सिर्फ जिस्म मरता है, रूह नहीं मरती

आशिक-माशूक की मज़ार: जहां प्रेमी जोड़े मांगते हैं दुआ
विजय विनीत
प्यार की कहानियों का अंत अक्सर जुदाई में ही होता है। शायद इसलिए कि मोहब्बत का असली इम्तिहान साथ रहने में नहीं, बिछड़कर भी एक-दूजे में जिंदा रहने में है। वाराणसी के औरंगाबाद इलाके में स्थित आशिक-माशूक की मज़ार भी ऐसी ही एक अमर प्रेम कहानी की गवाही देती है—एक ऐसी दास्तान, जहां जिस्म भले ही मिट्टी में मिल गए, मगर मोहब्बत आज भी सांस ले रही है।
कहते हैं, ये दो प्रेमी जिंदा रहते तो एक न हो सके, लेकिन मौत ने उन्हें सदा के लिए जोड़ दिया। उनकी कब्रें आज भी प्रेमी जोड़ों के लिए किसी पवित्र स्थल से कम नहीं। यहां आने वाले आशिक अपने प्यार की सलामती की दुआ मांगते हैं, तो कोई बिछड़े प्यार को वापस पाने की मन्नत।
जहां मोहब्बत सजदा करती है
वैसे तो इस मज़ार पर हर दिन कोई न कोई प्रेमी जोड़ा अपनी मोहब्बत की दुआएं लेकर आता है, मगर वेलेंटाइन डे के मौके पर यहां का माहौल कुछ अलग ही होता है। न कोई दिखावा, न कोई शोर—बस इश्क़ के परिंदों की सरगोशियां और दुआओं की सरसराहट।
अराधना, जो पहली बार यहां आई थी, कहती है, “मंदिर और मस्जिद में लोग मन्नतें मांगते हैं, लेकिन यह मज़ार तो सिर्फ इश्क़ करने वालों के लिए है। यहां आने से ऐसा लगता है कि प्यार महज़ एक रिश्ता नहीं, बल्कि एक इबादत है।”
परी, जो अपने महबूब से मिलने की आस में यहां आई थी, की आंखों में उम्मीद थी, “जो मिल नहीं पाते, वे यहां आकर अपने इश्क़ की सलामती की दुआ मांगते हैं। मैं भी उसी उम्मीद में आई हूं कि शायद मेरी मोहब्बत मुकम्मल हो जाए।”

जहां इश्क़ ने मौत को भी हरा दिया
इस मज़ार पर सिर झुकाने वाले राम पांडेय का कहना है—
“यह उन आशिकों की मज़ार है जो दुनिया के नियमों से हार गए, मगर उनकी मोहब्बत कभी हारी नहीं। उनका प्यार अमर हो गया। यहां आकर जो सुकून मिलता है, वो कहीं और नहीं।”
वाराणसी की गलियों में, गंगा के बहते पानी में, और इस मज़ार की मिट्टी में—हर जगह एक ही कहानी बसी है कि इश्क़ कभी मरता नहीं। दुनिया चाहे जितनी बंदिशें लगा ले, मगर मोहब्बत हमेशा अपने लिए एक राह बना ही लेती है। और कभी-कभी, जिस्म के बिछड़ जाने के बाद ही रूहों का मिलन मुकम्मल होता है…
मज़ार की देखभाल करने वाली कमेटी के प्रमुख शिराज़ अहमद बताते हैं, “यह उन दो प्रेमियों की मज़ार है, जो जिंदा रहते एक न हो सके, मगर मौत के बाद हमेशा के लिए एक-दूजे के हो गए। जब दुनिया ने उनकी मोहब्बत को नामंजूर कर दिया, तो उन्होंने गंगा की लहरों में समा जाने का फैसला किया।”
कहते हैं, जब उनकी लाशें नदी से निकाली गईं, तो वे एक-दूसरे के आलिंगन में थे—जैसे वक्त और तकदीर से अपनी मोहब्बत की आखिरी जंग जीत ली हो। उनके प्यार की गवाही देते हुए इस मज़ार को बनाया गया, जहां आज भी लोग अपनी दुआओं में इसी अमर प्रेम का वास्ता देते हैं।
“हर गुरुवार और वेलेंटाइन डे पर यहां भीड़ कुछ ज्यादा ही होती है,” शिराज़ अहमद बताते हैं। शादी-ब्याह की मुरादें हों, या संतान प्राप्ति की ख्वाहिश—जो भी प्रेम से जुड़ी कोई मन्नत मांगता है, वो यहां चादर और फूल चढ़ाने जरूर आता है।”
400 साल पुरानी दास्तान, जो आज भी जिंदा है
बनारस के इतिहास को बखूबी समझने वाले शहर-ए-मुफ़्ती मौलाना अब्दुल बातिन नोमानी ने अपनी किताब ‘तारीख़ असारे-बनारस’ में इस मज़ार का जिक्र किया है। उनकी किताब का पांचवां संशोधित संस्करण 2015 में प्रकाशित हुआ, जिसमें यह प्रेम-कहानी दर्ज है।
क़रीब चार सौ साल पहले, जब बनारस के एक प्रतिष्ठित व्यापारी अब्दुल समद किसी काम से शहर से बाहर गए, तब उनके बेटे मोहम्मद यूसुफ़ को एक लड़की से मोहब्बत हो गई। पर यह इश्क़ जितना पाक था, उतना ही बगावती भी। जब लड़की के घरवालों को यह पता चला, तो उन्होंने उसे दूर एक रिश्तेदार के घर भेज दिया। मगर इश्क़ की आग में जल रहे यूसुफ़ ने भी हार नहीं मानी। वह नाव लेकर नदी में लड़की के पीछे हो लिया।

उस लड़की के साथ नाव पर एक बूढ़ी औरत भी थी, जिसने यह प्रेम देखा और शायद उसकी परीक्षा भी लेनी चाही। उसने लड़की की जूती गंगा में फेंक दी और यूसुफ़ से कहा—”अगर तुम्हारी मोहब्बत सच्ची है, तो इसे लेकर आओ।”
यूसुफ़ ने एक पल भी नहीं सोचा और गंगा में छलांग लगा दी। मगर वो वापस नहीं आया। गंगा की लहरों ने उसे अपनी आगोश में ले लिया। कुछ दिनों बाद, जब वही लड़की अपने घर लौट रही थी, तो उसी जगह आकर उसने भी नदी में छलांग लगा दी। और फिर, कुछ समय बाद, दोनों की लाशें एक-दूसरे के साथ बहती मिलीं।
कहते हैं, जब उन्हें बाहर निकाला गया, तो उनकी उंगलियां अब भी एक-दूसरे का हाथ थामे हुए थीं—जैसे उन्होंने दुनिया को यह दिखा दिया हो कि मोहब्बत सिर्फ सांसों की मोहताज नहीं होती। उन दोनों को बनारस के औरंगाबाद इलाक़े में एक साथ दफ्न किया गया। वही जगह, जो आज आशिक-माशूक की मज़ार के नाम से जानी जाती है। जहां आज भी लोग अपने टूटे हुए इश्क़ को जोड़ने की दुआ मांगने आते हैं। यह मज़ार सिर्फ एक प्रेम-कहानी का अंत नहीं, बल्कि एक इश्क़ की आखिरी पनाहगाह है—जहां मोहब्बत करने वाले सिर झुकाते हैं और मौत भी हार मान लेती है…!!