मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझनाः दिल में उतर जाती हैं इश्क में गुंथे, प्रेम में बंधे अल्हड़ शहर बनारस की कहानियां

मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझनाः दिल में उतर जाती हैं इश्क में गुंथे, प्रेम में बंधे अल्हड़ शहर बनारस की कहानियां

मिर्ज़ा ग़ालिब भी मानते थे कि, बनारस दुनिया के दिल का नुक़्ता है…!!!

विजय शंकर पांडेय

“प्रेम प्राणी की सर्वोच्च पूंजी है। प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। प्रेम तो उम्र की सीमा भी नहीं देखता। गठिया की तरह पुरानी हड्डियों पर वो अधिक जमता है। जिस दिन प्यार की मौत हो जाएगी, उस दिन दुनिया का अस्तित्व मिटने लगेगा। तब दुनिया भी नहीं होगी।“

वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत सरीखे शब्द शिल्पी के मिजाज को समझना हो तो आप इसे मुकम्मल बयान भी मान सकते हैं। यह संवाद समीक्ष्य पुस्तक “मैं इश्क लिखूं तुम बनारस समझना“ की “काश“ शीर्षक कहानी का अंश है, जिसमें कहानीकार स्वयं एक पात्र है। बरबस दुष्यंत कुमार का वह शेर याद आ रहा है, “वो आदमी नहीं है, मुकम्मल बयान है, माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है।“

कहानीकार विजय विनीत से मेरा वास्ता लगभग तीन दशक पुराना है। काश शीर्षक कहानी की पृष्ठभूमि मेरठ और बनारस दोनों है। दोनों शहरों में हम बतौर पत्रकार एक दूसरे के सम्पर्क में रहें। कहानीकार स्वयं स्वीकार करते हैं कि “इश्क के तिलिस्म में कुछ सुलझी – कुछ उलझी कहानियों को लिखना मेरे लिए खुद से लड़ने जैसा है। यह कहानी संकलन मैं उन्हीं लोगों को समर्पित कर रहा हूं, जिनसे नहीं मिलता तो शायद जिद्दी इश्क के मर्म को नहीं समझ पाता। तब शायद जिंदगी से इतनी मुहब्बत भी नहीं होती।“ नागरी प्रचारणी सभा के प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल स्वीकार करते हैं, “बेशक इन कहानियों के माध्यम से विजय विनीत झूठ बोलकर जीवन का सबसे गाढ़ा और प्रासंगिक सच बोलते हैं और निस्संदेह बनारस के सबसे नैसर्गिक और सहज अंदाज में।“

मिर्ज़ा ग़ालिब भी मानते थे कि “बनारस दुनिया के दिल का नुक़्ता है।“ इश्क में गुंथा, प्रेम में बंधा एक अल्हड़ शहर है बनारस। जहां इश्क और जुनून होता है जाहिर है साइड इफेक्ट के तौर पर समाज का घिनौना और कुरुप चेहरा भी मौजूद रहता है। बनारस कहने को तो महादेव की नगरी है। औघड़दानी स्वयं ही प्रेम भरे दिलों की गगरी हैं। इस संग्रह के “सुबह हो गई” शीर्षक कहानी में नायिका तूलिका कहती है – “वाह, बनारसिया….। मुझे भी बनारस देखना है। बनारस की मस्ती और फक्कड़पन का एहसास करना है। बनारस की तरह मुस्कराना है, खिलखिलाना है और ठहाके लगाना है….।“ इस कहानी के क्लाइमेक्स में कहानीकार लिखते हैं कि “प्रेम और मानवता में कोई अंतर नहीं है। यह तो सिर्फ समझ का अंतर है। दिल का रिश्ता तो सिर्फ यकीन से चलता है।“

बनारस रस में पगी कहानियां

सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली से प्रकाशित 186 पृष्ठों वाले इस समीक्ष्य पुस्तक में कुल तेरह कहानियां हैं। विजय विनीत के ही शब्दों में “एक रहस्य सरीखा है बनारसी इश्क। इसे बूझने के लिए डूबना पड़ता है। खुद किरदार बनना पड़ता है। इसी कोशिश का नाम है “मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना।“ सच पूछिए तो डूबकर लिखने की कला में कहानीकार को महारत हासिल है। “रूक जाओ ना…. “ शीर्षक कहानी में कहानीकार बेलाग लपेट पूरी साफगोई से बयान कर देते हैं अपने मन की बात- “मेरे पिता जी मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे, लेकिन मेरा मन पढ़ाई से ज्यादा लेखन और फोटोग्राफी में लगता था। हमारे झोले में हर वक्त मौजूद रहता था एक छोटा कैमरा, कुछ उपन्यास और कहानियों की किताबें।“

वाराणसी में आध्यात्मिकता अवधारणा मात्र नहीं है, बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है। जीवित देवी मानी जाती है गंगा मइया, तो बाबा हर गली में मिलेंगे। शहर की भूलभुलैया वाली गलियां अनगिनत मंदिरों, आश्रमों और घाटों तक ले जाती हैं, जहाँ श्रद्धालु गहन अनुष्ठान और ध्यान में मग्न रहते हैं।

बनारस के रस में पगी कहानियां यहां की संस्कृति, परंपराओं और जीवनशैली को बखूबी बयान करती हैं। ज्यादातर कहानियां प्रेम और आम लोगों के रोजाना के जीवन संघर्षों जैसे विषयों को छूती हैं। भाषा भी सरल और अर्थपूर्ण है, जो पाठकों को अपने जुड़ने के लिए उकसाती हैं। बनारस के स्थानीय शब्दों और मुहावरों का उपयोग इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत है। इन कहानियों से गुजरना बेशक पाठकों के लिए एक अनोखा और यादगार अनुभव होगा। यह बनारस सरीखे शहर की अदा ही है कि जहां गालिब को एक दिन रुकना था, महीने भर डेरा जमाए रखे।

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