कुबराडीह की पुनर्जीवन गाथा: भूख-प्यास के खिलाफ सच्चाई और संघर्ष से इंसानियत की जीत !

कुबराडीह की पुनर्जीवन गाथा: भूख-प्यास के खिलाफ सच्चाई और संघर्ष से इंसानियत की जीत !

संस्मरण : विजय विनीत

“कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों…”

दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां मेरे लिए हमेशा प्रेरणा रही हैं, लेकिन साल 2001 की उस जुलाई में ये शब्द सिर्फ प्रेरणा नहीं, बल्कि मेरी ताकत बन गए। उत्तर भारत के ‘कालाहांडी’ कहे जाने वाले चंदौली जिले के नौगढ़ प्रखंड के कुबराडीह गांव से भूख से मौत की खबरें आई थीं। विश्वनाथ और गंगिया नाम के दो ग्रामीणों की भूख से मौत ने मुझे झकझोर कर रख दिया। दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां न केवल प्रेरणा थीं, बल्कि उस समय मेरी आत्मा का आधार बन गईं।

कुबराडीह, बनारस से 114 किलोमीटर दूर घने जंगलों के बीच स्थित है। वहां तक पहुंचने का सफर आसान नहीं था। न सड़कें थीं, न बिजली, और न ही कोई स्वास्थ्य सुविधाएं। केवल खौफ था, जो हर ओर पसरा हुआ था। उस इलाके में एमसीसी नक्सलियों का साम्राज्य था।

इस गांव के लोग महुआ और चकवढ़ (जंगली घास) खाकर जिंदा रहने की कोशिश कर रहे थे। प्रधान प्रेमनारायण ने जब मुझे बताया कि कुबराडीह भूख और कुपोषण का दूसरा कालाहांडी बन गया है, तो मैंने खुद वहां जाकर सच्चाई जानने का फैसला किया।

उस समय मैं ‘हिन्दुस्तान’ अखबार के बनारस संस्करण में काम कर रहा था। संपादक राजेश श्रीनेत ने इस मुद्दे को पूरी गंभीरता से लिया और इसे उठाने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी। एक टीम बनाई गई जिसमें चंदौली ब्यूरो चीफ आनंद सिंह, फोटोग्राफर बिहारी लाल और नौगढ़ के स्थानीय प्रतिनिधि संतोष केसरी शामिल थे।

सफर की दास्तान: मौत से मुकाबला

29 जुलाई 2001 की सुबह, हम बनारस से रवाना हुए। रास्ते में रुक-रुककर बारिश हो रही थी। नौगढ़ थाने पर पहुंचने पर हमें रोक दिया गया। पुलिस ने एमसीसी नक्सलियों का खौफ दिखाते हुए कहा कि आगे जाना आत्महत्या होगी।

“डर नहीं लगता?” सीआरपीएफ के जवान ने पूछा।

“डरते तो यहां आते ही क्यों?” मैंने जवाब दिया।

सीआरपीएफ के हवलदार ने सलाह दी, “लौट जाओ, ये इलाका तुम्हारे लिए नहीं है।” लेकिन हमारे इरादे चट्टान की तरह मजबूत थे। ग्रामीणों के लिए हमारी संवेदनाएं हमें रोकने नहीं दे रही थीं। कई घंटों की बहस और स्थानीय पुलिस अफसरों से बात कराने के बाद हमें बैरियर पार करने दिया गया। हमारी गाड़ी ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर हिचकोले खाती आगे बढ़ी। रास्ते में कर्मनाशा नदी और पहाड़ी नालों को पार करना पड़ा।

सुबह करीब दस बजे जब हम कुबराडीह पहुँचे, तो जो दृश्य हमारी आँखों के सामने उभरा, उसने रूह को झकझोर कर रख दिया। गाँव के बच्चे, जिनकी आँखों में मासूमियत की जगह भूख का डर दिख रहा था, उबले हुए महुआ खा रहे थे। यह महुआ, जिसे सामान्यतः जानवरों के चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, उनके लिए जीवन की डोर बनी हुई थी। वहीं पास ही महिलाएं जंगली सरई के बीज उबालने की तैयारी कर रही थीं, मानो उस भोजन में पोषण ढूंढने की निरर्थक कोशिश कर रही हों।

हमारे वहाँ पहुँचने पर बच्चों ने सहमकर झाड़ियों के पीछे छिपना शुरू कर दिया। उनकी डरी-सहमी आंखें हमें देखकर ऐसे प्रतिक्रिया दे रही थीं, जैसे उन्होंने कभी बाहर की दुनिया को देखा ही न हो। महिलाएं भी घबराकर जहाँ-तहाँ छिपने लगीं। गाँव के हर कोने में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था, मानो वहाँ के लोग बोलने की हिम्मत भी खो चुके हों। यह चुप्पी सिर्फ शब्दों की कमी नहीं थी, बल्कि वह दर्द और लाचारी थी, जो पीढ़ियों से सहन करते-करते उनकी आवाज को दबा चुकी थी।

ग्रामीण हमें गंगिया और विश्वनाथ के घर ले गए। वहाँ की हालत देखकर दिल दहल गया। घर के भीतर झांकते ही जो दिखा, वह किसी बुरे सपने जैसा था। न तो वहाँ अनाज का एक भी दाना था, न ही किसी खाने-पीने की सामग्री का नामोनिशान। मिट्टी के खाली कुंडे और टूटे-फूटे बर्तन, भूख की इस क्रूर कहानी को बयां कर रहे थे। चारों ओर सिर्फ सिसकियों और रुदन की आवाजें थीं, जो दिल को छलनी कर देने के लिए काफी थीं।

गाँव में पानी की स्थिति और भी भयावह थी। हर कुआँ या तो सूख चुका था या उसमें केवल कीचड़ और बदबूदार पानी बचा था। कुछ महिलाएं गंदे गड्ढों से पानी भरने की कोशिश कर रही थीं। वह पानी इतना दूषित था कि उसकी दुर्गंध से सांस लेना मुश्किल हो जाए, लेकिन वही पानी उनके जीवन और मृत्यु के बीच की आखिरी डोर था। उस पानी को संभालते वक्त उनके हाथों की कंपन और चेहरे पर झलकती बेबसी एक दर्दनाक कहानी कह रही थी।

भूख और प्यास ने इस गाँव को पूरी तरह से तोड़ दिया था। बच्चों की सूजी हुई आंखें, कमजोर शरीर और थके हुए चेहरों ने मेरी आत्मा को झकझोर कर रख दिया। गंगिया और विश्वनाथ की मौतें सिर्फ आंकड़े नहीं थीं, बल्कि उस दर्दनाक सच्चाई की गवाही थीं, जो कुबराडीह के हर घर, हर चेहरे और हर आंसू में झलक रही थी। यह सिर्फ एक गाँव की त्रासदी नहीं थी; यह इंसानियत की हार की कहानी थी।

गांव की कुछ महिलाओं ने अपनी असहायता को साहस में बदलते हुए, गाँव के बाहर जमीन खोदकर छोटे-छोटे गड्ढे बना लिए थे। इन गड्ढों से बूंद-बूंद रिसता पानी उनकी उम्मीद की आखिरी किरण था। महिलाएं दिनभर उन गड्ढों के पास बैठी रहतीं, एक-एक बूंद इकट्ठा करतीं, मानो किसी खजाने की खोज कर रही हों। उन बूंदों को सहेजकर वे अपने बच्चों और परिवार के लिए खाना बनाने और पीने का इंतजाम करती थीं।

नहाने का ख्याल तो जैसे उनकी जिंदगी से ही मिट चुका था। शरीर से पसीने और गंदगी की परतें चिपकी रहतीं, लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। जब जीने के लिए सांसों की गिनती ही चुनौती बन जाए, तब स्वच्छता की चिंता कौन करता है?

उन औरतों की सूजी हुई आंखें, पानी के इंतजार में थके हुए हाथ, और उनके सूखे होंठ उनकी तकलीफ की अनकही कहानियां बयान करते थे। हर बूंद उनके संघर्ष, उनकी आशा और उनकी जीवटता का प्रतीक थी। यह न केवल उनकी प्यास बुझाने की जद्दोजहद थी, बल्कि अपने परिवार को जिंदा रखने की जंग भी थी।

कुबराडीह से लौटने के बाद हमने इस मुद्दे को ‘हिन्दुस्तान’ के पन्नों पर प्रमुखता से उठाया। पहली रिपोर्ट 30 जुलाई 2001 को प्रकाशित हुई। यह खबर पढ़ते ही प्रशासन हरकत में आया। लेकिन, जैसा संपादक राजेश श्रीनेत ने पहले ही अंदाजा लगाया था, सरकारी तंत्र ने भूख से मौत की खबर को झुठलाने की कोशिश शुरू कर दी।

कमिश्नर और कलेक्टर ने कुबराडीह जाने की हिम्मत नहीं की। इसके बजाय, उन्होंने गांववालों पर दबाव बनाना शुरू किया। उन्हें धमकियां दी गईं, और जो सच्चाई बोलने को तैयार थे, उन्हें थर्ड डिग्री का सामना करना पड़ा।

हमारी रिपोर्टिंग और सामाजिक कार्यकर्ता बिंदू सिंह की संस्था ‘ग्राम्या’ की मदद से धीरे-धीरे स्थिति में सुधार होना शुरू हुआ। कुबराडीह में राहत सामग्री पहुंचाई गई। राशन और स्वास्थ्य सेवाओं का इंतजाम हुआ। यह एक छोटी जीत थी, लेकिन इसने साबित कर दिया कि मीडिया और सामाजिक संगठनों की ताकत कितनी बड़ी हो सकती है।

कुबराडीह की कहानी सिर्फ एक रिपोर्टिंग मिशन नहीं थी, बल्कि यह मेरे लिए इंसानियत की परिभाषा को समझने का एक सबक था। उस यात्रा ने मुझे यह सिखाया कि डर को कैसे मात दी जाती है। भूख से मरते बच्चों की चीखों ने मुझे कई रातों तक सोने नहीं दिया।

एक यादगार संघर्ष

सुबह का समय था। सूरज की किरणें जंगल के घने पेड़ों के बीच से झांक रही थीं, लेकिन उनकी रोशनी भी कुबराडीह के अंधेरे को दूर नहीं कर पा रही थी। हमारी गाड़ी ऊबड़-खाबड़ रास्तों से हिचकोले खाते हुए गाँव में दाखिल हुई। जब हम कुबराडीह पहुँचे, तो हमारे सामने जो दृश्य उभरा, वह किसी दुःस्वप्न से कम नहीं था। ऐसा लग रहा था जैसे गाँव के हर कोने ने अपने भीतर केवल दर्द और लाचारी को समेट रखा हो।

बच्चे, जिनकी मासूमियत उनकी सबसे बड़ी ताकत होनी चाहिए थी, भूख के आगे बेबस दिख रहे थे। उनकी आँखों में किसी अनजाने भय का गहराई से अक्स था। वे उबले हुए महुआ के छोटे-छोटे टुकड़े खा रहे थे। महुआ, जिसे आमतौर पर जानवरों का चारा माना जाता है, उनके लिए जिंदगी का एकमात्र सहारा बन गया था। उनके कमजोर हाथों में वह टुकड़ा थरथराते हुए पकड़ा हुआ था, और उनकी हालत देखकर दिल में टीस उठती थी।

पास ही महिलाएं जंगली सरई के बीज उबालने की तैयारी में थीं। उनकी आँखों में भी उम्मीद की कोई चमक नहीं थी। बीज उबालने का वह दृश्य, जिसमें एक झूठा भरोसा छिपा था कि शायद यह भोजन उनके परिवार की भूख को थोड़ा कम कर सके, दिल को चीरने वाला था। उनकी कलाईयों में थकावट थी, लेकिन जिजीविषा उन्हें रुकने नहीं दे रही थी।

हमारे वहाँ पहुँचने की आहट पाकर बच्चों ने सहमकर झाड़ियों के पीछे छिपना शुरू कर दिया। उनकी आँखों में डर और अविश्वास था, जैसे उन्हें हर अनजान व्यक्ति में खतरा दिखता हो। महिलाएं भी घबराकर एक कोने में दुबक गईं। यह एक ऐसा गाँव था, जहाँ शब्दों की जगह सन्नाटा बोलता था। यह सन्नाटा उस दर्द और पीड़ा का प्रमाण था, जो बरसों से इन लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन चुका था।

ग्रामीण हमें गंगिया और विश्वनाथ के घर ले गए। वहाँ का दृश्य देखकर आँखें नम हो गईं। घर की दीवारों पर बस बेबसी का साया था। मिट्टी के खाली कुंडे और फटे-पुराने बर्तन हर तरफ बिखरे हुए थे। वहाँ अनाज का एक भी दाना नहीं था। यह खालीपन उनकी जिंदगी का सबसे सटीक प्रतिबिंब था। चारों ओर केवल सिसकियों की आवाजें थीं। ऐसा लग रहा था जैसे इस घर ने अपने हर कोने में भूख का दुख समेट रखा हो।

भूख और प्यास ने इस गाँव को सिर्फ शारीरिक ही नहीं, मानसिक और भावनात्मक रूप से भी तोड़ दिया था। बच्चों की सूजी हुई आँखें, कमजोर शरीर और ठहरी हुई साँसें हर चीज को बयां कर रही थीं। गंगिया और विश्वनाथ की मौतें सिर्फ घटनाएं नहीं थीं; वे इस गाँव के हर घर में पसरी त्रासदी का प्रमाण थीं।

यह गाँव न केवल भूख से जूझ रहा था, बल्कि इंसानियत और उम्मीद की मौत का भी गवाह बन चुका था। कुबराडीह का हर कोना, हर चेहरा, हर झुर्री और हर आंसू हमें यह एहसास करा रहा था कि यह सिर्फ एक गाँव की त्रासदी नहीं, बल्कि इंसानियत की हार की सबसे बड़ी तस्वीर थी। यह दृश्य हमेशा के लिए मेरे दिल और आत्मा में अंकित हो गया।

एक अदम्य अनुभव: इंसानियत का धर्म

कुबराडीह की यह यात्रा मेरे जीवन की सिर्फ एक पेशेवर जिम्मेदारी नहीं थी; यह मेरे भीतर के इंसान को झकझोर देने वाली एक अद्वितीय अनुभव बन गई। जब मैंने उस गाँव में भूख और कुपोषण की भयावह स्थिति को अपनी आँखों से देखा, तो समझा कि यह सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि इंसानियत को बचाने की लड़ाई थी।

2001 का वह साल पत्रकारिता के मेरे जीवन का एक मील का पत्थर बन गया। चंदौली जिले के नौगढ़ प्रखंड के कुबराडीह गाँव में भूख से हो रही मौतें केवल आँकड़े नहीं थीं। ये घटनाएँ उस व्यवस्था का आईना थीं, जो समाज के सबसे कमजोर वर्ग को अनदेखा कर देती है। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी और उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह की सरकारें थीं। संसद में चंदौली का प्रतिनिधित्व कर रहे सांसद जवाहर लाल जायसवाल और प्रखर समाजवादी नेता अखिलेश यादव जैसे व्यक्तित्व भी उस समय सक्रिय थे। लेकिन कुबराडीह जैसी जगहों की पीड़ा तब तक किसी के एजेंडे में नहीं थी, जब तक हमारी रिपोर्ट ने उसे सुर्खियों में नहीं ला दिया।

हमारी रिपोर्टिंग ने न केवल स्थानीय प्रशासन, बल्कि राज्य और केंद्र सरकार को भी हिला दिया। जब हमारी रिपोर्ट ‘हिन्दुस्तान’ के पहले पन्ने पर सचित्र छपी, तो उसकी गूँज लखनऊ और दिल्ली तक सुनाई दी। मुलायम सिंह यादव ने यह अखबार संसद में लहराते हुए इस मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया। उनके भाषण ने संसद को झकझोर कर रख दिया। वहाँ मौजूद नेताओं की आवाजों में अचानक एक गाँव के दर्द का प्रतिबिंब सुनाई देने लगा। विरोधी दलों ने सरकार को कटघरे में खड़ा किया, और संसद गुस्से और नारों से गूंज उठी।

इस कवरेज का असर इतना व्यापक था कि केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश सरकार पर कार्रवाई का दबाव बनाना शुरू कर दिया। जिला प्रशासन की लापरवाही और सच्चाई को दबाने की कोशिशें अब और नहीं चल सकीं। डीएम पर निलंबन की तलवार लटक गई। लेकिन इसके बावजूद, प्रशासन ने राहत पहुंचाने की बजाय, सच को दबाने और गाँववालों को डराने की रणनीति अपनाई।

इस दौरान प्रशासन की असंवेदनशीलता बार-बार सामने आई। डीएम ने अपनी टीम भेजकर ग्रामीणों पर दबाव बनाया। उनकी कोशिशें केवल यह साबित करने की थीं कि भूख से कोई मौत नहीं हुई थी। अधिकारियों ने गाँववालों से झूठे बयान दिलवाने के लिए उन पर जोर-जबर्दस्ती की। कुछ ग्रामीणों को धमकाया गया, तो कुछ को सादे कागज पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया। यह सब देखकर मेरा खून खौल उठा।

संघर्ष और बदलाव की दास्तां

कुबराडीह में भूख और कुपोषण से जूझ रहे लोगों की मदद के बजाय, प्रशासन ने अपना असली चेहरा दिखाना शुरू कर दिया। डीएम ने एसडीएम शीतला प्रसाद को गाँव भेजा, लेकिन उनका मकसद राहत सामग्री पहुंचाना नहीं, बल्कि सच को दबाना था। सादे कागज पर ग्रामीणों से जबरन अंगूठों के निशान लिए गए। पुलिस ने गाँववालों को धमकाया और भूख को बीमारी साबित करने के लिए रिहर्सल कराई। यह सब एक पूर्व नियोजित योजना का हिस्सा था, जिसमें झूठे बयान रिकॉर्ड कर यह दिखाने की कोशिश की जा रही थी कि गाँव में कोई समस्या ही नहीं है।

गाँव के प्रधान प्रेमनारायण, जो हमारे सबसे बड़े सहयोगी थे, प्रशासन की आँखों में चुभने लगे। चकरघट्टा थाना पुलिस ने उन्हें निशाना बनाया और गिरफ्तार करने की योजना बनाई। हमने इसका कड़ा विरोध किया और अफसरों से तीखी बहस हुई। लेकिन प्रशासन ने पीछे हटने के बजाय रात के अंधेरे में प्रधान के घर पर दबिश दी। पुलिस ने उन्हें झूठे मामलों में फंसाकर गिरफ्तार कर लिया। प्रधान को पुलिस की लाठियों का सामना करना पड़ा और उन्हें जेल भेज दिया गया।

इस घटना ने गाँववालों के भीतर दहशत पैदा कर दी। प्रधान की गिरफ्तारी ने यह साफ कर दिया था कि जो भी सच बोलेगा, उसे दबाने के लिए प्रशासन किसी भी हद तक जा सकता है। लेकिन हम रुके नहीं। हमारे पास भूख और कुपोषण के इतने सबूत थे कि प्रशासन और पुलिस भी उन्हें पूरी तरह झुठला नहीं सकते थे।

हमारी टीम ने भूख और कुपोषण से जूझ रहे लोगों की तस्वीरें, वीडियो और तथ्य संपादक के पास भेजे। इन सबूतों के आधार पर ‘हिन्दुस्तान’ अखबार में खबरें लगातार छपती रहीं। हर खबर प्रशासन की पोल खोलती और उनकी कोशिशों को विफल करती।

इस बीच, कुबराडीह में कुपोषण से पीड़ित राम प्रसाद की पत्नी सिंगारी की मौत हो गई। यह सिर्फ एक मौत नहीं थी; यह उस व्यवस्था पर एक और तमाचा था, जिसने इन लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया था। कुछ ही दिनों में आधा दर्जन और लोगों ने भूख से दम तोड़ दिया। इन मौतों ने प्रशासन और नेताओं को कटघरे में खड़ा कर दिया।

समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के निर्देश पर सांसद जवाहर लाल जायसवाल ने तीन ट्रक राहत सामग्री कुबराडीह भिजवाई। प्रशासन ने ग्रामीणों को लाल कार्ड जारी किए, जिससे उन्हें मुफ्त राशन मिलने लगा। डॉक्टरों की टीमें गाँव में भेजी गईं। दबाव इतना बढ़ा कि मृतकों के परिवारों के घरों में कुंतल चावल और गेहूं पहुंचाए गए। गाँव में राहत कार्य शुरू हुआ। लेकिन यह बदलाव केवल राहत सामग्री तक सीमित नहीं था। गाँव में सड़क निर्माण का काम शुरू हुआ, जिससे ग्रामीणों को रोजगार मिला। धीरे-धीरे, कुबराडीह का माहौल बदलने लगा। अब वहाँ न तो बच्चे बिकते हैं, न युवा पलायन करते हैं, और न ही भूख से मौतें होती हैं।

कभी नक्सलियों के डर से कांपने वाला यह क्षेत्र अब शांत और सुरक्षित हो गया है। एमसीसी का साम्राज्य, जो इस इलाके पर हावी था, खत्म हो चुका है। कुबराडीह अब एक नए जीवन की ओर बढ़ चुका है। यह केवल गाँव के लिए बदलाव नहीं था, बल्कि यह पत्रकारिता और इंसानियत के लिए एक जीत थी।

उन 20 दिनों में मैंने सीखा कि जब आपके पास सच का बल और फौलादी हौसला हो, तो किसी भी अन्याय और दमन को हराया जा सकता है। यह सिर्फ एक रिपोर्ट नहीं थी, बल्कि एक आंदोलन था, जिसने न केवल एक गाँव को बचाया, बल्कि यह भी सिखाया कि आवाज उठाना कितना जरूरी है।

दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ,
कैसे आकाश में सुराख हो नहीं सकता…”
मेरे लिए केवल शब्द नहीं, बल्कि प्रेरणा का स्रोत बन गईं। कुबराडीह की भूख के खिलाफ लड़ी गई इस जंग ने मुझे यह सिखाया कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं। यह घटना मेरे दिल और दिमाग में हमेशा के लिए अंकित हो गई है। यह सिर्फ उनकी लड़ाई नहीं थी, बल्कि हमारी भी थी।

लेकिन हमारी लड़ाई भूख और अन्याय के खिलाफ थी। हमने हर दिन नई रिपोर्ट और तथ्य जुटाकर अखबार में प्रकाशित किए। इन रिपोर्टों ने हर कोने से सच्चाई को सामने लाने का काम किया। धीरे-धीरे, हमारी रिपोर्टिंग और समाजसेवियों की कोशिशों का असर दिखने लगा। डॉक्टरों की टीमें गाँव में भेजी गईं। ग्रामीणों को लाल राशन कार्ड दिए गए, जिससे उन्हें मुफ्त में अनाज मिलने लगा। राहत सामग्री और स्वास्थ्य सेवाओं के चलते गाँव में हालात कुछ सुधरने लगे।

इस पूरे अनुभव ने मुझे सिखाया कि जब आपके पास सच का बल और इंसानियत का धर्म हो, तो आप किसी भी सत्ता और अन्याय के सामने खड़े हो सकते हैं। कुबराडीह की भूख के खिलाफ हमारी लड़ाई केवल पत्रकारिता का एक मिशन नहीं थी, यह इंसानियत और न्याय की जीत का प्रतीक बन गई। आज भी, जब उस यात्रा को याद करता हूँ, तो उस गाँव की सूनी आँखें और भरी सिसकियाँ मेरी आत्मा को झकझोर देती हैं। यह यात्रा सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि मेरे जीवन का सबसे बड़ा सबक है—इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं होता।

एमसीसी नक्सलियों का खौफ, जो इस इलाके पर हावी था, अब खत्म हो चुका है। कुबराडीह ने न केवल भूख से लड़ाई जीती, बल्कि यह दिखा दिया कि बदलाव संभव है। आज वहाँ के बच्चे भूखे नहीं सोते, युवा पलायन नहीं करते, और महिलाएँ अपनी आवाज उठाने से नहीं डरतीं। यह जंग सिर्फ एक गाँव के लिए नहीं थी; यह उन सभी लोगों के लिए एक संदेश था कि सच्चाई और इंसानियत की ताकत हर अन्याय को हरा सकती है।

Related articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *