बरेली में रहते हुए पांच बरस गुजर चुके थे। जिस अखबार में नौकरी करता था, उससे उचट गया था मन। अखबारी काम में अव्वल होने के बावजूद अपने सीनियरों के निशाने पर अक्सर मैं ही रहता था। एक रोज अचानक इरादा बदला और नौकरी छोड़ दी। चला आया मेरठ। नए अखबार में नौकरी करने। मेरठ में मकान मिलने में महीनों लग गए। कुछ दिन ब्रह्मपुरी मुहल्ले में रहा। मेरठ में पुरबिया लड़के को कोई मकान देने के लिए राजी ही नहीं था। ताने भी सुनने पड़ते थे, “ये लोग बेहूदे होते हैं। अपने छोटे-छोटे बच्चों को आप कहकर बुलाते हैं। कितनी घटिया सोच है इनकी…।”
काफी जद्दोजहद के बाद शास्त्रीनगर में एक मकान मिल पाया। बाद में खड़ी हुई बैंक एकाउंट खोलने की समस्या। जिस अखबार में मैं नौकरी करता था उसका खाता आबूलेन स्थित एक बैंक की शाखा में था। बैंक एकाउंट खोलने के लिए आए दिन चक्कर लगाने लगा। कोई न कोई बहाना बनाकर लौटा दिया जाता था। बैंक एकाउंट पर जिस अफसर का दस्तखत होना था वो थी बैंक की डिप्टी मैनेजर। बेहद कड़क मिजाज लड़की थी वो। नाम था प्रीति, लेकिन आचरण था बिल्कुल विपरीत। शायद नई नौकरी थी, इसीलिए वो रुआब में रहा करती थी। कोई ग्राहक उसके पास शिकायत लेकर जाने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाता था। बैंक के गार्ड ने चुपके से बता दिया था कि वो बहुत खड़ूस और निर्मम महिला है। किसी की सुनती ही नहीं। उससे कोई बहस करता तो तत्काल पुलिस बुला लेती है। हर कोई डरता है उसे। ग्राहक और बैंक वाले भी।
सावन का महीना था। बारिश जोरों से हो रही थी। उस रोज तय करके पहुंचा था कि बैंक मैनेजर से मिलकर प्रीति की मनमानी की शिकायत करूंगा। लेकिन मन में एक भाव आया कि एक बार उससे ही क्यों न मिल लिया जाए।क्या पता बैंक वाले झूठ बोलते हों और महिला कर्मचारी को बदनाम करना चाहते हों?
मैं डिप्टी मैनेजर प्रीति के केबिन में घुसा और बगैर इजाजत कुर्सी पर बैठ गया। उसने मेरी तरफ देखा तक नहीं। वो बड़ी निर्ममता से मोटे-मोटे रजिस्टरों को खोलती और दस्तखत करने के बाद उन्हें बगल में पटक देती थी। निर्विकार भाव था उसके चेहरे पर। मैं उसके सामने बैठा था। फिर भी वह मेरे तरफ मुखातिब नहीं हुई। दिमाग में तरह-तरह के भाव उमड़ने-घुमड़ने लगे। सोचने लगा कि कि यह उसका खड़ूसपन है अथवा वह महिला अफसर होने का बेजा फायदा उठाती है? उसका बैंक में काम करना मुझे अचरज ही नहीं, बेतुका सा लग रहा था। वो एक रजिस्टर खोलती और अपनी आंखें गड़ा देती थी।
मैने सवाल करने की कोशिश की, पर उसने हमारी तरफ देखा तक नहीं। बस मैं अपना और अपने अखबार का नाम भर बता सका।
प्रीति हसीन महिला थी। उसे देखने के बाद मैं अपने मकसद को भूल सा गया कि मुझे बैंक में अपना खाता खोलवाना है। बस एक टक उसे देखता रहा। उसकी गौर-कांचल मांसलता पर खिंचता जा रहा था। शायद उसे नहीं मालूम था कि उसकी तराशी हुई काया किसी अखबारनवीस की तीखी नजरों में समाती जा रही है।
करीब घंटे भर बाद बारिश का शोर थमा तो अचानक वो मेरी तरफ उन्मुख हुई। तब मेरा ध्यान भंग हुआ। लचकदार आवाज में उसने कहा, “आपका खाता खुल गया है। ये रहा आपका पासबुक।“
यह बोलकर वो अपनी सीट से उठी और दूसरे कमरे में चली गई। मैं उसे धन्यवाद देना चाहता था, लेकिन वो अपनी कुर्सी पर लौटी ही नहीं।
आबूलेन के इसी बैंक में मेरा सेलरी अकाउंट था। इसलिए गाहे-बगाहे चला जाता था। लेकिन जब भी बैंक में जाता, तो मेरी आंखें सिर्फ बैंक बाली उस प्रीति को ही ढूंढती रहती थीं, जिसकी अदा पर मैं फिदा था।
कुछ ही दिन बीते थे। बैंक वाली युवती प्रीति को शास्त्रीनगर इलाके में एक हवेलीनुमा मकान से निकलते देखा। उसने एक अपार्टमेंट में किराये पर कमरा ले रखा था। वह अकेले ही रहती थी। कोई पुरुष नहीं था उसके घर में। मैं भी शास्त्रीनगर में ही रहता था। जिस जगह उसकी कोठी थी, उसी रास्ते से मैं रोजाना अखबार के दफ्तर में आता-जाता था। बैंक वाली के अपार्टमेंट पास पहुंचता तो अचानक मेरा स्कूटर धीमा हो जाता था। मेरी नजरें उसे देखने को लालायित हो उठती थीं। कई बार वो रास्ते में दिख भी जाती थी।
धूप हो या बदली, वो आपनी आंखों पर मोटा सा काला चश्मा चढ़ाए रहती थी। धीमी चाल, अपने आप में सिमटी, सिर नीचा किए आती-जाती थी वो। हाथ में एक बड़ा सा पर्स…यह था उसके बैंक जाने का आलम। चीमी चाल, बिखरी जुल्फें, पेशानी पर चमकती पसीने की बूंदें और वही पर्स…यह थी उसके घर लौटने की स्थिति।
बैंक से पैसे निकालने के लिए उन दिनों एटीएम का चलन नहीं था। पासबुक के साथ विड्राल फार्म भरकर देना पड़ता था। मैं जब भी बैंक जाता, उसकी केबिन के सामने खड़ा हो जाता। बस एकटक उसे देखता रहता था। प्रीति की पलकें हमेशा झुकी रहती थीं। नजरें भारी-भरकम रजिस्टर के किसी पन्ने पर अटकी रहती थीं। उसकी नजरें उठती भी थीं तब भी चेहरे पर परिचय की कोई रेखा नहीं उभरती। मैं मेरठ शहर का तेज-तर्रार रिपोर्टर था। इस वजह से उसने कई बार, मुझे कई जगहों पर देखा था।
काफी दिनों बाद एक दिन अचानक वो मेरी तरफ उन्मुख हुई। थोड़ी सी व्यग्रता और व्यस्तता का प्रदर्शन करने की मुद्रा में उसने बैंक आने अभिप्राय पूछा, “पैसे निकालने हैं क्या?”
मैं अचकचा गया और कहा, “जी हां।“
“सामने कुर्सी पर बैठ जाइए।“
मैं उसके आदेश का पालन किया। वो बेमुरव्वत मेरी ओर एक क्षण देखती और एक फीकी सी मुस्कान छोड़ने की कोशिश करती। मैं निरीह सा बैठा रहता और एक टक उसके चेहरे पर अपनी नजरें गड़ाए रहता। कुछ देर बाद बैक वाली आई और मेरा पासबुक और रुपये मेरे हाथ में रख दिए।
मेरे मन में बैंक वाली का चेहरा अक्सर उमड़ता-घुमड़ता रहता था। मैं उससे मेल-जोल बढ़ाना चाहता था, लेकिन प्रीति सिर्फ काम से मतलब रखती थी। ग्राहकों और बैंक वालों की नजर में वो बेहद खड़ूस महिला थी। अपने आप में सिमटी रहती थी। शायद उसे किसी से बातचीत करना पसंद नहीं था।
मैने यह अनुमान लगा लिया था कि प्रीति बैंक के लिए कब निकलती है? तभी मैं भी अपने घर से उसके अपार्टमेंट की ओर से निकलता। उसे सड़क पर गुजरते हुए देख लेता तो मेरे मन का विक्षोभ थोड़ा कम हो जाता। मेरे लिए यह रोज का खेल सा बन गया। मैं नहीं समझ पा रहा था कि ये कौन सा खेल है बैंक वाली को निहारने का। एक रोज मैने ठान लिया कि अब वो प्रीति का चेहरा देखने नहीं जाएगा। रोज-रोज उसे सिर्फ देखना सिर्फ बेवकूफी और एकतरफा दीवानगी है। लेकिन जिस दिन मैं उसे नहीं देखता था, उस रोज बड़ी कसमसाहट रहती थी। मन की वर्जना के बावजूद उसे देखने की ललक बढ़ जाती। बैंक वाली को देखते ही मेरे मन का उबाल और उथल-पुथल थोड़ा शांत हो जाता।
पता नहीं ये कैसा खेल था। स्वाभाविक सा। गुरुत्वाकर्षण की ओर निर्झरित प्राणात जैसा। मुझे हमेशा यही एहसास होता रहा कि उसके निश्चल और निस्सीम हृदय में मेरी धुंधली तस्वीर भी नहीं होगी। एकतरफा दीवानगी…य़ह सब बकवास है…महज इन्फक्चुएशन।
मेरठ कचहरी के पास था एक सिनेमाघर। गाहे-बगाहे मैं भी वहां पिक्चर देखने चला जाता था। सिनेमा हाल के मालिक अनुराज चौधरी मेरे मित्र थे। लेकिन उनकी नजरों से बचकर मैं शो देखने घुस जाता था। एक रोज रविवार को मैटनी शो में भारी भीड़ थी। शो छूटने से पहले ही मूसलधार बारिश होने लगी थी। गर्मी के बाद बारिश की बौछार ने सड़कों को लबालब भर दिया था। मैं बारिश थमने का इंतजार कर रहा था। इस वजह से सिनेमा हाल का पोर्टिको खचाखच भरा था। अचानक में मुझे बैंक वाली युवती दिखी। शायह वो भी सिनेमा देखने आई थी। उसकी तरफ नजर गई तो दिल में हलकी सी टीस उठी। थोड़ा सुखद एहसास भी हुआ। मैं नहीं चाहता था वो मुझे देखे और समझे कि मेरी नजरें उसे घूर रही हैं।
अचानक एक मीठी सी आवाज मेरे कानों में पड़ी, “आप भी तो घर ही जा रहे होंगे-शास्त्रीनगर?”
मैं अचकचा गया। मुड़कर देखा तो आखों पर विश्वास नहीं हुआ। प्रीति ठीक मेरे पीछे खड़ी थी।
“आप मुझे अपने स्कूटर से घर तक छोड़ देंगे। देखिए बारिश में कोई रिक्शा भी उस तरफ नहीं जा रहा है। अंधेरा होने वाला है।“
जब तक मैने हामी नहीं भरी, तब तक वो एक्सक्यूज देती रही, “कोई सवारी नजर नहीं आ रही है। भोजन भी बनाना है। इसलिए घर पहुंचना बेहद जरूरी है।“
भीगते हुए हम दोनों उसके घर पहुंचे। तब तक अंधेरा छा चुका था। उसने घर का दरवाजा खोला और रोशनी जलाई।
मैने कहा, “आप तो बिल्कुल भीग गई हैं?”
इस पर उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। सिर्फ उसने एक क्षण के लिए अपनी तीखी और नशीली नजरों से मेरी ओर देखा। एक मीठी सी मुस्कान उसके चेहरे पर निखर गई।
कुछ देर बाद कहा, “घर तक छोड़ने के लिए आपका शुक्रिया।”
कुछ ही दिनों में प्रीति से मेरा मेल-मिलाप बढ़ गया। यह भी समझ में आ गया कि लोग उसे जैसा समझते हैं, वैसी है नहीं। वो नेक दिल की अच्छी लड़की है। कुछ दिनों तक मेरा उससे यदा-कदा मिलने का सिलसिला चलता रहा।
बातचीत के दौरान में समझ गया था कि बैंक वाली के अद्भुत सौंदर्य में कोई विचित्र सी पीड़ा है। वह अपने दिल में कोई बड़ा तूफान छिपाए हुए है। न जाने क्यों मैं उसे कभी निराश नहीं देखना चाहता था। लेकिन कह भी नहीं पाता था। इतना जरूर चाहता था कि वो मुझसे खुलकर बात करे और हमेशा खुश रहे।
एक दिन मैने हिम्मत जुटाई और उसके घर गया। काफी देर तक उसके सामने बैठा रहा। बीच में मैंने एक जुमला उछाला, “शादी क्यों नहीं कर लेती? जीने के लिए इंसान को तलवार नहीं, प्यार चाहिए।”
प्रीति ने लंबी सांस ली, जैसे कोई बड़ा शब्द उसके दिमाग में घूम गया हो।
प्रीति ने कहा, “प्यार रूपी तलवार की धार पर चलना मृत्यु को जीतना है। क्या करोगे मौत को जीतकर? क्या मरना नहीं है? मौत तो एक न एक दिन होनी ही है। क्या तुमने कभी सोचा है एक क्षण की खुशी कितना दुख देती है। जीवन में हंसना भी है, रोना भी है। पल भर की खुशी कभी बहुत रुलाती है। जिंदगी में जितने सुख, वो सब दुखों के तेज भाले हैं। सुख के लिए इंसान को दुखी होना पड़ता है। आत्म शांति के लिए आदमी को ठोकर खानी पड़ती है। तिरस्कार का प्रहार झेलना पड़ता है।“
मैने कहा, ‘अपमान न हो तो सम्मान का कोई महत्व नहीं। संयोग से वियोग और वियोग से संयोग का अस्तित्व है।”
प्रीति ने कहा, “आदमी अपने अहम में फूल तोड़ता है, सूंघता है और फेंक देता है। आदमी शक्की होता है। खुद अपने पर शक नहीं करता, लेकिन औरत को बांधकर रखना चहता है। औरत जानकर भी अनजान बनी रहती है। मर्द तो बिना बात के संदेह की दृष्टि से विद्रोही हो जाता है। राम भगवान थे और उन्होंने सीता को छोड़ दिया। सिर्फ शक और अपने अहम को शांत करने के लिए।”
मैने कहा, “सीता का त्याग करके क्या राम शांति से जी पाए? क्या उन्हें सीता फिर मिल पाई? धरती में समा गईं वो और लाचारी में राम को सरयू नदी में अपनी तिलांजलि देनी पड़ी। मरने के बाद कौन याद करता है किसी को। एक दिन, दो दिन, चार दिन और साल-दो साल बीतने के बाद स्मृतियों में विलीन हो जाते हैं लोग और खो जाती हैं आकृतियां।”
“हम चाहें तो अपवाद बनकर नए इतिहास का निर्माण कर सकते हैं। एक नई दुनिया होगी। वो दुनिया अमर सत्य पर टिकी होगी। हर इंसान उसूलों पर जिंदगी बिताता है। सबसे बड़ा आध्यात्मिक बल होता है प्रेम का। प्यार पर होने वाले प्रहार कभी न कभी फूल बन जाते हैं। बासी फूल झड़ जाते हैं। ताजे फूल डालियों पर खिलने लगते हैं। नवीनता की खुशबू हमेशा हवाओं में उड़ती रहती है।”
प्रीति ने कहा, “सत्य ही ईश्वर है। जैसे प्रभु नहीं दिखाई देते, वैसे ही सत्य भी दिखाई नहीं देता। ईश्वर दिख जाएं तो सारी शंकाओं का समाझान हो जाए। दुनिया विडंबनाओं की पहेली है। आश्चर्यों की प्रदर्शनी है। कितना बड़ा आश्चर्य है स्वार्थ। युद्ध की विभीषिताओं में हर आदमी अपने अपराध को न्याय कहने लगता है। प्यार और लड़ाई में हर बात जायज है, लेकिन यह सत्य का प्रत्यक्ष दर्पण नहीं है।”
प्रीति और हम यदा-कदा मिलते रहे। दोनों को यह समझ में नहीं आ रहा था कोई किसी को क्यों चाहने लगता है? शायद वो खुद की इच्छा है। इच्छा के बिना न जीवन है, न मेल है। किसी पर किसी का मन तभी आता है जब उसमें कोई खूबी होती है। सुंदर स्त्री को देखकर पुरुष और रूपवान पुरुष को देखकर कोई स्त्री चंद्रकांत मणि की तरह द्रवित होने लगती है।
प्रीति अक्सर कहा करती थी, “कविता और कल्पनाएं सिर्फ मन बहलाने के लिए अच्छी होती हैं। जिंदगी की धरातल तो कुछ और ही होती है।”
तब मैं कहता, “प्रेम प्राणी की सर्वोच्च पूंजी है। प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। प्रेम तो उम्र की सीमा भी नहीं देखता। गठिया की तरह पुरानी हड्डियों पर वो अधिक जमता है। जिस दिन प्यार की मौत हो जाएगी, उस दिन दुनिया का अस्तित्व मिटने लगेगा। तब दुनिया भी नहीं होगी।”
एक दिन अचानक मुझे बनारस के एक बड़े अखबार का आफर मिला और मैने उसे स्वीकार कर लिया। मुझे ऐसा लगा कि प्रीति को मेरठ छोड़कर जाने की सूचना दूंगा तो उसके मुलायमदार चेहरे पर व्यथा और विछोह की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं जरूर उभरेंगी। उसके आतुर मन की चीख मुझे जरूर सुनाई पड़ेगी। उसकी सीप सी आखों में कोई संकेत होगा। शायद नयनों से नीर भी बहने लगें। वो भावुक हो उठेगी और रुकने को कहेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। प्रीति पाषाण मूर्ति की तरह निस्पंद एकटक मुझे निहारती रही। उसने ने एक बार भी यह नहीं कहा कि मेरठ मत छोड़ो। रुक जाओ यहीं।
नए अखबार में नौकरी करनी थी। मैं बनारस लौट आया। कुछ दिनों तक वो मेरी यादों में जिंदा रही। बाद में मैं अखबारी दुनिया में खो गया। दो बरस गुजर गए। पतझड़ ने पुरानी यादों के कब्र पर ढेरों सूखे पत्ते जमा कर दिए।
एक रोज प्रीति बनारस आई। मेरे दफ्तर में अचानक हाजिर हो गई। बेहद कमजोर हो गई थी। आंखों के किनारे स्याह पड़ गए थे। एक बारगी समझ ही नहीं पाया कि वही बैंक वाली प्रीति है।
मेरी आंखों को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। मैं एक टक उसे देखता रहा। अखबार के दफ्तर में बातचीत संभव नहीं था। उसे लहुराबीर के एक रेस्टोरेंट में ले गया। मुस्कुराती हुई वो मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई।
“शिकायत के लहजे में कहा, तुमने तो मुझे बैठने के लिए भी नहीं कहा।“
मैने कहा, “माफ कीजिए। मेरी आंखें धोखा तो नहीं खा रही हैं।“
छोड़िए इन बातों को…तुमसे एक जरूरी काम है। मुझे यकीन हैं कि तुम मुझे निराश नहीं करेंगे। मेरी मदद जरूर करेंगे।“
“मैने कहा, “क्यों नहीं…, क्यों नहीं…फरमइए।” मैने हड़बड़ाते हुए पूछा।
प्रीति ने बताया कि मेरी छोटी बहन दिल्ली में आईएएस कंपटीशन की तैयारी कर रही थी। लाख प्रयास के बावजूद वो कामयाब नहीं हो सकी। मैं दो सालों से उसके लिए रिश्ते ढूंढ रही हूं। कोई कायदे का वर ही नहीं मिल रहा है। हर जगह भारी-भरकम दहेज की डिमांड की जा रही है। मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि ढेरों दहेज देकर अपनी छोटी बहन के हाथ पीले कर सकूं। मेरी बहन के लिए योग्य वर की तलाश में क्या तुम मेरी मदद करोगे?
मैने कहा, “कोशिश शुरू करते हैं। देखते हैं कब तक कामयाबी मिल पाती है।”
करीब तीन महीने बाद प्रीति की बहन के लिए हमने एक योग्य वर ढूंढ लिया। शादी भी हो गई। बहन को उसने गहने भी दिए और दहेज के ढेरों सामान भी। मेहमानों की खातिरदारी में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।
कुछ दिनों बाद मुझे एक चिट्ठी मिली। वो चिट्ठी नहीं, मेरे लिए बम की तरह थी। खत पढ़ते समय मेरा दिमाग फटने लगा था। सिर चकराने लगा। ऐसा कैसे हो सकता है….? वो जेल में …?? आखिर कौन सा अपराध किया है उसने…???
मुझे उससे मिलने की इच्छा तेज हो उठी। बनारस से काशी विश्वनाथ ट्रेन पकड़ा और हापुड़ से मेरठ पहुंचा। प्रीति जेल में नजरबंद थी। इत्तेफाक से जेल सुरपरिटेंडेंट बनारस के रहने वाले थे। सुपरिटेंडेट ने अपने मातहतों को निर्देश दिया और मैं प्रीति से मिलने जेल में पहुंचा।
प्रीति के करीब पहुंचते ही मेरे अंदर का बहाव तेज हो चुका था। यादों के कब्रिस्तान पर पड़े सूखे पत्ते खड़खड़ाने लगे। दिमाग में गजब का बवंडर पैदा हो गया। बैंक वाली अपने ज्वालामुखी को दबाए मुझे देख रही थी। उसकी लावण्यमुक्त काया मुरझा गई थी। होठ कांप रहे थे। मुंह से न आवाज निकल पा रही थी और न ही सिसकियां।
मैं निरीह सा उसके सामने खड़ा था। तनहाई के सलाखों को मुट्ठी से दबाए उसके मन के भावों को पढ़ने की असफल कोशिश कर रहा था। पहली मर्तबा उसकी आखों में आसुओं की बूंदे दिखीं। काफी देर तक वो रोती रही। हिचकियां लेती रही। कुछ बोलना चाहती थी, मगर जुबान पर शब्द ही नहीं उभर पाते थे।
काफी देर बाद उसके मुंह से एक सहमी से आवाज निकली, “मुझे अपनी बहन की शादी करनी थी। दहेज के लिए पैसे नहीं थे। कोई चारा नहीं था। बैंक से रुपये लेकर शादी कर दी। गबन करके आत्मसमर्पण कर दिया….। कुछ सालों में जेल से छूट जाऊंगी..। तब तुम क्या तुम मेरा साथ देंगे…?”
उस समय मुझे भूकंप जैसा एहसास हुआ…। मैं अपने आंसुओं को रोक नहीं सका…। यह भी नहीं कह सका कि मेरी शादी हो चुकी है…।