंदिर के पास मजार में अराजकतत्वों में आजगनी कर दी तो बलबा हो गया। मैंने फौरन शेखरजी को सूचना दी। बगैर समय गंवाए वह मेरे साथ बाइक पर दंगे की कवरेज पर निकल पड़े। साथी आशुतोष पांडेय और फोटोग्राफर मंसूर आलम भी हमारे साथ थे। पुलिस और प्रशासन की मुश्तैदी के बावजूद उपद्रवियों ने पथराव शुरू कर दिया। शेखरजी तो बच गए, पर मैं दंगाइयों का निशाना बन गया। पथराव में गंभीर रूप से घायल हुआ। सिर में सात-आठ टांके लगे। इलाज के बाद भी मैं मौके पर डटा रहा। शेखरजी ने दंगे की लाइव रिपोर्टिंग मुझसे ही कराई। फ्रंट पेज से लेकर अंदर के पन्नों पर मेरी रपटें छपीं।
अनगिनत पत्रकार और संपादक बाहर से बनारस आए, लेकिन शेखरजी की तरह शायद ही इस शहर को कोई पढ़ पाया हो…। बाबा भोले की नगरी की मर्म को समझ पाया हो…। शेखरजी मानते थे कि काशी फकत माटी-पत्थर की नगरी नहीं। यह आस्था, विश्वास और मान्यताओं की ऐसी धरती है जहां तर्कों के सभी मिथक धराशायी हो जाते हैं। शेखरजी के आग्रह पर दुनिया के महान चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन काशी आए। शेखरजी के साथ उन्होंने गंगा घाटों के बेजान पत्थरों में जीवन का नया रंग और आस्था का समंदर ढूंढा। काशी के उन घाटों के मर्म को भी समझा जहां कभी तुलसीदास ने मानस को शब्द दिए, तो कभी कबीर और रैदास को जीवन की सत्यता का बोध कराया।
यकीनन शेखरजी बनारस के नहीं थे, लेकिन उन्होंने चंद दिनों में इस शहर को, बनारसी संस्कृति को, बनारसी खान-पान को अपना बना लिया। बनारसियों से एेसा रिश्ता जोड़ लिया जो न कभी टूटा और न टूटेगा…। शेखरजी ने बनारस में आदमी की गूढ़ जिंदगी को तलाशा। खबरों के जरिये कहीं योग में भोग तो कहीं मौत में मंगल, तो कभी आस्था को स्वर दिया। जोखिम भी उठाया। साथ ही पूर्वांचल के खुंखार बाहुबलियों से मोर्चा भी लिया।
शेखरजी ने काशी को सामने दिखती तस्वीरों से पार जाकर देखने की कोशिश की। अपने विचारों के जरिए यह बार-बार जताने की कोशिश करते रहे कि बनारसी सिर्फ चंदन-टीका नहीं लगाते। छतरियां नहीं ओढ़ते। पोथी-पतरों में नहीं बसते। ये कहीं मोक्ष का रास्ता दिखाते हैं तो कहीं सांप्रदायिक सद्भाव और अपने सामाजिक व धार्मिक मूल्यों की परतों को खोलते हैं। बनारसी तीज-त्योहार, जीवन-मरण से लेकर चुनावी चौरस भी बिछाते हैं।
जाहिर है, बनारस है और रहेगा। मगर बनारस के साथ शेखरजी की सोच और यादें हमेशा जिंदा रहेंगी। उनका दार्शनिक अंदाज जिंदा रहेगा। किसी संगीत की सुरीली धुन की तरह। जीवनदायिनी गंगा के सफर और प्रवाह की तरह….।