बनारस की सियासत : बाहरी चेहरों की चकाचौंध में घुटती बीजेपी,  मोदी के करिश्मे के बीच कोई नहीं सुन रहा पुराने सिपाहियों की खामोश पीड़ा !

बनारस की सियासत : बाहरी चेहरों की चकाचौंध में घुटती बीजेपी,  मोदी के करिश्मे के बीच कोई नहीं सुन रहा पुराने सिपाहियों की खामोश पीड़ा !

राजनीति की चौरंगी पर खड़ी बीजेपी और भीतर की सच्चाई के अंधेरे को क्यों नहीं देख पा रहे दिग्गज?

विजय विनीत

बनारस की राजनीति का मिज़ाज देश-दुनिया में हमेशा अलग और अनोखा माना जाता है। यहां गंगा की धारा की तरह सियासत भी कभी शांत, तो कभी तूफानी दिखाई देती है। इस वक्त तस्वीर यह है कि बनारस की आठों सीटों पर बीजेपी और उसके सहयोगी अपना दल का कब्ज़ा है। ज़रा गहराई से देखें तो इस जीत के पीछे स्थानीय नेताओं की मेहनत नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ मोदी का करिश्मा छिपा है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़ दें तो किसी भी जनप्रतिनिधि के पास ऐसा कोई काम नहीं है जिसे जनता “करिश्माई” कह सके या जिस पर गर्व कर सके।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गढ़ माना जाने वाला बनारस भारतीय जनता पार्टी दशकों से बीजेपी की सियासत की धुरी रहा है। मौजूदा समय में फिलहाल हर सीट पर बीजेपी और उसके सहयोगी दल काबिज़ हैं। सवाल उठता है कि बनारस में बीजेपी के पास ऐसा कौन-सा जनप्रतिनिधि है, जिसने अपने कार्यों से जनता के बीच कोई नई पहचान बनाई हो, जिसने कोई ऐसा काम किया हो जो मील का पत्थर साबित हो? जवाब निराशाजनक है। प्रधानमंत्री मोदी को छोड़ दें तो किसी भी जनप्रतिनिधि का नाम गिनाना मुश्किल हो जाता है।

पिछले विधानसभा चुनाव की ओर लौटें। तब बीजेपी प्रत्याशी जीत तो गए, लेकिन यह जीत उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता या काम के दम पर नहीं थी। दरअसल, वे मोदी मैजिक की लहर पर सवार होकर विधानसभा पहुंचे। यही सच जनता खुले तौर पर मानती भी है। चुनावी गलियों में अक्सर सुनने को मिलता है, “हम तो मोदी के नाम पर वोट दिए थे, नेता तो बस टिकट पर चढ़कर आए थे।” जैसे-जैसे समय बीता, जनता के मन में यह सवाल जोरों से गूंजने लगा कि क्या यह जनप्रतिनिधि वास्तव में जनता की सेवा करने और क्षेत्र में विकास लाने के लिए चुने गए हैं या केवल मोदी की छवि की छाया में आगे बढ़ रहे हैं?

दरअलल, बनारस में बीजेपी लगातार छिजती जा रही है। पिछले कुछ सालों में बीजेपी से एक बड़ी चूक हुई। बीजेपी ने गौर नहीं किया और गैर-दलों से आए नेताओं ने समूची पार्टी को पूरी तरह से हाईजैक कर लिया। पुराने, खाटी कार्यकर्ता और नेताओं को किनारे कर दिया गया। इसका असर बीते लोकसभा चुनाव में साफ नज़र आया जब बनारस में पीएम मोदी को जीत तो मिली, लेकिन उस जीत का अंतर उतना चमकदार नहीं रहा जितनी उम्मीद की जा रही थी। देश-विदेश की मीडिया ने बीजेपी की जमकर छीछालेदर की।

बनारस में इन दिनों गलियों से लेकर चौक-चौराहों तक, राजनीतिक गलियारों से लेकर चाय की दुकानों तक, हर जगह एक ही चर्चा है-कौन कहां से चुनाव लड़ेगा और किसकी दावेदारी कितनी मजबूत है? बीजेपी ने अपने-अपने संभावित दावेदारों की ‘कुंडली’ बांचने के लिए राजनीतिक सर्वे एजेंसियों को मैदान में उतार दिया है। साथ ही बीजेपी के अनुसांगिक संगठन आरएसएस भी समय-समय पर लगातार सर्वे कराता रहता है। बीजेपी की एजेंसियां नाप-तोल कर यह आंकलन करने में जुटी हैं कि किस विधानसभा क्षेत्र में कौन उम्मीदवार कितना फिट बैठेगा? माना जा रहा है कि अबकी बुजुर्ग नेताओं से ज्यादा तरजीह युवाओं और कुछ बड़े नेताओं के बेटे-बेटियों को तरजीह दी जा सकती है।

बनारस में बीजेपी में कैसे-कैसे चेहरे?

बनारस की राजनीति में बीजेपी के पास फिलहाल 13 जनप्रतिनिधि हैं। इनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा मंत्री रविंद्र जायसवाल, अनिल राजभर, दयाशंकर मिश्र ‘दयालु’ शामिल हैं। इनके अलावा जिलाध्यक्ष और एमएलसी हंसराज विश्वकर्मा, नीलकंठ तिवारी, अवधेश सिंह, सौरभ श्रीवास्तव, टी. राम, धर्मेंद्र सिंह और महापौर अशोक तिवारी और जिला पंचायत अध्यक्ष पूनम मौर्य हैं। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। पीएम मोदी, रविंद्र जायसवाल, नीलकंठ तिवारी और सौरभ श्रीवास्तव को छोड़ दें तो बाकी लगभग सभी की एंट्री बीजेपी में बाहर से हुई है। कोई सपा से आया, कोई बसपा से और कोई कांग्रेस से।

मंत्री अनिल राजभर पुराने सपाई रहे हैं, दयालु खांटी कांग्रेसी। हंसराज विश्वकर्मा की शुरुआत राष्ट्रीय क्रांति पार्टी जैसे छोटे दल से हुई थी, जहां पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में उन्हें दो बार निकाला भी गया था। पत्रकार से नेता बने धर्मेंद्र सिंह, जिन्होंने सियासी फायदे के लिए अपना नाम संशोधित कर राय धर्मेंद्र सिंह रख लिया है जो कांग्रेस की राजनीति से ही उठे। बीजेपी विधायक टी. राम और अवधेश सिंह कभी मायावती के सबसे करीबी माने जाते थे। महापौर अशोक तिवारी पर भी सपा का पुराना ठप्पा है। नोएडा में रहने वाले एक बनारसी पत्रकार की पावर और पहुंच की सीढ़ी से महापौर का टिकट पाया और चुनाव जीते। यही नहीं, बीजेपी के क्षेत्रीय नेता दिलीप पटेल भी पुराने बसपाई रहे हैं। जिला पंचायत अध्यक्ष पूनम मौर्य को भी गैर-दल से आयात किया गया।

हाईजैक होती बीजेपी

बीजेपी की मौजूदा हालत देखकर साफ कहा जा सकता है कि गैर-दलीय नेताओं ने पार्टी को पूरी तरह हाईजैक कर लिया है। वे नेता जो कभी कांग्रेस, सपा या बसपा में रहे और फिर अवसर देखकर बीजेपी में शामिल हो गए आज निर्णायक स्थिति में हैं। इसका असर पिछले लोकसभा चुनाव में साफ दिखाई दिया। मोदी चुनाव जीत तो गए, लेकिन पहले जैसी प्रचंड जीत नहीं। पार्टी की स्थिति ऐसी हो गई कि पूरी दुनिया की मीडिया में उसकी छीछालेदर हुई। और आज भी तस्वीर ज्यादा बदली नहीं है। माना जा रहा है कि अगर यही सिलसिला चलता रहा, पुराने कार्यकर्ताओं और नेताओं की उपेक्षा जारी रही, तो वह दिन दूर नहीं जब आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी बनारस में सिर्फ चंद सीटों तक सिमट जाएगी।

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि आज की बनारस की बीजेपी, असल में बीजेपी की अपनी नहीं रही। यह बाहरियों की पार्टी बन चुकी है। इनमें से ज्यादातर नेता मानसिक रूप से अब तक बीजेपी की कार्यसंस्कृति में ढल नहीं पाए हैं। इनकी एंट्री 2014-15 के बाद ही हुई। पार्टी के कट्टर समर्थक और वर्षों से निष्ठापूर्वक काम कर रहे नेता, चुनाव में ताकत दिखाने की हैसियत रखते हुए भी हाशिए पर धकेल दिए गए। जमीन-जायदाद के कारोबारी और गगनचुंबी इमारतें खड़ी करने वाले चेहरे अब पार्टी में तरजीह पा रहे हैं। नतीजा यह है कि बनारस में बीजेपी का असली वजूद धीरे-धीरे मिटता जा रहा है।

पिछले लोकसभा चुनाव में बनारस में बीजेपी की जो दुर्गति हुई, वह किसी से छिपी नहीं। पीएम मोदी को दस लाख से अधिक वोटों से जिताने का दावा करने वाले नेता औंधे मुंह गिरे, क्योंकि पार्टी ने अपने पुराने कार्यकर्ताओं की नहीं, बल्कि बाहर से आए लोगों की सुनी। नतीजतन, जिन्होंने दशकों तक पार्टी के लिए खून-पसीना बहाया वे हाशिये पर चले गए। अबकी विधानसभा चुनाव के लिहाज से देखें तो बीजेपी खुद को एक भंवर में फंसा पा रही है। पार्टी का संचालन अब उन हाथों में है, जिनका बीजेपी की विचारधारा से कोई लेना-देना ही नहीं। पुराने जमीनी कार्यकर्ताओं को घर बैठा दिया गया है, उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं।

बनारस में कई ऐसे दिग्गज नेता हैं, जिन्होंने दशकों तक पार्टी को मजबूत किया, लेकिन आज उनका नाम तक लेने वाला कोई नहीं। पूर्व एमएलसी शिवनाथ यादव, पूर्व डिप्टी मेयर संजय राय, पूर्व मेयर कौशलेंद्र सिंह पटेल, राकेश त्रिवेदी, मीना चौबे, साधना वेदांती, जगदीश त्रिपाठी, जयनाथ मिश्र, विद्याशंकर पांडेय, लालजी गुप्ता, आत्मा विश्वेश्वर, सुभाष गुप्ता, मायाशंकर पाठक, संकटा पटेल, देवानंद सिंह, अजय सिंह, देवेंद्र सिंह जैसे तमाम नेता दिन-रात पार्टी के लिए खपते रहे, लेकिन उनका राजनीतिक भविष्य अंधेरे में धकेल दिया गया है।

बीजेपी इन नेताओं से मजदूर की तरह काम तो कराती है, लेकिन जब टिकट देने या महत्वपूर्ण पदों पर मनोनयन की बारी आती है तो इन्हें भुला दिया जाता है। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि अगर बीजेपी ने अपनी इस चकाचौंध में खोकर पुराने संघर्षशील साथियों को साथ न लिया तो आने वाले विधानसभा चुनाव में उसे मुंह की खानी पड़ सकती है और कई सीटें हाथ से निकल सकती हैं।

बीजेपी के खांटी कार्यकर्ता भी आज खुद को हाशिए पर महसूस कर रहे हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने खून-पसीना बहाकर पार्टी को खड़ा किया था। लेकिन जब सत्ता आई तो बाहर से आए लोगों ने कुर्सियां हथिया लीं। “हम तो सड़क पर डंडा खाए, जेल गए, लोगों को जोड़ा। और आज टिकट और पद पर बाहरियों का कब्ज़ा है। हम तो सिर्फ झंडा उठाने और भीड़ जुटाने तक सिमट गए हैं।”-ऐसा दर्द कई पुराने कार्यकर्ताओं की जुबान पर साफ झलकता है।

कुछ इसी तरह की नाराज़गी बनारस शहर के लोगों की भी है। पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र के वोटरों की आम शिकायत है कि बीजेपी नेताओं ने पिछले पांच साल में सिर्फ अपना पेट भरा है। छोटे-मोटे कामों में दलाली, पुलिस-थानों में सिफारिशखोरी और जमीनों की खरीद-फरोख्त ही उनकी उपलब्धि रही है। आम जनता की समस्याएं जस की तस हैं।

बनारस के दावेदारों की हकीकत

अब ज़रा नजर डालें बनारस की आठ विधानसभा सीटों पर। बीजेपी के पास यहां कई दावेदार तो हैं, लेकिन गैर-दलों से आए इन चेहरों में ऐसा कोई नहीं जो अपने बूते चुनाव जीत सके। एकमात्र अपवाद हैं राजेश मिश्रा, जो कांग्रेस से बीजेपी में आए पूर्व सांसद हैं। शहर दक्षिणी सीट पर उनकी स्थिति मजबूत मानी जा सकती है। वजह भी स्पष्ट है-राजेश मिश्रा जितने लोकप्रिय हिंदू मतदाताओं के बीच हैं, उससे कहीं अधिक मुसलमानों में। उनके पास यह खास संतुलन है जो बाकी किसी बाहरी बीजेपी नेता के पास नहीं।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है, अगर किसी बाहरी दावेदार में जीतने की क्षमता है तो वह केवल राजेश मिश्रा ही हैं। बाकी दावेदारों की हालत यह है कि मोदी की बैसाखी के बिना उनमें चुनाव जीतने का माद्दा ही नहीं। खास बात यह है कि बीजेपी में शामिल होने के बाद राजेश मिश्र ने न तो कोई अतरंजित बयान दिया और न ही कोई ऐसा काम किया जिससे उनके माथे पर कोई आरोप चस्पा हुए हों।

 ‘अचूक रणनीति’ पत्रिका के संपादक विनय मौर्य का कहना है, “बनारस में बीजेपी के पास मोदी और अमित शाह के अलावा कोई ऐसा तुरुप का पत्ता नहीं है जो अपनी सीट बचा सके। ज़मीनी हकीकत यह है कि हाल के वर्षों में बीजेपी के नेता जनता से कट गए हैं। कई तो ऐसे हैं जो जनता के मुद्दों से ज्यादा जमीन-जायदाद के कारोबार और थानों की दलाली में उलझे हैं।”

विनय के मुताबिक, हिंदू संगठनों से जुड़े कुछ नेता खुद को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का करीबी बताकर बड़े पैमाने पर ज़मीन-जायदाद के सौदे कर रहे हैं। कुछ खुलेआम उगाही कर रहे हैं, तो कुछ भ्रष्टाचार की दलदल में धंस चुके हैं। “मजे की बात यह है कि ऐसे ही धंधेबाज लोग अब विधानसभा टिकट की दौड़ में हैं। पार्टी की साख चौपट हो रही है, लेकिन शीर्ष नेतृत्व इन कारगुजारियों पर लगाम कसने की स्थिति में नजर नहीं आ रहा।”

विनय मौर्य साफ कहते हैं, “अगर आगामी विधानसभा चुनाव में मोदी-शाह का जादू न चला तो बीजेपी अपने पुराने महारथियों के दम पर शायद एक भी सीट नहीं जीत पाएगी। पार्टी को अपने खोए हुए वजूद को फिर से पाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि वह उन नेताओं को प्राथमिकता दे जो विचारधारा और सोच के स्तर पर सच्चे मन से बीजेपी से जुड़े हैं।”

वह आगे जोड़ते हैं, “बीएचयू की आईआईटी छात्रा के साथ बलात्कार के आरोपियों को पनाह देने और उन्हें बचाने में जी-जान से जुटे नेताओं से बीजेपी को किनारा करना ही होगा। अगर ऐसे चेहरे पार्टी में बने रहे तो जनता में गलत संदेश जाएगा। पार्टी को अपने इतिहास में झांकना होगा और उसी से ताकत लेकर असली बीजेपी खड़ी करनी होगी। गैर-दलों से आए नेताओं पर भरोसा करना जारी रहा तो अगली बार यही नेता पार्टी का बंटाधार कर देंगे। इसमें कोई शक नहीं।”

क्या बीजेपी संभल पाएगी?

बनारस के मोहल्लों और चौराहों पर, पान की दुकानों और घाटों पर होने वाली चर्चाएं इस बात की गवाही देती हैं कि जनता नाराज़ है। लोग कहते हैं कि बीजेपी के खांटी कार्यकर्ता, जिन्होंने दशकों तक पार्टी का झंडा उठाया, आज हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। उन्हें सिर्फ मेहनत करने के लिए याद किया जाता है, लेकिन जब टिकट बंटवारे या पदों की बात आती है, तो बाहरियों को तरजीह मिलती है। इस उपेक्षा ने कार्यकर्ताओं में गहरा असंतोष भर दिया है।

बनारस में सत्तारूढ़ दल की राजनीति आज चौराहे पर खड़ी है। बीजेपी सत्ता में है, लेकिन संगठन के भीतर गहराते अंतर्विरोध, बाहरी नेताओं का वर्चस्व और पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा ने माहौल को विस्फोटक बना दिया है। आने वाले विधानसभा चुनाव में यह देखना दिलचस्प होगा कि बीजेपी इस संकट से कैसे पार पाती है? अब बड़ा सवाल यही है कि क्या वह अपने पुराने सिपाहियों को सम्मान देकर पार्टी का खोया वजूद वापस ला पाएगी या फिर बाहरी नेताओं के भरोसे चलते-चलते पार्टी वाकई बनारस की सियासत में हाशिए पर चली जाएगी? क्या बीजेपी समय रहते इस हकीकत को समझेगी? क्या पार्टी पुराने संघर्षशील कार्यकर्ताओं को फिर से साथ लेगी या बाहरियों की चमक-दमक में उलझी रहेगी?

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर बीजेपी ने अपनी रणनीति नहीं बदली तो बनारस की तस्वीर बदल सकती है। यह वही बनारस है जिसने मोदी को राष्ट्रीय राजनीति का चेहरा बनाया। लेकिन अगर स्थानीय असंतोष को गंभीरता से नहीं लिया गया, तो यही बनारस बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी बन सकता है। इस बात की पुष्टि बनारस के पत्रकार ऋषि झिंगरन भी करते हैं। वह कहते हैं, “ बनारस की राजनीति आज जिस मुकाम पर खड़ी है, वहां बीजेपी का पूरा अस्तित्व सिर्फ मोदी और अमित शाह के करिश्मे पर टिका है। लेकिन सियासत केवल करिश्मे से नहीं चलती। जमीनी हकीकत, कार्यकर्ताओं का भरोसा और जनता की उम्मीदें ही किसी दल की असली ताकत होती हैं।”

“अगर बीजेपी ने पुराने साथियों को दरकिनार कर बाहरियों पर भरोसा करना जारी रखा तो आगामी विधानसभा चुनाव में उसका वजूद खतररे में पड़ सकता है। और यह खतरा सिर्फ बनारस तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे पूर्वांचल और फिर उत्तर प्रदेश की सियासत को भी प्रभावित करेगा। एक बात तो तय है-बनारस की जनता सब देख रही है। गंगा किनारे बैठा काशीवासी भूलता नहीं और जब गुस्सा फूटता है तो वह सत्ता के सबसे ऊंचे सिंहासन को भी डिगा सकता है।”

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं)

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