शादी से पहले लिव-इन में रहना : कितना सही, कितना गलत?-एक विस्तृत विष्लेषण

विजय विनीत
भारतीय समाज में विवाह को केवल दो व्यक्तियों का नहीं बल्कि दो परिवारों, संस्कृतियों और परंपराओं का संगम माना जाता है। यहां शादी महज एक निजी रिश्ता नहीं, बल्कि एक सामाजिक अनुबंध है, जिसमें परिवार, समाज और धर्म की गहरी भूमिका होती है। ऐसे समाज में अगर कोई युवा जोड़ा शादी से पहले लिव-इन में रहने का निर्णय करता है तो सवाल उठना स्वाभाविक है क्या यह नैतिक है या अनैतिक?
आज का युवा वर्ग इस प्रश्न को परंपरा और आधुनिकता की जंग के रूप में देख रहा है। एक ओर वह अपने जीवन को लेकर स्वतंत्र निर्णय लेना चाहता है, दूसरी ओर परिवार और समाज की नैतिकता का दबाव उस पर हमेशा बना रहता है। लिव-इन इसी द्वंद्व का सबसे बड़ा उदाहरण बन चुका है।
लिव-इन रिलेशनशिप का मतलब है कि दो वयस्क बिना शादी किए एक साथ रहकर वैवाहिक जीवन जैसा अनुभव साझा करें। पश्चिमी समाजों में इसे लंबे समय से सामान्य माना गया है, लेकिन भारत में यह विचार अपेक्षाकृत नया है। यहां के पारंपरिक ढांचे में शादी से पहले किसी का एक साथ रहना हमेशा संदेह और आलोचना की दृष्टि से देखा जाता रहा है। महानगरों और बड़े शहरों में इसका चलन तेजी से बढ़ा है। नई पीढ़ी का मानना है कि शादी जीवन का सबसे बड़ा फैसला है। साथी को परखने और समझने का सबसे व्यावहारिक तरीका लिव-इन ही है।
लिव-इन रिलेशनशिप को अपनाने के पीछे कुछ ठोस कारण भी हैं। एक तो यह कि शादी से पहले साथी को गहराई से समझने का मौका मिलता है। कई बार विवाह के बाद छोटे-छोटे मतभेद बड़े विवादों में बदल जाते हैं। लिव-इन में रहकर लोग यह परख सकते हैं कि उनकी सोच, आदतें और जीवन शैली एक-दूसरे से मेल खाती हैं या नहीं। आज की पीढ़ी कैरियर और व्यक्तिगत आज़ादी को लेकर सजग है। लिव-इन में उन्हें यह आज़ादी मिलती है कि वे बिना कानूनी और सामाजिक बंधनों के जीवन को अपने हिसाब से जी सकें।
लिव-इन के दुष्परिणाम
लिव-इन रिलेशनशिप की सबसे बड़ी चुनौती इसकी स्थिरता है, क्योंकि इसमें विवाह जैसा सामाजिक और धार्मिक बंधन नहीं होता। इसलिए असहमति या झगड़े की स्थिति में रिश्ता टूटना आसान हो जाता है। यही कारण है कि इसके दुष्परिणाम भी गंभीर हो सकते हैं।
केस-01: अचानक रिश्ते का टूटना
दिल्ली की एक युवती चांदनी ने अपने कॉलेज के साथी के साथ चार साल तक लिव-इन में रहकर जीवन बिताया। लड़की को उम्मीद थी कि यह रिश्ता विवाह में बदलेगा। लेकिन लड़के ने अचानक शादी से इनकार कर दिया और रिश्ता तोड़ दिया। युवती मानसिक अवसाद में चली गई और उसे लंबे समय तक मनोचिकित्सक की मदद लेनी पड़ी। इस घटना से साफ होता है कि लिव-इन अगर स्पष्ट भविष्य और जिम्मेदारी के साथ न निभाया जाए तो यह जीवन पर गहरा आघात छोड़ सकता है।
केस-02: मुंबई की दर्दनाक घटना
कुछ वर्ष पहले मुंबई में एक चर्चित मामला सामने आया था, जहां लिव-इन में रह रहे एक जोड़े का रिश्ता इतना बिगड़ गया कि बात झगड़े से बढ़कर हिंसा और हत्या तक पहुंच गई। इस घटना ने पूरे समाज को हिला दिया था। इससे यह सवाल भी उठा कि क्या बिना सामाजिक नियंत्रण और पारिवारिक निगरानी के ऐसे रिश्ते अधिक असुरक्षित नहीं हो जाते?
केस-03: पटना का वास्तविक अनुभव
पटना की एक युवती ने एक इंटरव्यू में बताया कि उसने अपने ऑफिस के सहकर्मी के साथ लिव-इन में रहना शुरू किया। शुरू-शुरू में सबकुछ अच्छा रहा, लेकिन धीरे-धीरे लड़के का व्यवहार बदलने लगा। वह घर के कामों और खर्चों में कोई सहयोग नहीं करता था। परिवार वालों से भी यह रिश्ता छिपाना भारी पड़ रहा था। अंततः वह लड़की अकेले ही यह रिश्ता छोड़कर बाहर आ गई। यह अनुभव उसके लिए कड़वा सबक बन गया।
नैतिकता का सवाल
नैतिकता हमेशा से समय, स्थान और समाज के हिसाब से बदलती रही है। जिस चीज़ को कभी अनैतिक कहा जाता था, वही भविष्य में सामान्य और नैतिक मान ली जाती है। सवाल यह नहीं कि लिव-इन नैतिक है या अनैतिक, बल्कि यह है कि क्या यह रिश्ता आपसी सहमति, विश्वास और जिम्मेदारी पर आधारित है। अगर दो लोग ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ लिव-इन में रहते हैं तो यह उतना ही नैतिक है जितना विवाह। अगर यह केवल सुविधा, शारीरिक आकर्षण या प्रयोग के लिए किया जाए तो यह नैतिक संकट खड़ा करता है।
भारत में विवाह केवल दो व्यक्तियों का रिश्ता नहीं है, बल्कि इसे धर्म और संस्कार से जुड़ा हुआ पवित्र बंधन माना जाता है। शादी का अर्थ है एक-दूसरे के साथ जन्म-जन्मांतर तक का वचन। जब कोई युवा जोड़ा बिना विवाह के साथ रहने लगे, तो समाज को लगता है कि यह विवाह की उस पवित्रता का अपमान है। यही वजह है कि लिव-इन को “अनैतिक” कहा जाता है।
भारतीय संस्कृति में परिवार सबसे बड़ी इकाई है। यहां विवाह से पहले किए गए हर कदम में परिवार की राय और आशीर्वाद शामिल होता है। लिव-इन में यह सामूहिकता टूट जाती है। यह केवल दो व्यक्तियों का निर्णय बन जाता है, जिसमें परिवार और समाज की भूमिका शून्य हो जाती है। समाज इसे “जिम्मेदारी से भागना” मानता है और इसलिए इसे अनैतिक करार देता है।
भारतीय समाज में स्त्री की मर्यादा और प्रतिष्ठा को बहुत महत्व दिया गया है। समाज मानता है कि लिव-इन में रहने से लड़की की सुरक्षा और सम्मान पर खतरा हो सकता है। शादी में जहां पति-पत्नी का सामाजिक और कानूनी बंधन होता है, वहीं लिव-इन में यह बंधन कमजोर होता है। अगर रिश्ता टूटे तो लड़की को दोष दिया जाता है और उसे ही अपमान झेलना पड़ता है। इसी डर से समाज इसे “अनैतिक” मानता है।
भारतीय परंपराओं में यह धारणा गहरी बैठी है कि विवाह से पहले संबंध बनाना पाप या धर्मविरुद्ध है। शास्त्रों और धार्मिक ग्रंथों में भी ब्रह्मचर्य का पालन करने और विवाह के बाद ही गृहस्थ जीवन शुरू करने पर बल दिया गया है। लिव-इन इन मान्यताओं के खिलाफ जाता है, इसलिए समाज इसे “विदेशी संस्कृति” कहकर नकारता है और अनैतिक ठहराता है।
भारतीय समाज में विवाह का उद्देश्य केवल पति-पत्नी का संग नहीं, बल्कि वंश को आगे बढ़ाना भी है। शादी से पैदा हुए बच्चों को वैध उत्तराधिकारी माना जाता है। लेकिन लिव-इन में अगर बच्चा जन्म ले, तो समाज उसे आसानी से स्वीकार नहीं करता। यह सोच भी समाज को लिव-इन को अनैतिक ठहराने के लिए प्रेरित करती है। समाज को लगता है कि लिव-इन में स्थिरता नहीं है। जब चाहे रिश्ता बना, जब चाहे तोड़ा। यह अस्थिरता परिवार और सामाजिक ढांचे को कमजोर करती है। रिश्तों का ऐसा मॉडल समाज के सामूहिक नैतिक मानकों के खिलाफ माना जाता है।

गांव की लड़कियों में लिव-इन का क्रेज
गांव की लड़कियां जब पहली बार शहर में कदम रखती हैं तो उनके सामने एक बिल्कुल नई दुनिया खुलती है। गांव की संकरी गलियों, रिश्तेदारों की सख्त निगाहों और समाज की बंदिशों से निकलकर जब वे शहर की भीड़ में खुद को पाती हैं तो उनके मन में एक अनकहा रोमांच और डर दोनों साथ-साथ चलते हैं। गांव में पली-बढ़ी लड़की का जीवन अक्सर घर-परिवार की मर्यादाओं तक सीमित होता है। वहां उसके हर कदम पर निगरानी रहती है-किससे बात की, कहां गई, क्या पहना और किससे दोस्ती की। इन सवालों के घेरे से बाहर निकलकर जब शहर का खुला आसमान मिलता है तो उसे पहली बार यह एहसास होता है कि उसकी ज़िंदगी पर उसका भी हक़ है।
शहर का माहौल उसे धीरे-धीरे बदल देता है। यहां उसे पढ़ाई करने, नौकरी तलाशने और नए दोस्तों से मिलने का मौका मिलता है। हॉस्टल या पीजी में रहते हुए वह देखती है कि उसकी सहेलियां अपने फैसले खुद ले रही हैं। कौन-सा कोर्स करना है, कब घूमने जाना है, या किस रिश्ते को आगे बढ़ाना है। यह आज़ादी उसे भीतर तक छूती है। मनोविज्ञान कहता है कि जब इंसान को खुद निर्णय लेने का अवसर मिलता है तो मस्तिष्क में ऐसे हार्मोन सक्रिय हो जाते हैं जो खुशी, उत्साह और आत्मनिर्भरता का अहसास कराते हैं। यही कारण है कि वह नए-नए अनुभवों की ओर आकर्षित होती है।
लिव-इन संबंध का ख्याल भी इसी यात्रा में उसके मन के दरवाज़े पर दस्तक देता है। यह रिश्ता उसे एक अलग तरह की सहजता और रोमांच का वादा करता है। शादी की जटिलताओं, सामाजिक रस्मों और आर्थिक बोझ से परे यह विकल्प उसे हल्का और सुविधाजनक लगता है। गांव में जहां शादी लड़की की ज़िंदगी का एकमात्र रास्ता समझी जाती है, वहीं शहर में उसे एक और विकल्प दिखता है—एक ऐसा रिश्ता जिसमें वह अपने साथी को समझ सकती है, उसके साथ रह सकती है, और यह सब बिना किसी बड़े सामाजिक दबाव के कर सकती है।
पैसों की आज़ादी भी इस सोच को और मजबूत करती है। गांव में जहां उसका खर्च परिवार पर निर्भर होता है, वहीं शहर में छोटी-छोटी नौकरियां करके वह अपनी कमाई खुद कर सकती है। पैसे खर्च करने की यह आज़ादी उसे यह सिखाती है कि जिंदगी केवल घर और परिवार की जिम्मेदारियों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें उसकी अपनी पसंद-नापसंद भी मायने रखती है। शादी में जहां खर्चे और जिम्मेदारियां भारी पड़ सकती हैं, वहीं लिव-इन में साझा जिम्मेदारियां और कम बोझ उसे ज्यादा संतुलित और व्यावहारिक लगता है।
परिवार, संस्कृति और peer pressure
सामाजिक दायरे का विस्तार भी इस सोच को हवा देता है। शहर में उसे ऐसे दोस्त और सहकर्मी मिलते हैं जो रिश्तों को अलग नजरिए से देखते हैं। वे बिना किसी हिचक के अपने अनुभव साझा करते हैं और जब वह देखती है कि उसकी सहेलियां लिव-इन में रहकर भी पढ़ाई, नौकरी और रिश्ते संभाल पा रही हैं, तो उसके भीतर भी इसे आज़माने का साहस पैदा होता है। कई बार यह केवल व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती, बल्कि दोस्तों और वातावरण से मिला आत्मविश्वास होता है।
लेकिन इस पूरी यात्रा में एक भावनात्मक उलझन हमेशा बनी रहती है। गांव से आई लड़की के दिल में कहीं न कहीं अपने परिवार और समाज के लिए जिम्मेदारी भी होती है। वह जानती है कि अगर घरवालों को उसकी इस पसंद के बारे में पता चलेगा तो शायद वे टूट जाएंगे या समाज उसकी हंसी उड़ाएगा। यही द्वंद्व उसे कई बार असमंजस में डाल देता है। दिल एक ओर आज़ादी चाहता है, तो दूसरी ओर परिवार की इज्जत भी बचानी होती है।
लिव-इन का आकर्षण दरअसल सिर्फ आधुनिकता का असर नहीं है, बल्कि यह उस लड़की की आत्मखोज की यात्रा का हिस्सा है। वह यह समझना चाहती है कि उसका अपना जीवन कैसा हो सकता है अगर वह खुद फैसले ले। लेकिन इस राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। भावनाओं का संतुलन, रिश्ते की गंभीरता और कानूनी सुरक्षा की जानकारी न होने पर यह रिश्ता कभी-कभी टूटकर गहरे घाव भी दे सकता है।
फिर भी, गांव से आई लड़की जब शहर के खुले माहौल में सांस लेती है तो उसके भीतर एक नया आत्मविश्वास जन्म लेता है। उसे लगता है कि जिंदगी केवल दूसरों के फैसलों पर जीने का नाम नहीं है, बल्कि यह उसकी भी है—जिसमें वह अपने तरीके से जी सकती है, अपने सपनों को जगह दे सकती है और अपने साथी का चुनाव खुद कर सकती है। यही सोच उसे धीरे-धीरे लिव-इन जैसे रिश्तों की ओर ले जाती है, जहां वह पहली बार अपने अस्तित्व को बिना किसी मुखौटे और बिना किसी दबाव के जी पाती है।
उदाहरणों से समझिए
- ग्रामीण समाज में प्रतिक्रिया
उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में अगर किसी लड़की-लड़के के बारे में पता चले कि वे बिना शादी के साथ रह रहे हैं, तो परिवार की इज़्ज़त पर सवाल उठ जाता है। कई बार पंचायत तक बैठती है और रिश्ते को तुरंत विवाह में बदलने का दबाव बनाया जाता है। यह दिखाता है कि गांवों में लिव-इन को सीधा-सीधा अनैतिक मानकर नकार दिया जाता है। - परिवारिक इज़्ज़त का सवाल
राजस्थान के एक कस्बे में लिव-इन में रह रहे एक जोड़े को जब समाज ने उजागर किया, तो लड़की के परिवार ने इसे कलंक समझा और शादी के लिए मजबूर कर दिया। यहां स्पष्ट है कि समाज ने इसे “अनैतिक” इसलिए माना क्योंकि इससे परिवार की “इज़्ज़त” दांव पर लग रही थी। - महिला की कठिनाई
बनारस की एक युवती ने अपने दलित बॉयफ्रेंड के साथ लिव-इन में रहना शुरू किया। लड़की की एफएम रेडियो में नौकरी लगी उसने लड़के से अपना रिश्ता तोड़ दिया और शादी करने से इनकार कर दिया। लड़के के लिए नया रिश्ता बनाना मुश्किल हो गया।

पॉलीअमोरी और लिव-इन
पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी अब पॉलीअमोरी (एक से अधिक साथी के साथ प्रेमपूर्ण और पारदर्शी रिश्ते बनाए रखने की इच्छा या अभ्यास) का चलन तेजी से बढ़ने लगा है। इसका मूल विचार यह है कि प्रेम, लगाव और रोमांटिक रिश्ते एक सीमित संसाधन नहीं हैं; व्यक्ति अपनी सहमति और पारदर्शिता के आधार पर कई लोगों से गहरे संबंध रख सकता है। यह आवश्यक नहीं कि यह केवल शारीरिक संबंध ही हों। अक्सर यह भावनात्मक प्रतिबद्धता, देखभाल और साझा जीवन-निर्णयों का भी मामला होता है।
पश्चिमी समाज में पॉलीअमोरी की अवधारणा को समझने के लिए हमें दो बातों पर ध्यान देना होगा। पहला-व्यक्तिगत स्वतंत्रता का जोर और दूसरा-पारंपरिक विवाह-स्थलों का बदलता स्वरूप। पश्चिमी देशों में विशेषकर बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, आत्म-अभिव्यक्ति और लैंगिक समानता को बल मिलना। विवाह को अनिवार्य जीवन लक्ष्य मानने का रुझान कम हुआ और रिश्तों को विविध रूप देने की आजादी बढ़ी। इसके साथ ही सेक्सुअल रिवॉल्यूशन, समलैंगिक अधिकार आंदोलन, और नारीवादी विचारधाराओं ने व्यक्तिगत विकल्पों का मानवीय और नैतिक आधार मजबूत किया।
पश्चिमी देशों में पॉलीअमोरी, ओपन रिलेशनशिप और पैन-रोमांटिक विकल्पों पर खुलकर चर्चा होती है; इन्हें कुछ समुदायों में न केवल व्यक्तिगत विकल्प बल्कि जीवनशैली का हिस्सा माना जाता है। कानूनी रूप से अधिकांश पश्चिमी देशों में “एक साथ कई लोगों के साथ रहना” अपराध नहीं है, बशर्ते सभी वयस्क और सहमत हों और सामाजिक स्तर पर भी शहरी, शिक्षित और खुले वर्ग में इसके प्रति सहनशीलता अधिक मिलती है।
भारत में स्थिति जड़ से अलग है। यहां रिश्तों की व्याख्या केवल दो व्यक्तियों के बीच की निजी बात नहीं रही। वह परिवार, वर्ण, धर्म और सामाजिक प्रतिष्ठा से गहराई से जुड़ी हुई रही है। विवाह उतना ही धार्मिक, सांस्कृतिक और सामुदायिक अनुष्ठान है जितना व्यक्तिगत निर्णय। इसलिए कोई भी रिश्ता जो पारंपरिक विवाह-ढांचे से अलग नजर आता है-उदाहरणस्वरूप लिव-इन, अप्रत्याशित संबंध या पॉलीअमोरी, उसे पारंपरिक समाज अक्सर अस्वीकार्य या अनैतिक मानता है। इस अस्वीकार्यता का सबसे बड़ा कारण केवल नैतिक कटुता नहीं, बल्कि सामाजिक संरचनाओं जैसे वंश, नाम, परिवार की इज्जत, महिला की सम्मान-संरचना और सामूहिक जवाबदेही हैं।
पश्चिम में व्यक्तिगत आत्म-परिभाषा, काउंसलिंग-सांस्कृतिक गठन और सेक्युलर शिक्षा के कारण लोग रिश्तों को बातचीत और सहमति से आकार देना सीखते हैं; पॉलीअमोरी के समुदायों में साधारण रूप से संवाद, सीमा-निर्धारण और नैतिक रूप से सहमति (ethical consent) पर जोर रहता है। भारत में संवाद की परंपरा अलग है-पारिवारिक मध्यस्थता, समाज के मानदण्ड और अनकही अपेक्षाएँ रिश्तों पर भारी प्रभाव डालती हैं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति भारत में पॉलीअमोरियस विकल्प अपनाता है, तो उसे न केवल निजी दिक्कतों बल्कि सामाजिक बहिष्कार, मानहानि और मानसिक दबाव का सामना करना पड़ सकता है।
कानूनी पहलू भी महत्वपूर्ण है। पश्चिम में जहां वैवाहिक और समान नागरिक अधिकार धीरे-धीरे विस्तृत हुए हैं, वहां गैर-पारंपरिक रिश्तों के लिए कानूनी व्यवस्था कभी-कभी लचीली रही है। भारत में हालांकि कोई कानूनी बैनर ताने हुए नहीं-यानी पारस्परिक सहमति से कई वयस्कों का साथ रहना सीधे तौर पर अपराध नहीं माना जाता, लेकिन पारिवारिक कानून, विरासत, बच्चे की वैधता और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दे जटिल बन जाते हैं। उदाहरण के लिए एक से अधिक व्यक्ति के साथ लंबे संबंध में कानूनी मान्यता, साझा संपत्ति के अधिकार, बच्चों की वैधानिक स्थिति और सामाजिक सेवाओं तक पहुंच पर समस्याएं आती हैं, क्योंकि अधिकांश कानून पारंपरिक विवाह-आधारित संबंधों के अनुरूप बनाए गए हैं।
भारत व विदेशों में फर्क
सामाजिक स्वीकृति में भी बड़ा अंतर है। पश्चिमी शहरी क्लस्टरों में पॉलीअमोरी को कभी-कभी “लक्ष्यित जीवनशैली” माना जाता है। इस पर ब्लॉग, पुस्तकें, और समुदाय-आधारित कार्यक्रम मिलते हैं। भारत में ऐसे खुले समुदाय सीमित हैं; परंतु शहरी, उच्च शिक्षा और इंटरनेट से जुड़े वर्गों में धीरे-धीरे संवाद शुरू हुआ है। सोशल मीडिया पर युवा अनुभव साझा करते हैं, पर यह ज़्यादातर निजी जुगनुओं के रूप में है-सम्पूर्ण समाज का समर्थन नहीं। पॉलीअमोरी के मामले में महिलाओं के लिए चुनौती दोगुनी होती है। यहां महिला के रिश्तों पर समाज की कठोर निगाहें अधिक बनी रहती हैं और अलग व्यवहार होने पर दोष लगाने की प्रवृत्ति भी अधिक होती है।
पश्चिम में पॉलीअमोरी लोकप्रिय क्यों?
पश्चिम में पॉलीअमोरी के समर्थक इसे ईमानदारी, पारदर्शिता और विकल्प की स्वतंत्रता के नैतिक आधार पर रखते हैं। उनका तर्क है कि यदि सभी पक्ष सहमत हैं और पारदर्शिता है, तो प्रेम को सीमित करना अनैतिक होगा। भारत में नीतिगत तर्क अक्सर सामूहिक सांस्कृतिक मूल्यों, सामाजिक समरसता और पारिवारिक स्थिरता के महत्व पर टिके होते हैं। यही कारण है कि पारंपरिक नैतिकता पॉलीअमोरी को अस्वीकार्य मानती है। इसलिए प्रश्न “नैतिक है या अनैतिक?” का जवाब संस्कृति-निर्भर बन जाता है। पश्चिमी तर्क व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की ओर झुकते हैं और भारतीय तर्क सामूहिक जिम्मेदारी की ओर। पॉलीअमोरी सफल तभी हो सकती है जब सभी पक्ष संवाद, सीमाएं तय करने और संवेदनशीलता के साथ व्यवहार करें। बिना ईमानदारी के यह मॉडल टूट सकता है और जहां पारिवारिक और सामाजिक सहारा कम हो वहां इसका टूटना और अधिक भारी पड़ता है।
मानव संबंध सदियों से सामाजिक और नैतिक प्रश्नों के केंद्र में रहे हैं। प्रेम और प्रतिबद्धता की परिभाषा समय, संस्कृति और संदर्भ के अनुसार बदलती रही है। आधुनिक शब्दावली में “पॉलीअमोरी” उन रिश्तों को दर्शाती है जहां एक व्यक्ति एक ही समय में एक से अधिक साथी के साथ भावनात्मक, रोमांटिक और कभी-कभी शारीरिक रूप से जुड़े रहते हैं, परंतु यह संबंध पूरी तरह आपसी सहमति और पारदर्शिता पर आधारित होता है। पश्चिमी देशों में इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्म-अभिव्यक्ति का हिस्सा माना जाता है, जबकि भारत में पारंपरिक और सांस्कृतिक कारणों से इसे विवादास्पद और अनैतिक माना जाता है।
1. कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका (पश्चिमी संदर्भ)
2019 में कैलिफ़ोर्निया के एक शहर में एक महिला और दो पुरुष साथी ने आपसी सहमति से लिव-इन में रहना शुरू किया। उन्होंने रिश्ते में पारदर्शिता और संवाद को प्राथमिकता दी। समय-सारणी, भावनाओं और वित्तीय जिम्मेदारी सभी ने साझा की। सोशल मीडिया और पॉलीअमोरी फोरम के माध्यम से उन्होंने अनुभव साझा किए। नतीजा-मानसिक संतुलन बना रहा, कोई कानूनी बाधा नहीं थी और समाज के खुले वर्ग में स्वीकृति मिली।
2. बर्लिन, जर्मनी (पश्चिमी अनुभव)
बर्लिन की एक युवा जोड़ी ने दो और साथी को अपने जीवन में शामिल किया। उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, कामकाजी समय और भावनात्मक प्राथमिकताओं का संतुलन बनाया। उनके समुदाय ने खुले तौर पर इसे स्वीकार किया और यहां तक कि काउंसलिंग ग्रुप में उन्हें समर्थन मिला। सीख-पश्चिमी देशों में पॉलीअमोरी में सफलता का मुख्य आधार है ईमानदारी, संवाद और सामाजिक समर्थन।
3. दिल्ली, भारत (भारतीय संदर्भ)
2022 में दिल्ली की एक युवती ने दो पुरुष साथी के साथ लिव-इन किया। शुरू में समझदारी थी, लेकिन परिवार और पड़ोसियों के दबाव ने तनाव पैदा किया। आलोचना और सामाजिक बहिष्कार के कारण लड़की को अंततः रिश्ते छोड़ने पड़े। शहरी और शिक्षित वर्ग में पॉलीअमोरी संभव है, पर समाज और परिवार के दबाव कम नहीं होते। समुदाय और मित्र मंडली का समर्थन भारत में सफलता की कुंजी है; पारिवारिक और सामाजिक दबाव अभी भी चुनौती हैं। भारत में पॉलीअमोरी को शहरी और शिक्षित वर्ग में थोड़ी स्वीकृति मिल रही है, लेकिन मानसिक और सामाजिक सजगता जरूरी है।
समाधान और सुझाव
- पारदर्शिता और संवाद: सभी साथी स्पष्ट रूप से भावनाओं और सीमाओं पर चर्चा करें।
- सीमाएँ तय करना: समय, जिम्मेदारी और प्राथमिकताओं के स्पष्ट नियम बनाना आवश्यक।
- मनोवैज्ञानिक परामर्श: तनाव, असुरक्षा और बहिष्कार से निपटने के लिए पेशेवर मदद।
- समर्थन समूह: मित्र मंडली, ऑनलाइन समुदाय या कलात्मक/शैक्षणिक समूह का सहयोग।
- सामाजिक तैयारी: भारत में परिवार और समाज से प्रतिक्रिया का सामना करने के लिए मानसिक तैयारी।
पश्चिम में पॉलीअमोरी को स्वतंत्रता और आत्म-अभिव्यक्ति का हिस्सा माना जाता है, जबकि भारत में इसे सामाजिक स्थिरता और परिवार की मर्यादा पर खतरा समझा जाता है। पॉलीअमोरी का सफल संचालन संदर्भ और संस्कृति पर निर्भर करता है। पश्चिमी समाज में इसे नैतिक और व्यावहारिक विकल्प माना जाता है, जबकि भारत में पारिवारिक और सामाजिक दबाव इसे चुनौतीपूर्ण बनाते हैं। फिर भी, शहरी और शिक्षित वर्ग में धीरे-धीरे स्वीकृति बढ़ रही है। भविष्य में शिक्षा, संवाद और मानसिक समर्थन के माध्यम से यह अवधारणा भारतीय समाज में भी धीरे-धीरे समझी और अपनाई जा सकती है।
अंततः यह प्रश्न “नैतिक या अनैतिक” का नहीं, बल्कि संस्कृति और संदर्भ का है। पश्चिमी समाज जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता देता है, वहीं भारत सामूहिक जिम्मेदारी और पारिवारिक स्थिरता को महत्व देता है। इसलिए एक से अधिक साथी के रिश्तों की अवधारणा भारत में अभी अस्वीकार्य और विवादास्पद है। परंतु जैसे-जैसे समाज बदलेगा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का महत्व बढ़ेगा। संभव है कि आने वाले समय में इस पर संवाद और स्वीकृति की परतें भी धीरे-धीरे खुलें।
आधुनिक रिश्तों में चेतना और सुरक्षा
आधुनिक समाज में रिश्तों का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। लिव-इन, पॉलीअमोरी और वैकल्पिक रिश्तों की चर्चाएं और उनकी स्वीकृति लगातार बढ़ रही हैं, लेकिन इसके साथ ही भावनात्मक शोषण और मानसिक दबाव के मामले भी सामने आ रहे हैं। ऐसे रिश्तों में धोखा, भ्रम और समय की बर्बादी जैसी समस्याएं अक्सर बहुत गंभीर हो जाती हैं। ठीक ऐसी ही एक कहानी है समीरा की, जो यह बताती है कि विश्वास और पारदर्शिता के बिना रिश्ते कितने हानिकारक साबित हो सकते हैं।
समीरा एक प्रतिभाशाली पत्रकार थी, जिसे लेखन और स्वतंत्रता पर गहरा विश्वास था। उसका करियर पत्रकारिता की दिशा में लगातार आगे बढ़ रहा था। लेकिन तभी उसकी दोस्ती एक ऐसे लड़के से हुई, जिसने बार-बार यह भरोसा दिलाया कि वह उसे आईएएस बनने का सपना पूरा करने में मदद करेगा। उसने समीरा को समझाया कि अगर वह पत्रकारिता छोड़कर यूपीएससी की तैयारी में जुट जाए, तो उसका भविष्य बेहद सुनहरा हो सकता है। लड़के की बातें इतनी लुभावनी और भरोसेमंद लगीं कि समीरा ने धीरे-धीरे पत्रकारिता से दूरी बना ली और पूरी तरह यूपीएससी की तैयारी में लग गई।
लेकिन तीन-चार साल गुजरने के बाद भी उसे कोई सफलता नहीं मिली। इस दौरान लड़के ने उसे लगातार गुमराह किया, झूठा भरोसा दिलाया और उसके समय व मेहनत का अपमान किया। उसने समीरा का शारीरिक और मानसिक शोषण किया। शुरुआत में उसकी खूब तारीफ की, लेकिन बाद में उसके आत्मविश्वास को तोड़ने लगा। धीरे-धीरे उसने समीरा को अपनी चालों में बुरी तरह फंसा लिया। जब सच्चाई सामने आई तब भी समीरा मानसिक और भावनात्मक रूप से उसके प्रभाव में थी। यही नहीं, वह लड़का समीरा की निजी तस्वीरें और व्यक्तिगत बातें अपने दोस्तों के बीच साझा करने लगा। इससे समीरा के सामने अपने आत्मसम्मान और इज़्ज़त को बचाने की चिंता गहरा गई। दरअसल, आधुनिक रिश्तों में केवल समय और करियर ही नहीं खोता, बल्कि भावनात्मक शोषण, मानसिक तनाव और निजता का उल्लंघन भी खतरनाक रूप ले सकता है।
धोखे और भ्रम का प्रभाव
समीरा के साथ जो हुआ, वह भावनात्मक और मानसिक शोषण का साफ उदाहरण है। लड़के ने उसके विश्वास का दुरुपयोग किया और उसके समय व ऊर्जा का अपमान किया। ऐसे रिश्तों में अक्सर व्यक्ति मनोवैज्ञानिक गैसलाइटिंग (Gaslighting) का शिकार हो जाता है, जिसमें उसे बार-बार भ्रमित किया जाता है और वह अपने ही निर्णयों व आत्मविश्वास पर शक करने लगता है।
लड़का लगातार समीरा के मन और भावनाओं पर नियंत्रण करता रहा। उसने उसे यक़ीन दिलाया कि उसके प्रयास सही दिशा में जा रहे हैं, जबकि हक़ीक़त इसके बिल्कुल उलट थी। नतीजतन, समीरा ने तीन-चार साल का कीमती समय गंवा दिया, जो उसके पत्रकारिता करियर और निजी विकास के लिए बेहद अहम था। बाद में उसे यह भी पता चला कि उस लड़के के और भी कई लड़कियों से संबंध थे, जिन्हें उसने छिपाकर रखा था। इस सच्चाई ने समीरा को और गहरे अवसाद में धकेल दिया। उसे सामाजिक अपमान और मानसिक तनाव का सामना करना पड़ा। सिर्फ देह और पैसे के लिए किसी पर मोहित हो जाना कई बार बेहद विनाशकारी भावनात्मक प्रभाव छोड़ता है, जो लंबे समय तक मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित करता है।
मानसिक और भावनात्मक प्रभाव
समीरा अब भी लड़के की चालों में फंसी हुई है। शरीर सुख भोगने के लिए वह समीरा पर अक्सर दबाव बनाता है। कभी होटल में तो कभी शहर से दूर अपने दोस्तों के ठिकानों पर उसे ले जाता है। यह स्थिति आम है जब व्यक्ति भावनात्मक शोषण और धोखे के लंबे अनुभव से गुजरता है। ऐसे शोषण के प्रभाव में अक्सर निम्नलिखित समस्याएं आती हैं:
- आत्मविश्वास में कमी – व्यक्ति अपनी निर्णय क्षमता और स्वयं की क्षमता पर संदेह करने लगता है।
- भावनात्मक असुरक्षा – किसी भी नए रिश्ते या सामाजिक बातचीत में भय और संदेह उत्पन्न हो सकता है।
- करियर और व्यक्तिगत विकास पर नकारात्मक प्रभाव – समय और ऊर्जा का नुकसान होने से करियर में देरी और मानसिक दबाव बढ़ता है।
- सामाजिक अलगाव और अविश्वास – व्यक्ति अपने सामाजिक नेटवर्क से दूरी बनाने लगता है, जिससे भावनात्मक समर्थन कम हो जाता है।
गौर करने की बात यह कि समीरा का दोस्त अगर वाक़ई सच्चा होता, तो उसका पहला कर्तव्य यही होता कि वह हर परिस्थिति में उसके मान और सम्मान की रक्षा करता। दोस्ती का अर्थ केवल साथ घूमने-फिरने या हंसी-मज़ाक तक सीमित नहीं होता, बल्कि कठिन समय में सुरक्षा और भरोसा देना भी उसका सबसे बड़ा दायित्व होता है। लेकिन जिसने उसे शहर से कोसों दूर, गैर ज़िले के एक खंडहरनुमा गेस्ट हाउस तक ले जाने की योजना बनाई, उसके इरादे साफ नहीं कहे जा सकते। यह जगह न तो सुरक्षित थी, न ही किसी अच्छे मकसद के लिए बनाई गई थी, बल्कि वहां केवल अय्याशी और गलत कामों के लिए माहौल तैयार किया गया था।
यदि दोस्ती सच्ची होती, तो वह कभी भी समीरा को ऐसे असुरक्षित माहौल में ले जाने की सोच भी नहीं सकता था, बल्कि, वह उसके मान की रक्षा करता, समाज में उसकी इज़्ज़त बनाए रखने की चिंता करता और उसे हर बुरे इरादे से दूर रखता। असली दोस्त वही है जो अपनी दोस्ती को वासना या स्वार्थ से ऊपर रखे और साथी की गरिमा का सम्मान करे।
सिर्फ शारीरिक सुख और पैसे के पीछे दीवाना होकर किसी पर लट्टू हो जाना खतरों को बढ़ना है। समीरा को सबसे पहले यह देखना चाहिए कि रिश्तों में उसका कौन साथी कितना ईमानदार है? संकट के समय कौन उसका साथ दे सकता है और कौन उसके मान-सम्मान की हिफाजत कर सकता है? देह का शोषण करने वाले जीवन भर बहुत मानसिक कष्ट देते हैं। ऐसे मामलों में उसे किसी विश्वसनीय मित्र या परिवार से समर्थन लेना चाहिए। समीरा जैसी लड़कियों को ऐसे व्यक्ति की तलाश करनी चाहिए जो उसे खुुद की पहचान कराए कि वह क्या थी और क्या बनती जा रही है…?
अगर आपकी जिंदगी समीरा से मेल खाती है तो अपने आसपास देखें और गौर करें कि आपकी जिंदगी में कोई ऐसा इंसान है जो आपके जीवन में ड्रास्टिक चेंज ला सकता है तो उस पर भरोसा करें। करियर के लिए मोटिवेट और एंस्पायर करने वाले और आपके अच्छे और बुरे वक्त में खड़ा रहने वाले व्यक्ति ही आपको खुद से पहचान करा सकते हैं। सही मायने में वही शख्स ही आपको यह भी समझा सकता है कि वो क्या थे और क्या बनते जा रहे हैं ?
समीरा को प्राथमिकता अपने करियर और पेशेवर जीवन पर ध्यान केंद्रित करना होना चाहिए, ताकि उसने खोया हुआ समय और आत्मविश्वास दोबारा पाया जा सके। यदि लड़के ने निजी फोटो या जानकारी का दुरुपयोग किया है तो समीरा साइबर सेल या पुलिस में शिकायत दर्ज कर सकती है। यह कदम न केवल उसकी सुरक्षा के लिए जरूरी है, बल्कि भविष्य में ऐसे दुरुपयोग से बचने के लिए भी महत्वपूर्ण है। ऐसे शोषण के प्रभाव से उबरने के लिए:
- स्वयं की पहचान और आत्मसम्मान की बहाली –यह सुनिश्चित करना कि व्यक्ति अपनी सीमाओं और भावनाओं के प्रति सजग है।
- विश्वास का पुनर्निर्माण–किसी भरोसेमंद मित्र या परिवार के माध्यम से धीरे-धीरे सामाजिक और भावनात्मक भरोसा फिर से बनाना।
- स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता–अपने जीवन और करियर के निर्णयों में पूरी तरह सक्रिय और जागरूक होना।
समीरा की कहानी यह संदेश देती है कि आधुनिक समाज में रिश्तों में जागरूकता, समझदारी और व्यक्तिगत सुरक्षा ही सबसे बड़ी ताकत है। किसी भी धोखे या गुमराह करने वाले रिश्ते में फंसने से बचने के लिए सावधानी, समर्थन और कानूनी जागरूकता आवश्यक है।
कानून और सामाजिक नजरिया
कानून की नज़र से देखा जाए तो लिव-इन रिलेशनशिप अवैध नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2010 के खुशबू बनाम कन्याकुमारी मामले में यह स्पष्ट कर दिया था कि यदि दो वयस्क आपसी सहमति से साथ रहते हैं, तो यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता। इतना ही नहीं, घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के अंतर्गत लिव-इन में रह रही महिलाओं को भी वैधानिक सुरक्षा और अधिकार प्रदान किए गए हैं। यहां तक कि ऐसे रिश्तों से जन्म लेने वाले बच्चों के अधिकार भी सुरक्षित माने गए हैं। इसका सीधा अर्थ है कि भारतीय कानून व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सहमति और गरिमा को सर्वोपरि मानता है। लेकिन कानून और समाज के बीच की सोच में अक्सर एक गहरा टकराव देखने को मिलता है।
सवाल केवल इतना नहीं है कि लिव-इन नैतिक है या अनैतिक। असल मुद्दा यह है कि रिश्ते की बुनियाद क्या है? यदि रिश्ता जिम्मेदारी, ईमानदारी और आपसी भरोसे पर टिका है, अगर उसमें भविष्य की स्पष्टता और प्रतिबद्धता है, तो यह विवाह जितना ही सम्मानजनक और पवित्र हो सकता है। लेकिन यदि इसे केवल एक प्रयोग, सुविधा या क्षणिक शारीरिक संतुष्टि के साधन के रूप में अपनाया गया, तो इसके दुष्परिणाम बेहद गहरे और पीड़ादायक हो सकते हैं। टूटे हुए विश्वास, बिखरे सपने और खोई हुई आत्मसम्मान की कीमत अक्सर इंसान को जीवनभर चुकानी पड़ती है।
आज समाज और परिवार को भी चाहिए कि वे इस मुद्दे को सिर्फ परंपरा बनाम आधुनिकता की जंग के तराजू पर न तोलें। उन्हें समझना होगा कि यह इंसानों के दिल और भावनाओं का प्रश्न है। वहीं, युवाओं को भी यह समझना होगा कि रिश्ते केवल आज़ादी का साधन नहीं होते, बल्कि वे जिम्मेदारी और संवेदनशीलता के प्रतीक होते हैं। हर रिश्ते की नींव में भरोसा, त्याग और एक-दूसरे के भविष्य की चिंता होना आवश्यक है।
लिव-इन में कदम रखने से पहले हर किसी को यह सवाल स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या यह रिश्ता केवल आज की चाहत और सुविधा का परिणाम है या यह जीवन भर निभाने वाली जिम्मेदारी का अभ्यास है? इन्हीं सवालों के उत्तर यह तय करेंगे कि यह रिश्ता नैतिक है या अनैतिक। दरअसल, रिश्ते वही सफल होते हैं जो समर्पण और सम्मान पर टिके हों। बाकी सब केवल अस्थायी मोह हैं, जो समय की धूल में बिखर जाते हैं।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं)