सामाजिक सरोकार के संवेदनशील मुद्दों पर गांधी जी के बंदर की भूमिका में मत रहिए

सामाजिक सरोकार के संवेदनशील मुद्दों पर गांधी जी के बंदर की भूमिका में मत रहिए

डाक्टर ओमशंकर

समस्याओं का समाधान सिर्फ नौकरशाहों के हाथ में ही छोड़ देना कहां तक उचित है? क्या नगर के जनप्रतिनिधियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को पहल करते हुए प्रशासन को झिंझोड़ने की कोई जिम्मेदारी नहीं है? बात कर रहा हूं मैं माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी की।

मोदी जी तीसरी बार भी काशी से ही चुनावी जंग में उतरने जा रहे हैं, यह अब निश्चित हो चुका है। विगत दस वर्षों के दौरान काशी विश्वनाथ की नगरी में यदि कोई यह कहे कि कोई बदलाव नहीं आया है, तो इसे उसकी पूर्वाग्रही सोच ही कहा जाएगा। काशी इस दौरान काफी बदली है, बदल रही है और बदलती रहेगी। काशी विश्वनाथ कोरिडोर के निर्माण के बाद शहर की जीडीपी में आई उछाल भी सर्वविदित है।

क्या काशी का समग्र विकास सिर्फ इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने तक हीं सीमित रहना चाहिए? क्या हम इसी को मील का पत्थर मान लें? स्थानीय स्तर पर सरकारी दफ्तरों में पहले से फैले व्यापक भ्रष्टाचार में क्या कोई कमी आई है और क्या नगर की सफाई, विद्युत व जलापूर्ति सुचारू रूप से जारी है? क्या सरकारी अस्पतालों में सरकारी दावे के अनुसार व्यवस्था वाकई जमीनी स्तर पर नजर आ रही है? क्या आज यहां के निजी नर्सिंग होम द्वारा लिए जा रहे सेवा शुल्क में पारदर्शिता और समरूपता स्थापित करके आम मरीजों को शोषण से मुक्ति दिला दी गई है? इन सब पर नजर कौन रखेगा, यह किसकी जिम्मेदारी है, यह बहुत बड़ा सवाल है जिसका जवाब किसी के पास नहीं है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि बीएचयू के मेडिकल संस्थान में भी विगत दशक में हम लोगों के निरंतर प्रयास तथा सरकार की तत्परता से सुविधाओं के लिहाज से काफी विस्तार हुआ है। लेकिन यहां भी सवाल वही है कि क्या उन सुविधाओं से मरीजों को ज्यादा लाभ हुआ है अथवा अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक और विश्विद्यालय के कुलपति को? उत्तर कोई भी आसानी से अधिकारियों के पक्ष में हीं देगा, न कि जरूरतमंद मरीजों के पक्ष में।

भ्रष्टाचार के स्त्यापित अपराधी डॉ के के गुप्ता जी जैसे प्रशासनिक अधिकारियों की मनमानी इतनी बढ़ गई है कि वो अब अपने से उच्च अधिकारियों, यहां तक कि निदेशक महोदय के लिखित आदेशों को भी मानने से सीधे इनकार कर देते हैं। ऐसा वो इसलिए कर पा रहे हैं क्योंकि उनको कुलपति जी का सीधा संरक्षण प्राप्त है। प्रधानमंत्री जी ने जिस सुपर स्पेशलिटी भवन का उद्घाटन फरवरी 2022 में किया था, वहां हृदय विभाग को आवंटित बिस्तरों पर लगातार दो सालों से अवैध रूप से ताला लगाकर रखा गया है। बिस्तर खाली होने के बाद भी पिछले 25 महीनों में पैंतीस हजार से ज्यादा मरीजों को बिस्तर नहीं मिला और उनमें से हजारों मरीजों की तो जान चली गई। ऐसे बेईमान और मानवता को शर्मसार करनेवाले जल्लाद चिकित्सा अधीक्षक आज भी प्रधानमंत्री जी के संसदीय क्षेत्र स्थित महामना की बगिया में कुर्सी पर बैठकर इसे प्रदूषित कर रहे हैं।

मैं एक चिकित्सक और विभागाध्यक्ष होने के नाते लगातार मरीजों के साथ हो रहे इस अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाता आ रहा हूं, लेकिन यहां के कुलपति जी की न तो कुंभकर्णी नींद टूट रही है और न हीं उनके अंदर की मानवता हीं जाग रही है। इस दौरान कई बार कोशिश करने के बाद भी न तो कुलपति जी ने मुझे मिलने का समय दिया और न हीं भ्रष्टाचारी चिकित्सा अधीक्षक डॉ के के गुप्ता को हटाकर मरीजों को हक दिलाने की चेष्टा हीं की। बीएचयू अधिकारियों की अमानवीयता जब बर्दाश्त की सीमा से बाहर हो गई तो मैंने मरीजों के जीवन जीने के अधिकार की रक्षा के लिए अपने जान की बाजी लगाने का दुःखी मन से निर्णय लिया।

जब 8 मार्च से मैंने आमरण अनशन करने की सूचना कुलपति महोदय और संस्थान निदेशक महोदय को दिया तो निदेशक महोदय और डीन साहब ने तत्काल प्रभाव से हृदय विभाग को सुपर स्पेशियलिटी भवन का संपूर्ण चौथा तल्ला और आधा पांचवा तल्ला चिकित्सा अधीक्षक को तुरंत प्रभाव से देने और उसके डिजिटल लॉक खोलने का आदेश दिया, जिसे भ्रष्टाचार में सर से पांव तक लिप्त चिकित्सा अधीक्षक डा के के गुप्ता जी ने मानने से साफ इंकार कर दिया। मैंने करोड़ो की धनराशि ठुकरा कर यहां अपनी सेवा देने का निर्णय इसलिए लिया था क्योंकि मेरे जीवन का उद्देश्य मानव सेवा था, पैसा कमाना नहीं। इन्हीं उसूलों पर अबतक चलता आया हूं और आगे भी आखिरी सांस तक चलता रहूंगा।

मैंने हमेशा से हीं सिर पर कफन बांधकर गरीबों और निराश्रितों की लड़ाई अबतक लड़ी है और एक बार फिर से आमरण अनशन करने को बीएचयू के अधिकारियों द्वारा मजबूर किया जा रहा हूं। इस लड़ाई में मेरी जान चली जाए अथवा नौकरी, मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। आज नहीं तो कल सही जिस दिन इन भ्रष्ट अधिकारियों की जांच होगी, मुझे यकीन है ये सब जेल के स्लाखों के पीछे होंगे। समझ में नही आता कि स्थानीय राजनीतिक पदाधिकारी चाहे सत्तापक्ष के हों अथवा विपक्ष के वो क्यों इतने अति संवेदनशील मुद्दे पर अबतक मौन साधे हुए हैं?

आम आदमी की संवेदनाओं से जुड़े इस मसले पर उनको भी तो धरना- प्रदर्शन और विरोध करना चाहिए, क्योंकि यहां इलाज को आनेवाले मरीज कहीं न कहीं उनसे भी तो जुड़े होते हैं। संघ के स्वयंसेवक दावा करते हैं कि वो किसी भी आपदा के समय बिना किसी प्रचार के सेवा में लग जाते हैं, पर मानवीयता को झकझोर देने वाले इस अतिसंवेदनशील मुद्दे पर वो लोग भी चुप्पी साधे हुए हैं। क्या वो इनको मानव आपदा नहीं मानते?

नगर के जन प्रतिनिधि, राजनीतिक दल, प्रधानमंत्री जी का संसदीय कार्यालय और तमाम सामाजिक कार्यकर्ता यदि ऐसी गंभीर समस्याओं को नजरअंदाज़ करेंगे तो कैसे नगर का विकास होगा? इन्हें चाहिए कि वे जनसंवाद का संरक्षण करें, लेकिन अत्याचार और भ्रष्टाचार के मामले में उन्हें कैसे अपनी नजरें बंद रखें। अब इसका वक्त आ गया है, नहीं तो विकास की यात्रा कभी समाप्त ही नहीं होगी।

( लेखक बनारस के सरसुंदर लाल हास्पिटल में हृदय रोग विभाग के अध्यक्ष हैं। विचार निजी हैं)

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