काशी में मर रहा बनारसी लंगड़े का बाप

काशी में मर रहा बनारसी लंगड़े का बाप

बनारसी लंगड़े की दीवानी है समूची दुनिया

विजय विनीत

काशी में लंगड़े का बाप मर रहा है। बूढ़ा हो गया है। बीमार है और अब उसकी सांसें थम रही हैं। सर्जरी भी हो चुकी है। सारी कवायद बेअसर साबित हो रही है। यह वही बनारसी लंगड़ा है जिसकी समूची दुनिया दीवानी है। इसके अनूठे स्वाद की…इसके गूदे की…इसके सुगंध की..। दशहरी, चौसा ही नहीं, अल्फांसो का भी बाप है बनारसी लंगड़ा।

कचहरी के कंपनी गार्डन में बनारसी लंगड़े के क्लोन को जिंदा रखने के लिए उद्यान महकमा सालों से संजीवनी पिलाने में जुटा है। मगर अफसोस ! आम के इस  दुर्लभ पेड़ की धमनियां जवाब देती जा रही हैं। डालियां खोखला होती जा रही हैं। सिर्फ डालियां ही नहीं, समूचा पेड़ ही खोखला हो चुका है।

सौ साल पुराना है लंगड़े का क्लोन

 बनारसी लंगड़ा का क्लोन करीब सौ साल पुराना है। इसी से हर साल बनारसी लंगड़े का ओरिजिनल पौध तैयार की जाती है। बागवान इसे हाथों-हाथ लेते हैं। पौधों की बिक्री शुरू होते ही मच जाती है लूट।

उद्यान विभाग के डिप्टी डायरेक्टर दफ्तर के पीछे बीमार हाल में खड़ा बनारसी लगड़े का विशाल पेड़। इसे जिस मिट्टी में लगाया गया है, वही है इसकी प्योरटी का राज। इस पेड़ पर लगने वाले फलों में जो मिठास, रंग और गंध होती है, वह दुर्लभ होती है। समूचे बनारस में लंगड़ा का कोई ऐसा बाग नहीं है जो कंपनी गार्डन के इस पेड़ के फलों की टक्कर ले सके। साल 2018 में बनारसी लंगड़े के क्लोन में गिने-चुने ही फल लगे हैं। ये फल गिनती के हैं।

साधु ने रोपा था लंगड़ा आम

बनारसी लंगड़ा का इतिहास करीब ढाई सौ साल पुराना है। अभिलेखों के मुताबिक शहर के एक शिव मंदिर में किसी साधु के यहां लंगड़ा आम के दो पौधे रोपे गए थे। जिसके फल खाने के लिए लोगों को मिलते थे, लेकिन न बीज दिया जाता था और न ही पौधे की कलम। लंगड़े के स्वाद और मनमोहक सुगंध की खबर काशी नरेश के दरबार तक पहुंची तो राजा खुद मंदिर पहुंचे। पूजन-अर्चन के बाद उन्होंने मंदिर के पुजारी से लंगड़ा आम का कलम लगाने की अनुमति मांगी तो वह इनकार न कर सका। बाद में काशी नरेश के प्रधान माली ने रामनगर में लंगड़ा की कलम लगाई। इस आम का नाम लंगड़ा इसलिए पड़ा, क्योंकि मंदिर में एक साधु द्वारा लगाए गए दुर्लभ पेड़ की हिफाजत करने वाला पुजारी लंगड़ा था। समूचे देश में बनारसी लंगड़ा आम इसी नाम से जाना जाता है।

वाराणसी के कंपनी गार्डन में बनारसी लंगड़े का क्लोन अंग्रेजी हुकूमत ने तैयार कराया था। साल 1915 में एक अंग्रेज कलेक्टर ने मोतीझील से मिट्टी और पौध मंगाकर लंगड़े का रोपण कराया था। तभी से लंगड़ा खड़ा है। बूढ़ा हो चुका है और बीमार भी। लंगड़े के इतिहास को जिंदा रखने के लिए उसकी धमनियों को ताकतवर बनाने की हर संभव कोशिश की जा रही है।

पहले मोतीझील में थे लंगड़ा के आठ क्लोन

बनारस के जाने-माने उद्यानविद सीके सिंह बताते हैं कि 18वीं सदी में प्योर बनारसी लंगड़ा आम के आठ पेड़ महमूरगंज स्थित मोतीझील में थे। शहरीकरण और प्रदूषण के थपेड़ों ने मोतीझील में लंगड़े का  नामो-निशान मिटा दिया। बनारस जिले में लंगड़ा आम के सैकड़ों बाग और हजारों पेड़ हैं। लेकिन कंपनी गार्डन के प्योर लंगड़े का कोई जोड़ नहीं। बनारसी लंगड़े के क्लोन के पास उसकी कलम से एक-दो पौधे लगाए गए हैं। इन्हें लंगड़े की जगह लेने में अभी सालों लग जाएंगे।

उद्यान विभाग के उप निदेशक अनिल सिंह बताते हैं कि कंपनी गार्डन का बनारसी लंगड़ा जिस साल फलता है, उसके फलों के अनगिनत दीवाने खड़े हो जाते हैं। दीवानगी का आलम यह है कि दो-चार फल पा लेने वाले खुद को  सौभाग्यशाली समझते हैं। बनारसी लंगड़े के सर्वाधिक बाग जिले के फलपट्टी चिरईगांव में हैं। जिले में करीब 13 हजार हेक्टेयर में फैले बागों में बनारसी लंगड़ा 90 फीसदी है। मई के आखिर और जून में बनारसी लंगड़ा  बाजार में जबर्दस्त दस्तक देता है।

लंगड़े को पहचाने का सीखें तरीका

अगर आप आम के दीवाने हैं और बनारसी लंगड़े में दिलचस्पी रखते हैं तो खरीदने से पहले इसकी पहचानने का तरीका जान लें।  इसका छिलका ही नहीं, गुठली भी पतली होती है। पकेगा तो हरापन और सफेदी लिए दिखेगा। कार्बाइड से पका होगा तो रंग पीला होगा। ताजा लंगड़े में डंठल भी दिखता है। आम के शौकीन हैं तो पाल डालें अथवा एथ्रेलीन में डुबोकर पकाएं।  कार्बाइड से पके आम बीमारियां बांटते हैं। इन्हें खाने से बचें।

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